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‘संघ शिविर’ में महात्मा गांधी के साथ डॉक्टर हेडगेवार की ऐतिहासिक भेंट

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डॉक्टर हेडगेवार, संघ और स्वतंत्रता संग्राम – 12

14 फरवरी 1930 को अपने दूसरे कारावास से मुक्त होकर डॉक्टर हेडगेवार ने पुनः सरसंघचालक का दायित्व सम्भाला और संघ कार्य को देशव्यापी स्वरूप देने के लिए दिन-रात जुट गए. अब डॉक्टर जी की शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियां संघ-स्वयंसेवकों के शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास में लगने लगीं. स्वभाव से परिश्रमी, मन से दृढ़ निश्चयी और बुद्धि से चतुर इस महापुरुष ने अपने स्वास्थ्य की तनिक भी चिंता न करते हुए ‘हिन्दू-राष्ट्र’ भारत एवं ‘हिन्दू संगठन’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ध्येय पर दृष्टि जमाकर अहोरात्र साधना का श्रीगणेश कर दिया.

अस्वस्थ शरीर के साथ निरंतर प्रवास. दोपहर 2 बजे भोजन, रात्रि 2 बजे तक बैठकों का तांता, विभिन्न स्थानों पर जाकर अनेक प्रकार के विचारों के व्यक्तियों से मिलना, संघ विरोधी लोगों को शांतिपूर्वक सुनकर उनके तर्कों को ध्यान से समझना और युवक स्वयंसेवकों को प्रचारक के रूप में बाहर जाने की प्रेरणा देना इत्यादि कार्य डॉक्टर जी की दिनचर्या के अभिन्न अंग थे. यही वजह है कि हिन्दुओं के विकास में जुटे अनेक छोटे-मोटे दलों एवं संस्थाओं का संघ में स्वतः विलय होता चला गया. छोटे बड़े सामाजिक/धार्मिक दलों का संघ-शाखाओं में बदल जाना ऐसा ही था, मानो छोटे बड़े नदी नाले विशाल गंगा में समाहित होकर गंगा की पवित्र धारा बन गए. इसी क्रम में डॉक्टर जी ने महामना मदनमोहन मालवीय, वीर सावरकर, सुभाष चन्द्र बोस, डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉक्टर आंबेडकर, तथा महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय महापुरुषों को भी अपने ध्येयनिष्ठ व्यक्तित्व एवं संघ कार्य की आवश्यकता से प्रभावित करने में सफलता प्राप्त कर ली.

अब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अधिकारी शिक्षावर्गों, शीत शिविरों तथा छोटे-छोटे संघ शिक्षा सम्मेलनों के आयोजन शुरु हो चुके थे. सन् 1934 में वर्धा का शीत शिविर गांधी जी के आगमन के कारण काफी चर्चा का विषय बन गया. डॉक्टर जी के छात्र जीवन के साथी और उनकी समस्त गतिविधियों के प्रत्यक्षदर्शी नारायणहरि पालकर ने 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘डॉक्टर हेडगेवार चरित’ में गांधी जी और डॉक्टर हेडगेवार की भेंटवार्ता का वर्णन किया है. उनके अनुसार संघ के इन शिविरों में अनेक स्थानों से स्वयंसेवक अपने व्यय से गणवेश इत्यादि बनवाकर तथा बिस्तर आदि सामान लेकर एकत्र होते थे और तीन-चार दिन तक साथ रहकर अत्यंत उत्साह और दक्षतापूर्वक सैनिक पद्धति से संचलन आदि के कार्यक्रम करते थे. शिविर का सम्पूर्ण व्यय स्वयंसेवकों द्वारा दिए शुल्क से ही पूरा होता था. सन् 1934 में वर्धा में आयोजित इस शिविर-स्थान के पास ही महात्मा गांधी जी का उस काल का सत्याग्रह आश्रम था. नित्य प्रातः घूमने के लिए जाते समय इन्हें शिविर की व्यवस्था में संलग्न स्वयंसेवक दिखाई देते थे. उनके मन में सहज ही उत्सुकता हुई कि यहां कौन सी परिषद् या सम्मेलन होने वाला है. 22 दिसम्बर को शिविर का उद्घाटन हुआ. शिविर में गणवेशधारी स्वयंसेवकों के कार्यक्रम हुए. घोष की गर्जना होने लगी. महात्मा जी ने अपने बंगले पर से इन सब कार्यक्रमों को देखा. उन्होंने शिविर देखने की इच्छा प्रकट करते हुए अपने सहयोगी महादेव भाई देसाई द्वारा शिविर के मुख्य संचालक को संदेश भिजवाया. संदेश मिलते ही शिविर के संचालक अप्पाजी जोशी आश्रम में गए और महात्मा जी से कहा ‘आप अपनी सुविधा के अनुसार समय बता दीजिए, हम उसी समय आपका स्वागत करेंगे’. महात्मा जी का उस दिन मौनव्रत था. अतः उन्होंने लिखकर बताया ‘मैं कल प्रातः 6 बजे शिविर में आ सकूंगा, वहां डेढ़ घंटा व्यतीत करूंगा’.

