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परिपूर्ण मानव – श्री गुरुजी

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???????????भारतीय जीवन-सिद्धांतों के संबंध में आज फिर से विचार करने की आवश्यकता उत्पन्न हुई है. इसका कारण बड़ा स्पष्ट और सरल है. हमें पता है कि जब तक देश में एक परकीय राज्य था, तब लोगों में अपना देश, अपना राष्ट्र, अपना स्वत्व-यह विचार प्रबल था. लोग यह भी समझते थे कि अपने राष्ट्र के स्वातंत्र्य के लिये, पुनर्निर्माण के लिये सद्गुणी जीवन, निर्दोष जीवन, स्वार्थरहित तथा त्याग-तपस्या से भरा हुआ जीवन आवश्यक है. उन दिनों प्रत्येक दल का कार्यकर्ता अत्यंत सादगी और त्याग का जीवन व्यतीत करता था. उस समय कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि आगे चलकर इस परंपरा में कोई विकृति आयेगी. सब के मन में यही विश्वास होता था कि जब ऐसे श्रेष्ठ चरित्रवान, गुणवान, त्यागी पुरुष अपने देश की बागडोर संभाल लेंगे तो सभी प्रकार का उत्कर्ष होगा और अपने राष्ट्र की पुनीत परंपरा प्रकट होगी. परन्तु, निरंकुश सत्ता जीवन में बहुत दोष उत्पन्न कर देती है. लोग कहते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकार के मदों से भी अधिक संकट उत्पन्न करने वाला राजसत्ता का मद होता है.

कई वर्षों पहले हमने सुना था कि अपने देश में चारित्र्य का संकट उत्पन्न हो गया है, परन्तु चारित्र्य-निर्माण का कार्य कोई नहीं करता. हमने सर्वसामान्य व्यक्ति से तो यह आशा की है कि वह चारित्र्यवान, गुणवान और स्वार्थशून्य बने, शायद इसीलिये छोटे-मोटे भ्रष्टाचार करने पर उसके लिये दण्ड की व्यवस्था भी की गयी, किंतु जहाँ बहुत बड़े-बड़े घपले हो रहे हैं, उस ओर कोई देखता भी नहीं. यह बिल्कुल विपरीत बात है.

समाज और परिवार की उत्तम धारणा तथा सामान्य जीवन चलाने के लिये समाज के जनसामान्य की प्राथमिक आवश्यकताओं की उत्तम रीति से पूर्ति आवश्यक है. ऐहिक सम्पन्नता की जो आवश्यकता है, उसकी पूर्ति की व्यवस्था समाज की नींव से होनी चाहिये. इन सब प्रकार की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति नींव से प्रारंभ करके ही ऊपर के लोगों की व्यवस्था की चिंता करनी चाहिये. ऐसा करने के लिये ऊपर के, बिल्कुल ऊपर के जो लोग हैं, उनको मानव की सहज आवश्यकताओं, जैसे- ऐश-आराम, खाना-पीना इत्यादि में कुछ संयम रखना पड़े तो रखना चाहिये. ऐसी स्थिति में किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं होनी चाहिये. परन्तु चारित्र्य-निर्माण का काम इससे उल्टा चलता है. सम्पूर्ण समाज में जो लोग उच्च वर्ग के कहे जाते हैं- उनसे यह संयम, सादगी और सदाचार का जीवन प्रारंभ होकर समाज की नींव तक, धीरे-धीरे झरता चला जाये, ऐसा जीवन बनाने की आज आवश्यकता है. किन्तु दिखाई यह देता है कि ऐश-आराम के भोग की सम्पन्नता उच्च वर्ग के लोग उठा रहे हैं और चरित्र-सम्पन्नता की अपेक्षा नींव के पास बैठे सामान्य मनुष्य से की जा रही है. यह बिल्कुल उल्टी बात है. इससे समाज का सच्चा विकास होना, समाज की योग्य धारणा होना संभव नहीं.

