शिवा पंचकरण
धर्मशाला
शब्दों में बड़ी ताक़त होती है और इसी ताकत का इस्तेमाल करते हुए कैसे कथाएं अपनी सहूलियत से रची जाती हैं, इसका एक अच्छा उदाहरण पत्रकारिता के क्षेत्र में एक बड़ा वर्ग बड़ी सुन्दरता से दिखाता हैं. ऐसा ही कुछ बीते दिनों मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के नयापुरा इलाके में भी देखने को मिला. कोरोना को चूम कर भगाने का दावा करने बाले मौलवी या इस्लामिक धर्मगुरु असलम कोरोना से संक्रमित पाया गया था, जिसके कुछ दिन बाद उसकी मृत्यु हो गयी. उसकी मृत्यु के पश्चात उसके सम्पर्क में आए 19 लोगों में से 4 की मौत हो चुकी है. चूम कर ठीक करने का दावा करने वाले इस ढोंगी के पास कई लोग इलाज़ करवाने पहुंच रहे थे. इस तरह जिले के कुल 85 मरीजों में से 19 लोग इस इस्लामिक धर्मगुरु के कारण ही संक्रमित हो गए हैं. कोविड-19 नोडल अधिकारी डॉ. प्रमोद प्रजापति ने बताया कि ऐसा पहली बार हुआ है, जब जिले में 24 संक्रमित एक साथ सामने आए हैं. इनमें से अधिकांश लोग ढोंगी मौलवी के संपर्क में थे.
खबर साफ़ और सीधी थी. लेकिन अपने एजेंडे को चलाने के लिए बड़े-बड़े संस्थानों ने हमेशा की तरह इस खबर को भी सनातन धर्म से जोड़ कर परोसा. केवल यहीं पर इनका यह प्रपंच नहीं रुका, अपितु अपने लेखों में भी इन्होंने इस्लामिक धर्मगुरु के लिए ‘बाबा’ शब्द का प्रयोग व हिन्दू तांत्रिकों के चित्र का प्रयोग किया. ऐसा इसलिए क्योंकि इन अखबारों और पत्रकारों के पास ऐसी जादुई टोपी पायी जाती है, जिसमें डाला मौलवी जाता है लेकिन निकलता बाबा है. लिबरल जमात इस जादू को देखने में बहुत आनंद लेती है. इससे सेकुलरिज्म भी मजबूत होता है और फासिस्ट सरकार के खिलाफ एक तरह से छोटा-मोटा विरोध प्रदर्शन भी हो जाता है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब किसी का दोष किसी और पर डाल कर जनता को भ्रमित करने का प्रयास बड़े संस्थानों द्वारा किया गया हो.
15 मार्च को अमर उजाला और कई नामी अखबारों ने कोरोना के ताबीज़ बांटने वाले मौलवी या इस्लामिक धर्मगुरु अहमद को भी इसी प्रकार ‘बाबा’ कह कर संबोधित किया था. इन खबरों की हेडलाइन पढ़कर किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि दोषी सनातन धर्म से संबंध रखने वाला है. शब्दों के बवंडर में लोगों को अपने तय एजेंडे में फंसाने का ये कार्य बहुत अरसे से इसी प्रकार चल रहा है. सोशल मीडिया की नज़र में जब ये मामला आया, तब लोगों ने इस खबर का विरोध करना शुरू कर दिया, लेकिन अभी तक किसी न्यूज़ पोर्टल या अखबार की और से इस मामले पर कोई माफ़ी नहीं मांगी गयी है.
बार-बार इस प्रकार की भ्रम में डालने बाली हेडलाइन से जनता में काफी आक्रोश फैला चुका है. लोगों के तीव्र विरोध के बाद भी अभी तक भी यह सिलसिला जारी है. मार्च 2019 में भी एक ‘ढोंगी मौलवी’ के पास कई तरह के हथियार और पैसे बरामद किये गए थे, लेकिन हेडलाइंस में उस मौलवी की घर वापसी करवाते हुए उसे ‘बाबा’ कह कर संबोधित किया गया था. हाल ही के दिनों में पालघर में साधुओं की हुई लिंचिंग पर यही अखबार उन साधुओं को चोर लिख रहे थे, लेकिन जो तबरेज अंसारी सच में चोरी करते हुए पकड़ा गया था उस पर अख़बारों और तमाम मीडिया हाउस ने चर्चा करना भी जरुरी नहीं समझा.
भारतीय समाज को आज तक जिसने एक सूत्र में पिरोकर रखा उन संतों से समाज को अलग करने और सनातन के अनुयायिओं में उन्हीं के धर्मगुरुओं के विरुद्ध हीन भावना पैदा करने का एक बहुत बड़ा षड्यंत्र है जो काफी सालों से इस देश में चल रहा है. लेकिन आज सोशल मीडिया के विरोध के कारण सच्चाई ज्यादा देर छिपती भी नहीं है. डिजिटल मीडिया को सोशल मीडिया द्वारा दी जा रही चुनौती से निपटने के लिए फेक न्यूज़ की तर्ज़ पर अब इस तरह हेडलाइंस में ‘बाबा’ लिख कर लोगों को भ्रम में रखने का प्रयास किया जा रहा है. गुनाहों के लिए मीडिया के एक ख़ास तबके द्वारा केवल और केवल सनातन धर्म से सम्बन्धित चिन्हों और प्रतीकों का प्रयोग किया जाना फैशन बन चुका है, इसमें सिनेमा जगत भी पीछे नहीं है. संतों की ऐसी तस्वीर को समाज की नसों में इस प्रकार से डाला गया है कि ढोंग शब्द का नाम लेते ही जो पहला चेहरा दिखेगा वो साधू समाज का ही होगा. आखिरी कौन सी ऐसी फिल्म हमने देखी थी, जिसमे एक मौलवी ढोंगी था या किस अखबार के पन्ने पर ढोंगी मौलवी लिख कर हेडलाइन छपी थी? यह कैसा भय का माहोल है कि मीडिया द्वारा गलत को भी गलत कहने से डर लग रहा है? एक और हैरानी की बात यह भी है कि जिस प्रकार मीडिया हिन्दू धर्म से जुड़े होने का दावा करने वाले कुछ तथाकथित बाबाओं के ढोंग की जमीनी स्तर पर खोज करता है, उनकी गुफाओं तक की रहस्यमयी खबरें जबरदस्ती जनता को परोसता है वो मजहब विशेष के कारनामों पर गूंगा-बहरा क्यों हो जाता है?