नागपुर. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन राव भागवत ने कहा कि हमारे राष्ट्र और कीर्तन परम्परा का जन्म कब हुआ, यह कोई बता नहीं सकता, क्योंकि हमारा देश और यहां की कीर्तन परम्परा बहुत प्राचीन है. राष्ट्र और कीर्तन दोनों का प्रयोजन भिन्न नहीं है. हमारा राष्ट्र आध्यात्मिक है और कीर्तन के प्रबोधन की मूल भावना समाज में आध्यात्म का जागरण करना है. इसलिए कीर्तन राष्ट्रीय है. कीर्तन और उसके प्रयोजन पर सरसंघचालक जी ने कहा कि आध्यात्म को कैसे जीना, यह सिखाना भारत का प्रयोजन है. इस प्रयोजन की सिद्धि का सहज, सरल और लोकप्रिय माध्यम कीर्तन है.
सरसंघचालक नागपुर में राष्ट्रीय कीर्तनकार कै. दादासाहेब डबीर जन्मशताब्दी समिति द्वारा आयोजित देवर्षि कीर्तनमाला की पांच पुस्तकों के विमोचन समारोह को संबोधित कर रहे थे. इस दौरान कवि कुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. पंकज चांदे, एसएनडीटी विश्वविद्यालय के पूर्व मराठी विभागाध्यक्ष प्रा. शिरीष देशपांडे, वारकरी कीर्तनकार श्रीराम जोशी, पांचों पुस्तकों के लेखक एवं राष्ट्रीय कीर्तनकार डॉ. दिलीप डबीर तथा संध्या डबीर व्यासपीठ पर विराजमान थे.
संघ प्रमुख डॉ.भागवत ने स्वामी विवेकानन्द की एक उक्ति का उल्लेख करते हुए कहा कि प्रत्येक राष्ट्र का लक्ष्य विधाता द्वारा पूर्व निर्धारित है. प्रत्येक राष्ट्र के पास संसार को देने के लिये कोई न कोई सन्देश है. इसलिए हमें अपने राष्ट्र के प्रयोजन को समझना होगा और उसके अनुसार ही हमें कार्य करना होगा. उन्होंने कहा कि भारत का प्रयोजन दुनिया को आध्यात्म का सन्देश देना है.
सरसंघचालक ने कहा कि केवल जानकारी देना यह कीर्तन का उद्देश्य नहीं है. कीर्तन समाज में भक्ति का जागरण करता है. उन्होंने कहा की समाज प्रबोधन का कार्य यदि प्रत्येक परिवार में हो तो वह राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में सहायक होता है. पहले भजन-कीर्तन में पूरा परिवार शामिल होता था. यही कारण है कि शिवाजी महाराज के निधन के पश्चात् भी औरंगजेब 30 साल तक आक्रमण करके भी महाराष्ट्र को जीत नहीं सका. इसलिए समाज में व्यक्तिगत चरित्र के साथ राष्ट्रीय चरित्र का प्रबोधन किया जाना चाहिए. कीर्तनकार में यदि इस राष्ट्रीय चरित्र का आभाव रहा तो कीर्तन शुष्क हो जाता है, उसमें कोई रस नहीं रहता.
डॉ. भागवत ने कहा कि प्रबोधन से यदि केवल जानकारी मिलना काफी नहीं है. विचारों को बुद्धि आत्मसात करे, हृदय में उतरे और वह स्वयं के आचरण में प्रगट होना चाहिए. प्रबोधन में भाव के साथ व्यावहारिक अनुभवों की महती आवश्यकता होती है, अन्यथा ज्ञान केवल जानकारी कि पोथी बनकर रह जाता है. इसलिए संत कबीर ने कहा कि “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय. ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय..” उन्होंने कहा कि भाव है, इसलिए संत एकनाथ रामेश्वरम में जल चढ़ाने के स्थान पर प्यासे गधे की प्यास बुझाने में ईश्वरीय कार्य समझते हैं.
सरसंघचालक ने अपने सारगर्भित भाषण में राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण के लिए आध्यात्म के व्यावहारिक पक्ष का महत्त्व बताया.