परन्तु आज उल्टी स्थिति देखने को मिलती है. साथ ही यह भी दिखाई देता है कि जब परकीय राज्य था तब अपने स्वत्व के अभिमान के कारण अपनी परम्परा के अनुरूप जीवन बनाने का प्रयत्न चलता था. ऐसा होते हुये भी परकीय लोगों का अपने साथ संबंध आया और इस संपर्क का अपने अन्तःकरण पर जो कुछ आघात हुआ, वह परकीय राज्य के विरोध की भावना से भरा हुआ था. परन्तु, जैसे ही परकीय राज्य यहाँ से चला गया, वैसे ही उस आघात को दबाकर रखने वाली संपूर्ण प्रेरणा भी चली गयी. इस प्रकार परकीय जीवन का हमारे ऊपर बड़ा प्रहार हुआ. हमारा जीवन समूल बदल गया. यह बात तो ठीक है कि जगत् में अन्यत्र लोगों से संबंध आने पर थोड़ा-बहुत जीवन प्रणाली का आदान-प्रदान होता है, होना भी चाहिये. परन्तु यहाँ आदान-प्रदान नहीं हुआ. हम तो केवल ग्रहण कर रहे हैं, जो ग्रहण करने योग्य नहीं है, उसे भी ग्रहण कर रहे हैं. यदि हम अंग्रेजों की देशभक्ति की भावना, उनके विशिष्ट चरित्र और कर्मण्यता, कर्तव्यबोध के गुण को ग्रहण करते तो इसमें किसी को कोई शिकायत नहीं होती, परन्तु हमने यह ग्रहण नहीं किया. उनके कुछ अवगुण ग्रहण किये, उनकी ऊपर की रहन-सहन की प्रणाली ग्रहण की और उनके कारण अपने स्वत्व का निषेध करना प्रारंभ किया. ये सब बातें बड़ी द्रुतगति से अपने संपूर्ण समाज को परिवर्तित कर रही हैं. रहन-सहन, चरित्र-निर्माण और कर्तव्यबोध, सभी दृष्टियों से यह परिवर्तन दोषपूर्ण है. ऐसी स्थिति में हमें अपने स्वत्व का फिर से बोध करने के लिये विचार करना आवश्यक है. परन्तु स्वत्व का बोध करना इतना सरल नहीं है. इसमें अनेक कठिनाइयाँ आती हैं. एक बड़ी कठिनाई पिछले वर्षों की शिक्षा-दीक्षा है. शिक्षा का यह स्वरूप बनाने वाले अंग्रेज ने कहा था, यहाँ काले रंग के अंग्रेज बनेंगे. आज सब वैसे ही बने भी हैं. उन्हें अपना कुछ भी अच्छा नहीं लगता. यदि कोई कहे कि हमारे यहाँ जीवन का बहुत बड़ा सिद्धांत है जो समग्र मानव के लिये उपकारण है तो अपना अच्छा पढ़ा-लिखा, अगुआई की इच्छा रखने वाला व्यक्ति इसे मानने को तैयार नहीं होता.

अंग्रेजी फैशन के कारण यह कहने की पद्धति चल पड़ी है कि मैं धर्म पर विश्वास नहीं करता, ईश्वर को नहीं मानता. ऐसा मानने की आवश्यकता नहीं है. इस प्रकार अपने जीवन का जो मूलाधार है, उसे ही अस्वीकार करने का फैशन चल पड़ा है. आज वास्तविक रीति से यह विचार करने की आवश्यकता है कि जिन्होंने हमारे जीवन पर आघात किया है, उनका क्या कोई श्रेष्ठ दर्शन है?

दर्शन के नाते आज एक बहुचर्चित दर्शन कम्युनिज्म है. हम उसका विचार करें. उसने कुछ सिद्धांत बनाये हैं, कुछ समाज-रचना की बात की है और सम्पूर्ण समाज में समान रीति से सुख वितरित करने का प्रयत्न होना चाहिये, ऐसा बड़ा सिद्धांत सबको समझाकर बताया है. पश्चिम के अन्य जो देश हैं, उनके पास ऐसा कोई दर्शन नहीं है. सामान्य राजनीति की, प्रजातंत्र की, मानव की समानता की जो घोषणायें पहले फ्रांस में हुई थी, उन्हीं के आधार पर राजनीतिक और आर्थिक जीवन चलाने की केवल बात करने के अतिरिक्त उनके पास और कोई सिद्धांत नहीं है. यदि कोई कहे कि सभी मानवों में समानता है, तो यह बात अपने अनुभव के विरुद्ध जायेगी. कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं. एक माता के दो पुत्र समान नहीं होते. हाँ, शारीरिक आवश्यकताओं में समानता हो सकती है. परन्तु बुद्धि, गुणों के और सब प्रकार की शक्तियों में समानता की बात करना अनुभव-विरुद्ध होगा, इसलिये इस सिद्धांत में कुछ दोष अवश्य ही हैं.

