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भगत सिंह की वीर माता विद्यावती कौर

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1 जून/पुण्य-तिथि

इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश, धर्म और समाज की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वालों के मन पर ऐसे संस्कार उनकी माताओं ने ही डाले हैं. भारत के स्वाधीनता संग्राम में हंसते हुए फांसी चढ़ने वाले वीरों में भगत सिंह का नाम प्रमुख है. उस वीर की माता थीं श्रीमती विद्यावती कौर.

विद्यावती जी का पूरा जीवन अनेक विडम्बनाओं और झंझावातों के बीच बीता. सरदार किशन सिंह से विवाह के बाद जब वे ससुराल आयीं, तो यहां का वातावरण देशभक्ति से परिपूर्ण था. उनके देवर सरदार अजीत सिंह देश से बाहर रहकर स्वाधीनता की अलख जगा रहे थे. स्वाधीनता प्राप्ति से कुछ समय पूर्व ही वे भारत लौटे; पर देश को विभाजित होते देख उनके मन को इतनी चोट लगी कि उन्होंने 15 अगस्त, 1947 को सांस ऊपर खींचकर देह त्याग दी.

उनके दूसरे देवर सरदार स्वर्ण सिंह भी जेल की यातनाएं सहते हुए बलिदान हुये. उनके पति किशन सिंह का भी एक पैर घर में, तो दूसरा जेल और कचहरी में रहता था. विद्यावती जी के बड़े पुत्र जगत सिंह की 11 वर्ष की आयु में सन्निपात से मृत्यु हुई. भगत सिंह 23 वर्ष की आयु में फांसी चढ़ गये, तो उससे छोटे कुलतार सिंह और कुलवीर सिंह भी कई वर्ष जेल में रहे.

इन जेलयात्राओं और मुकदमेबाजी से खेती चौपट हो गयी तथा घर की चौखटें तक बिक गयीं. इसी बीच घर में डाका भी पड़ गया. एक बार चोर उनके बैलों की जोड़ी ही चुरा ले गये, तो बाढ़ के पानी से गांव का जर्जर मकान भी बह गया. ईष्यालु पड़ोसियों ने उनकी पकी फसल जला दी. 1939-40 में सरदार किशन सिंह जी को लकवा मार गया. उन्हें खुद चार बार सांप ने काटा; पर उच्च मनोबल की धनी माताजी हर बार घरेलू उपचार और झाड़-फूंक से ठीक हो गयीं. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी का समाचार सुनकर उन्होंने दिल पर पत्थर रख लिया क्योंकि भगत सिंह ने उनसे एक बार कहा था कि तुम रोना नहीं, वरना लोग क्या कहेंगे कि भगत सिंह की मां रो रही है.

भगत सिंह पर उज्जैन के लेखक श्री श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने एक महाकाव्य लिखा. नौ मार्च, 1965 को इसके विमोचन के लिये माताजी जब उज्जैन आयीं, तो उनके स्वागत को सारा नगर उमड़ पड़ा. उन्हें खुले रथ में कार्यक्रम स्थल तक ले जाया गया. सड़क पर लोगों ने फूल बिछा दिये और छज्जों पर खड़े लोग भी उन पर पुष्पवर्षा करते रहे. पुस्तक के विमोचन के बाद ‘सरल’ जी ने अपने अंगूठे से माताजी के भाल पर रक्त तिलक किया. माताजी ने वही अंगूठा एक पुस्तक पर लगाकर उसे नीलाम कर दिया. उससे 3,331 रु. प्राप्त हुए. माताजी को सैकड़ों लोगों ने मालायें और राशि भेंट की. इस प्रकार प्राप्त 11,000 रु. माताजी ने दिल्ली में इलाज करा रहे भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त को भिजवा दिये. समारोह के बाद लोग उन मालाओं के फूल चुनकर अपने घर ले गये. जहां माताजी बैठी थीं, वहां की धूल लोगों ने सिर पर लगाई. सैकड़ों माताओं ने अपने बच्चों को माताजी के पैरों पर रखा, जिससे वे भी भगत सिंह जैसे वीर बन सकें.

1947 के बाद गांधीवादी सत्याग्रहियों को अनेक शासकीय सुविधायें मिलीं; पर क्रांतिकारी प्रायः उपेक्षित ही रह गये. उनमें से कई गुमनामी में बहुत कष्ट का जीवन बिता रहे थे. माताजी उन सबको अपना पुत्र ही मानती थीं. वे उनकी खोज खबर लेकर उनसे मिलने जाती थीं तथा सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाली पेंशन की राशि चुपचाप वहां तकिये के नीचे रख देती थीं.

इस प्रकार एक सार्थक और सुदीर्घ जीवन जीकर माताजी ने दिल्ली के एक अस्पताल में एक जून, 1975 को अंतिम सांस ली. उस समय उनके मन में यह सुखद अनुभूति थी कि अब भगत सिंह से उनके बिछोह की अवधि सदा के लिये समाप्त हो रही है.

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