नई दिल्ली. देश की स्वाधीनता के लिये जिसने भी त्याग और बलिदान दिया, वह धन्य है. पर जिस घर के सब सदस्य फांसी चढ़ गये, वह परिवार सदा के लिये पूज्य है. चाफेकर बन्धुओं का परिवार ऐसा ही था. 1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैल गया. इस बीमारी को नष्ट करने के बहाने से वहां का प्लेग कमिश्नर सर वाल्टर चार्ल्स रैण्ड मनमानी करने लगा. उसके अत्याचारों से पूरा नगर त्रस्त था. वह जूतों समेत रसोई और देवस्थान में घुस जाता था. उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिये चाफेकर बन्धु दामोदर एवं बालकृष्ण ने 22 जून, 1897 को उसका वध कर दिया.
इस योजना में उनके दो मित्र गणेश शंकर और रामचंद्र द्रविड़ भी शामिल थे. ये दोनों सगे भाई थे, पर जब पुलिस ने रैण्ड के हत्यारों के लिये 20,000 रुपए पुरस्कार की घोषणा की, तो इन दोनों ने मुखबिरी कर दामोदर हरि चाफेकर को पकड़वा दिया, उन्हें 18 अप्रैल, 1898 को फांसी दे गयी. बालकृष्ण की तलाश में पुलिस निरपराध लोगों को परेशान करने लगी. यह देखकर बालकृष्ण ने आत्मसमर्पण कर दिया.
इनका एक तीसरा भाई वासुदेव भी था. वह समझ गया कि अब बालकृष्ण को भी फांसी दे दी जायेगी. ऐसे में उसका मन भी केसरिया बाना पहनने को मचलने लगा. उसने मां से अपने बड़े भाइयों की तरह ही बलिपथ पर जाने की आज्ञा मांगी. वीर माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से उसे छाती से लगाया और उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया.
अब वासुदेव और उसके मित्र महादेव रानडे ने दोनों द्रविड़ बंधुओं को उनके पाप की सजा देने का निश्चय किया. द्रविड़ बन्धु पुरस्कार की राशि पाकर खाने-पीने में मस्त थे. आठ फरवरी, 1899 को वासुदेव तथा महादेव पंजाबी वेश पहन कर रात में उनके घर जा पहुंचे. वे दोनों अपने मित्रों के साथ ताश खेल रहे थे. नीचे से ही वासुदेव ने पंजाबी लहजे में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हुये कहा कि तुम दोनों को बुरइन साहब थाने में बुला रहे हैं.
थाने से प्रायः इन दोनों को बुलावा आता रहता था. अतः उन्हें कोई शक नहीं हुआ और वे खेल समाप्त कर थाने की ओर चल दिये. मार्ग में वासुदेव और महादेव उनकी प्रतीक्षा में थे. निकट आते ही उनकी पिस्तौलें गरज उठीं. गणेश की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गयी और रामचंद्र चिकित्सालय में जाकर मरा. इस प्रकार दोनों को देशद्रोह का समुचित पुरस्कार मिल गया.
पुलिस ने शीघ्रता से जाल बिछाकर दोनों को पकड़ लिया. वासुदेव को तो अपने भाइयों को पकड़वाने वाले गद्दारों से बदला लेना था. अतः उसके मन में कोई भय नहीं था. अब बालकृष्ण के साथ ही इन दोनों पर भी मुकदमा चलाया गया. न्यायालय ने वासुदेव, महादेव और बालकृष्ण की फांसी के लिये क्रमशः आठ, दस और बारह मई, 1899 की तिथियां निश्चित कर दीं.
आठ मई को प्रातः जब वासुदेव फांसी के तख्ते की ओर जा रहा था, तो मार्ग में वह कोठरी भी पड़ती थी, जिसमें उसका बड़ा भाई बालकृष्ण बंद था. वासुदेव ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘भैया, अलविदा. मैं जा रहा हूं.’’ बालकृष्ण ने भी उतने ही उत्साह से उत्तर दिया, ‘‘हिम्मत से काम लेना. मैं बहुत शीघ्र ही आकर तुमसे मिलूंगा.’’
इस प्रकार तीनों चाफेकर बन्धु मातृभूमि की बलिवेदी पर चढ़ गये. इससे प्रेरित होकर 16 वर्षीय किशोर विनायक दामोदर सावरकर ने एक मार्मिक कविता लिखी और उसे बार-बार पढ़कर सारी रात रोते रहे.