इस विचार-प्रणाली से ही आगे चलकर साम्यवादियों ने भी समानता-निर्माण करने का प्रयत्न किया. इन सब बातों में एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि क्या मनुष्य का जीवन इसी लोक से संबंधित है. क्या मनुष्य को केवल भोजन, आवास और मन को सुख-संतोष देने वाले साधन ही चाहिये? इन्हीं का उत्पादन और वितरण ही क्या उसका अभीष्ट है? पश्चिम के लोकतांत्रिक कहलाने वाले और साम्यवादी कहलाने वाले देशों में केवल विकल्प का भेद है, और कुछ नहीं.

यह जीवन इस लोक से संबंधित है, यानी अर्थ-प्रधान है. मन की विषय-वासना को तुष्ट करने वाले साधनों को जुटाना और रक्षा के लिये सत्ता को अधिकाधिक प्रबल करना, यही आज की अर्थ-काम-प्रधान समस्या है. हमारे यहाँ कलियुग का वर्णन आता है. उसका अर्थ इतना ही है कि मनुष्य खाना-पीना, सुख-साधन और विषयोपभोग में ही फंसता चला जायेगा. ऐहिक जीवन को सर्वस्व मानेगा, ऐसा उसका अर्थ है.

भिन्न-भिन्न देशों की दशा देखने से लगता है कि कलि का यह वर्णन कितना सार्थक है. पता नहीं हमारे पूर्वजों ने किसी दूरदृष्टि से इस उपभोग-प्रधान और लोभ को ही आगे रखकर चलने वाले जीवन को इतना स्पष्ट देखा और उसका वर्णन किया.

आज यह सभी जानते हैं कि जीवन अर्थ-काम-प्रधान है. अर्थ-प्राप्ति के बाद उसकी रक्षा और उसका संवर्धन आवश्यक हो गया है. आवश्यक इसलिये कि आज तक वासना से कोई संतुष्ट नहीं हुआ है. इसलिये अपने यहां लोगों ने कहा, न जातुकामः कामनाम् उपभोगेन शाम्यति. जैसे अग्नि में लकड़ी डालने से या आहुति देने से अग्नि धधक उठती है, उसी प्रकार से वासना-विकास भी धधक उठते हैं,- ऐसा अपने यहाँ कहा गया है. यह हमारा नित्य का अनुभव भी है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के भोग करने के लिये शारीरिक दृष्टि से असमर्थ होने पर भी उन उपभोगों की चाह मन से नहीं जाती. उनकी प्यास बनी रहती है. इसलिये कई लोगों ने कहा है कि क्या करें? हम तो जीर्ण हो गये हैं, लेकिन हमारी तृष्णा अभी भी यौवन पर है- तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः. किसी भी वासना का कभी संतोष नहीं होता. इसी कारण इन वासनाओं की तुष्टि के लिये अधिकाधिक साधन जुटाना, अधिकाधिक संग्रह करना, अपनी भूमि से यदि वासना-तृप्ति न हो तो दूसरे की भूमि पर प्रहार करके उसके धन का अपहरण करना, यही स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है. जगत् में चलने वाला एक प्रकार का साम्राज्यवाद इसी उपभोग की उद्दाम लालसा का ही परिणाम है. इसी के कारण अन्यान्य देशों पर बलात् अधिकार करने की इच्छा का भी निर्माण हो रहा है. इस नाते जगत् में कभी शांति प्राप्त होने की आशा नहीं. मन की इस अशांति का प्रत्यक्ष व्यवहार में प्रकट होना अनिवार्य है. वासना अतृप्त रहने के कारण मन अशांत रहता है और सभी प्रकार की भ्रांति जगत् में बनी रहती है. आज यही स्थिति हमें दिखाई देती है. सब प्रकार संतोष पा जाने के कारण वासनाओं में विराम आ गया है, ऐसा कहीं भी दिखाई नहीं देता.

भगवद्गीता के 16वें अध्याय में दो प्रकार के लोगों का वर्णन किया गया है- एक सत् और दूसरे आसुरी गुणवाले. आज भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग संपत्ति के मद में अन्यान्य देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिये चेष्टायें करने में लगे हैं. यह आसुरी वृत्ति है. इसी का वर्णन सोलहवें अध्याय में हुआ है. इसमें ऐसे लोगों को असुर वृत्ति का कहा गया है जो कहते हैं- “मैंने इसको मारा है और अब मैं उसको मारूंगा, मैंने इसका धन छीना है और दूसरों का छीनूंगा. मैं ही बड़ा हूँ और मैं ही दाता हूँ. मैं ही यज्ञ करता हूँ. मेरे समान कोई नहीं है. मैं ही ईश्वर हूँ. आज भी मैं समाजवादी हूँ, मैं साम्यवादी हूँ, मैं प्रजातंत्रवादी हूँ,” आदि बोलने वाले लोग, अर्थ और काम की प्रधानता के कारण, सभी देशों में मिलते हैं. पश्चिम के अनेक देशों में गीता के 16वें अध्याय में वर्णित आसुरी संपदा का जीता-जागता स्वरूप दिखाई देता है. वहाँ दैवी शक्ति और दैवी संपत्ति देखने को भी नहीं मिलती.

लोगों ने और भी भिन्न-भिन्न प्रकार के मार्ग ढूँढने के प्रयत्न किये. अपने धार्मिक आदर्शों के आधार पर जीवन चलाना चाहा, पर उस मार्ग से भी लोगों को संतोष नहीं हुआ, क्योंकि उन धर्मों के भीतर कोई सिद्धांत और तत्वज्ञान नहीं है. केवल एक भगवान है और उसका एक पैगम्बर है, पैगम्बर के ऊपर विश्वास करो और भगवान से सब प्रकार की करुणा के लिये याचना करो, वह सब पापों को क्षमा कर देगा, ऐसी उनकी धारणा है. लेकिन अर्थ-काम के चक्कर में पड़ा जो मनुष्य ईश्वर को मानता ही नहीं, वह क्षमा क्यों माँगेगा? फिर भी उसे विश्वास करने को कहा जाता है. इस नाते बुद्धिमान व्यक्ति साधारणतः अपने भीतर ऐसे सिद्धांत नहीं उत्पन्न कर पाता. वह विश्वास के लिये बुद्धि का आधार लेता है. बुद्धि को संतुष्ट करके, उसके विश्वास को जागृत करना पड़ता है और कहना पड़ता है कि ‘हे पुत्र! विश्वास करो. बुद्धि की तुम्हारी जितनी दौड़ है वह सब समाप्त हो गयी, अब इसके आगे बुद्धि की गति नहीं है. अब शेष बातों पर विश्वास करो.’यह सब बाद में कहा जाता है. परन्तु यदि प्रारंभ में ही कह दिया कि विश्वास करो तो बुद्धिमान मनुष्य सोचता है कि यह बात तो मन में बैठती नहीं, क्योंकि जीवन को परिवर्तित करने की इसमें क्षमता नहीं. इस प्रकार श्रद्धा रहित विचार करने वाले लोग आज पाश्चात्य जगत् में दिखाई देते हैं.

यह ठीक है कि अपने यहाँ ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिये बड़े-बड़े लोग काम कर रहे हैं. किन्तु उनके यहाँ भी गिरजाघर खाली पड़े हैं, बहुत कम लोग वहाँ जाते हैं. लोगों का विश्वास उठ गया है. वहाँ जाने से उनके भीतर कोई भावना नहीं उत्पन्न होती. इसलिये कोई ऐसा सिद्धांत देना होगा जिसके द्वारा केवल अर्थ-काम को आधार मानकर चलने वाले आसुरी जीवन पर नियंत्रण किया जा सके.

देखना यह है कि क्या अपने देश और समाज की परम्परा से हमारा कोई पथ-प्रदर्शन होता है? निश्चय ही होता है. प्राचीनकाल के महापुरुषों ने सांगोपांग विवेचन करके कहा कि केवल अर्थ-काम की उपासना करना पशुवत् जीवन है, आसुरी जीवन है, राक्षसी जीवन है, त्याज्य जीवन है. लेकिन अर्थ-काम से सर्वथा मुक्त होना असंभव है. उसकी चाह प्रत्येक मनुष्य में थोड़ी बहुत मात्रा में रहेगी. पर उसके द्वारा जीवन में असुरता न आये, इसकी उपाय-योजना भी आवश्यक है.

इसी नाते अपने यहाँ लोगों को एक बात यह बतायी गयी कि भोग से वासना कभी संतुष्ट नहीं होती. दूसरी बात यह बतायी कि जिन वस्तुओं का संग्रह करके मनुष्य उनसे सुख पाने की अभिलाषा करता है, उन वस्तुओं में सुख देने की किसी प्रकार की कोई क्षमता नहीं है. सुख तो अपने पास है, बाहर से कुछ नहीं मिलता. हम तो अपने अज्ञान के कारण यह बोलते हों कि अमुक वस्तु में सुख है, जबकि वास्तविकता यह है कि हम उस वस्तु को निमित्त बनाकर अपने ही अन्दर के महासागर के सुख को चखते हैं. इसी नाते कहा गया है कि बाहर किसी वस्तु में सुख नहीं है, सुख तो अपने भीतर भरा है. मनुष्य शरीरं सत् चित् सुखम् यानि यह शरीर सत्य है, चेतनामय है, सुखमय है. हम अपने भीतर का ही सुख भोगते हैं और बाहर की वस्तु पर उसका आरोपण करते हैं.

मनुष्य के जीवन का वास्तविक लक्ष्य अपने भीतर के इसी सुख को पाना है. यही मूल सिद्धांत है जो अपने श्रेष्ठ पुरुषों ने बताया है, क्योंकि भीतरी सुख के उसी महासागर की अनुभूति ही जीवन का लक्ष्य है. मनुष्य सुख पाने के लिये जीता है. सुखानुभूति ही उसके जीवन का लक्ष्य है.

सब प्रकार के इहलौकिक बंधन से मुक्त हो जाने वाला, बाह्य वस्तुओं की कामना से निर्बाध हो जाने वाला ही यह चिरन्तन सुख प्राप्त कर पाता है. ऐसा सुख पाने वाले व्यक्ति के सभी बंधन छूट जाते हैं, क्योंकि किसी वस्तु की चाह के कारण उसका मन नहीं दौड़ता. यही बंधनमुक्ति है.यही व्यक्ति का चरम लक्ष्य भी है. किन्तु इस लक्ष्य को प्राप्त करने तक उसे इहलोक के सुखों की तृप्ति के लिये कुछ प्रयत्न तो करना ही पड़ेगा. लेकिन यह तृप्ति व्यक्ति को अमर्यादित न कर दे, इसकी उपाय-योजना भी करनी होगी.

इसके लिये हमारे यहाँ एक पुरुषार्थ बताया गया है-धर्म. सुख अनुभव करने के लिये जिस प्रकार व्यक्ति को मानसिक शांति और एकाग्रता चाहिये, उसी प्रकार व्यक्ति को अपना जीवन सुरक्षापूर्वक चलाने के लिये एक सुस्थित समाज की आवश्यकता होती है. यदि समाज सुचारु रूप से परस्पर सम्बद्ध है, सब मिलकर एक-दूसरे का कल्याण करने के लिये प्रयत्नशील होने के कारण परस्परानुकूल हैं तो ऐसे समुदाय में रहकर आश्वस्त जीवन चलाता हुआ व्यक्ति अपने अन्दर के चिरन्तन सुख की अनुभूति करने के लिये एकाग्र होकर सहज ही प्रयत्नशील हो सकेगा. इसलिये समाज की योग्य व्यवस्था धर्म का एक रूप,एक अर्थ है.

हम लोग जानते हैं कि धर्म की जो व्याख्यायें की गयी हैं, उनमें जो सबसे प्रचलित और प्रसिद्ध व्याख्या है, उसमें कहा गया है कि जो समाज की धारणा करता है, समाज को सुव्यवस्था से रखता है, समाज के सभी प्रकार के लोगों को ठीक प्रकार से अपने-अपने कार्यों में लगाता हुआ समग्र समाज के अभ्युदय के लिये, रक्षा के लिये, श्रेष्ठ जीवन के लिये सबके द्वारा परस्पर पूरकता से कर्म करवाने की जिसके अन्दर क्षमता है, वही धर्म है. समाज-धारणा की सुस्थिति बनाना धर्म का एक रूप है.

दूसरा रूप है मनुष्य को धर्म के अनुसार चलाने वाला. धर्म के बारे में हमारे यहाँ कहा गया है- वेदानुसार चलना या जो कुछ हमारा मूल प्रेरक विचार-संग्रह है, उसके अनुसार चलना और सब प्रकार के सत्य एवं सज्जनता के विचार करना अर्थात् अपने जीवन के गुणों का विकास करना. अपने आत्मा अर्थात् चिरन्तन सत्य की अनुभूति के लिये जो श्रेयस्कर लगे, उसके अनुरूप प्रयत्न करते रहना, यह भी एक धर्म है. एतद्प्राप्ति हेतु गुण-संवर्धन करने को धर्माचरण कहा गया है.

हमें उन गुणों का भी विचार करना है, जिनका आविष्कार करने के लिये हमें प्रयत्नशील होना है. इसके लिये अनेक विवरण दिये गये हैं. हमारे शास्त्रकारों ने सदाचार के नाम से दस गुण बताये हैं. सबसे लोकप्रिय एवं सर्वमान्य शास्त्र गीता है, उसमें भी अनेक स्थानों पर, हमें जिन गुणों का विकास करना चाहिये, उनका स्पष्ट उल्लेख हुआ है. उनको हम पढ़ें, उन पर विचार और चिन्तन करें. अपने अन्दर उन गुणों का विकास हुआ है या नहीं, इसको देखें और यदि कहीं कमी दिखाई दे तो उसको परिपूर्ण करने का प्रयत्न करें. मन को संयमित कर सुव्यवस्थित जीवन का निर्माण करें. अपने को सब प्रकार के अवगुणों से परावृत, पराङ्मुख एवं निवृत्त करें. बुद्धि को नियंत्रित करें. ऐसा समग्र संयमित जीवन जीने को हमारे शास्त्रों में बताया गया है.

अपने भीतर के अनेक गुणावगुणों, विकारों को भलीभाँति नियंत्रित करके मानसिक सुव्यवस्था का निर्माण (जिसे अंग्रेजी में रिहैबिलिटेशन ऑफ अवर माइण्ड्स कहा गया है) करना भी धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग है. इस धर्म को अपने जीवन का आधार मानकर इसके अनुरूप अर्थ-काम को नियोजित कर और इस धर्म के सद्गुण-संपन्न जीवन का पूरी तरह से अपने अंदर आविष्कार करते हुये, अंतिम लक्ष्य की नित्य उपासना करते हुये, चतुर्थ एवं अंतिम पुरुषार्थ-मोक्ष-की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना मनुष्य-जीवन का संपूर्ण स्वरूप है. यही परिपूर्ण मानव (इंटिग्रेटेड मैन) की कल्पना है. अर्थ-काम मात्र ही जिसके जीवन में हैं, वह अपूर्ण और विश्रंखलित (डिसइण्टिग्रेटेड मैन) है. समाज की धारणा का विचार करने वाला, समाज की धारणा (सुव्यवस्था) पर आंच न आये-ऐसा गुणोत्कर्ष रखने वाला, समाज में विकृति उत्पन्न न हो- इस मात्रा में अर्थोपार्जन और कामोपभोग को मर्यादित करने वाला, और फिर संयमित एवं एकाग्र अन्तःकरण से अपने मनोनुकूल किसी भी प्रकार की उपासना-पद्धति या सम्प्रदाय का अवलम्बन कर, ईश्वर की किसी भी मूर्ति की उपासना द्वारा चतुर्थ और अंतिम लक्ष्यरूप मोक्ष पुरुषार्थ को प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करने वाला ही परिपूर्ण मानव है, व्यवस्थित मानव है.

आज के अशांतिपूर्ण जगत् में मनुष्य-मनुष्य के बीच बंधुत्व के भाव का जो अभाव दिखाई देता है, उसे समाप्त करके जागतिक शांति की जीवन-व्यवस्था का निर्माण करने के लिये इन चारों पुरुषार्थों के चिरन्तन सत्य का बोध करने की हमारे अन्दर क्षमता आनी चाहिये. हमारे पूर्वजों, ऋषियों महर्षियों और मनीषियों ने इन चार पुरुषार्थों का ज्ञान रखा है. उसके द्वारा मनुष्य को अपने परिपूर्ण स्वरूप को प्रकट करने का साधन दिया है. हमारे ऊपर यह दायित्व है कि हम जगत् को, जगत् के यच्चयावत् मानव को, अपने उदाहरण और आदर्श से इस सत्य का बोध करायें.

अर्थ और काम एवं अन्य अनेक दुर्गुणों का अनेकविध अनुकरण करके हम यह कार्य कदापि नहीं कर सकेंगे. हमें तो विदेशों में चलने वाले अर्थकाम-प्रधान आसुरी जीवन को नियंत्रित करके चतुर्विध पुरुषार्थयुक्त, यानी समाज की सुव्यवस्था तथा अपने अंदर के सद्गुणों का पूर्ण रूप से आविष्कार एवं अनुष्ठानयुक्त, एक दैवी जीवन उत्पन्न करने का प्रयत्न करना है. यह बात जगत् के लिये कल्याणकारी भी है.

आज कम्युनिस्ट कहता है- “भाई! क्या तुम्हारे पास कोई जागतिक सिद्धांत भी है? हमारे पास तो जागतिक सिद्धांत है, इसीलिये सारे जगत् के श्रमिकों को एकत्रित होने के लिये हम कहते हैं.” परन्तु भारतीय तत्वज्ञान इसके ठीक विपरीत, मानव में श्रमिक व गैर-श्रमिक का भेद न करते हुये, संपूर्ण मानव का आह्वान करते हुये कहता है- “आओ, पूर्ण मानव बनो. पूर्ण मानव बनने के लिये चतुर्विध पुरुषार्थ ग्रहण करो. उसके आधार पर समाज की सुव्यवस्था, सुख-सम्पन्नता का पोषण करो. इस प्रकार एक नियंत्रित व्यक्तिगत जीवन का निर्माण करो. व्यक्तिगत जीवन के अर्थ-काम को सब प्रकार से काबू में रखो. कर्म-पुरुषार्थ की उपासना करके अपने जीवन को धन्य बनाओ.”

इस प्रकार प्रत्येक मानव में श्रमिक और गैर-श्रमिक का भेद न करते हुये सबके एक स्वर से आह्वान करने की क्षमता अपने जीवन की परम्परा में है. इस क्षमता को हमें जगत् के कल्याण हेतु अपने भीतर लाना, उसको परिपूर्ण करने की गुण-सम्पदा अपने भीतर आविष्कृत करना, उसके लिये अपने समाज को सुव्यवस्थित, सूत्रबद्ध, एकात्मक बनाना, उसके भीतर संपूर्ण सत्य और स्वाभिमान का जागरण करके उसको चतुर्विध पुरुषार्थों के परमश्रेष्ठ जीवन का अनुगामी बनाना और उसे सब प्रकार से प्रशिक्षित करके एक आदर्श और सर्वोत्तम समाज के रूप में खड़ा करना आवश्यक है.

इस संबंध में मुझे एक बात और कहनी है. कोई सिद्धांत बोल देने से ही जगत् उसे ग्रहण नहीं करता, चाहे वह कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो. आज सत्ता की उन्मत्तता और जीवन में अर्थ-काम की विपुलता के कारण जिन्हें मानव की सज्जनता की परवाह नहीं है, ऐसे अत्यन्त उद्दण्ड लोगों को उच्च सिद्धांत बता देने से या उसका वर्णन कर देने से कोई अर्थ नहीं निकलेगा. सिद्धांतों की रक्षा के लिये बल-प्रयोग की भी आवश्यकता पड़ सकती है. अर्थ और काम के अमर्यादित उपभोग के कारण मनुष्य में जो पशुता आती है, उसका नियंत्रण सामर्थ्य से ही संभव होता है. पशु का नियंत्रण गीता पढ़ाने नहीं होता, दण्ड प्रयोग से ही होता है. आज हमें उसी पशुता में पलता हुआ मनुष्य दिखाई दे रहा है. भौतिक सामर्थ्य, अर्थ की प्रचुरता, सत्ता की निरंकुशता और मनुष्य को राह पर लाने के लिये समाज को कभी-कभी उसके कान पकड़ने की भी आवश्यकता पड़ती है. पर कान कौन पकड़ेगा? वही, जिसके अन्दर प्रत्यक्ष और आंतरिक दोनों प्रकार का सामर्थ्य है एवं सद्गुणी आत्मा की सर्वश्रेष्ठ धन-सम्पन्नता की पूँजी जिसके पास है. वही लोगों को प्रभावित कर सकता है, आत्मानुभूति के कारण लोगों को अपने पक्ष में कर सकता है.

ऐसी स्थिति में भी, यदि उद्दण्डता करने वाले अपने ऐहिक सामर्थ्य के द्वारा समाज को अपने नियंत्रण में रख सकते हैं तो हमारा यह दायित्व है कि हम भी ऐहिक दृष्टि से समर्थ बनें. व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन में सब प्रकार के सद्गुणों द्वारा मानसिक शक्ति भरें. अंतिम पुरुषार्थ को प्राप्त करने की उपासना करते हुये, संपूर्ण समाज को सूत्रबद्ध करके उसमें आत्मिक शक्ति का आविष्कार करें. इन तीनों शक्तियों के द्वारा अपने चतुर्विध पुरुषार्थ के अधिष्ठान के ऊपर एक ऐसे समाज का निर्माण करें जो सुखी हो, लेकिन सुख-लोलुप न हो, जो समृद्धि में फँसा, रुँधा न हो. ऐसे ही समाज-जीवन का आदर्श यदि हम जगत् के समक्ष रखेंगे तो जगत् का मानव हमारा अनुसरण करके सुखी हो सकेगा.

अपने इसी विचार-दर्शन की दृष्टि से हम प्रयत्न करें और परानुकरण द्वारा उत्पन्न होने वाली समस्त आसुरी संपत्ति का त्याग करने के लिये समाज को प्रोत्साहित करें. साथ ही चतुर्विध पुरुषार्थ की दैवी संपत्ति एवं सद्गुणयुक्त जीवन का अपने भीतर आविष्कार करने की समग्र समाज को प्रेरणा दें. ऐसी व्यवस्था बनने पर ही हम अपने देश, समाज और विश्व-मानव का कल्याण करने में समर्थ हो सकेंगे. ऐसी व्यवस्था जो अपनी शक्ति और बुद्धि के अनुसार करता है वह अपने राष्ट्र का उपकारक है, वह मानवता का एक उत्कृष्ट सेवक है.

इस दृष्टि से यदि हम प्रयत्न करें तो यह अभिनंदनीय होगा. एकात्म मानववाद के मंत्र-दृष्टा पं. दीनदयाल उपाध्याय बड़े विचारक और महान् चिंतनशील व्यक्ति थे. उन्होंने मनुष्य का संपूर्ण स्वरूप सबके सामने रखा. मानव की एकात्मता व उसके अंदर के गुणों का संपूर्ण विकास-दोनों ही उन्हें अभीप्सित और अपेक्षित थे. इसी विचार-दर्शन के बारे में मैंने भी ये बातें कही हैं.

(22 फरवरी 1972 को पं. दीनदयाल उपाध्याय सनातन धर्म विद्यालय, कानपुर में दिए गये भाषण पर आधारित)

 

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