दूसरे दिन प्रातः ठीक 6 बजे महात्मा जी शिविर में आए. उस समय सभी स्वयंसेवकों ने अनुशासनपूर्वक उनकी मान वंदना की. महात्मा जी के साथ महादेव भाई देसाई, मीराबेन तथा आश्रम के अन्य व्यक्ति भी थे. उस भव्य दृश्य को देखकर महात्मा जी ने अप्पाजी जोशी के कंधे पर हाथ रखकर कहा ‘मैं सचमुच प्रसन्न हूं, सम्पूर्ण देश में इतना प्रभावी दृश्य अभी तक मैंने नहीं देखा’. इसके बाद गांधी जी ने पाकशाला का निरीक्षण किया. उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि 1500 स्वयंसेवकों का भोजन 1 घंटे में बिना किसी गड़बड़ के तैयार हो जाता है, 1 रुपया तथा थोड़े से अनाज में दो समय का भोजन दिया जाता है और घाटा हुआ तो स्वयंसेवक ही उसे पूरा कर देते हैं.

इसके उपरांत उन्होंने रुग्णालय तथा स्वयंसेवकों के निवास भी देखे. रुग्णालय में रोगियों के हालचाल पूछते हुए उन्हें यह भी पता चला कि संघ में गांव के किसान तथा मजदूर वर्ग के स्वयंसेवक भी हैं.

ब्राह्मण, म्हार, मराठा आदि सभी जातियों के स्वयंसेवक एक साथ घुलमिल कर रहते हैं और एक ही पंक्ति में भोजन करते हैं. यह जानकर उन्होंने तथ्यों की जांच पड़ताल करने के उद्देश्य से कुछ स्वयंसेवकों से प्रश्न भी किए. स्वयंसेवकों के उत्तर में उन्हें यही मिला कि ‘ब्राह्मण, मराठा, दर्जी आदि भेद हम संघ में नहीं मानते, अपने पड़ोस में किस जाति का स्वयंसेवक है, इसका हमें पता भी नहीं चलता तथा यह जानने की हमारी इच्छा भी नहीं होती. हम सब हिन्दू हैं और इसीलिए भाई है. परिणामस्वरूप व्यवहार में ऊंच-नीच मानने की कल्पना ही हमें समझ में नहीं आती’.

इस पर महात्मा जी ने अप्पाजी जोशी से प्रश्न किया ‘आपने जाति भेद की भावना कैसे मिटा दी? इसके लिए हम लोग तथा अन्य कई संस्थाएं जी जान से प्रयत्न कर रहे हैं, परन्तु लोग भेद-भाव नहीं भूलते, आप तो जानते ही हैं कि अस्पृश्यता नष्ट करना कितना कठिन है, यह होते हुए भी आपने संघ में इस कठिन कार्य को कैसे सिद्ध कर लिया? इस पर अप्पाजी जोशी का उत्तर था ‘सब हिन्दुओं में भाई-भाई का सम्बन्ध है, यह भाव जागृत होने से सब भेदभाव नष्ट हो जाते हैं. भ्रातृभाव शब्दों में नहीं आचरण में आने पर ही यह जादू होता है. इसका सम्पूर्ण श्रेय संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार को है’. इसी समय घोषवादन हुआ और सभी स्वयंसेवक सीधे ‘दक्ष’ में खड़े हो गए और ध्वजारोहण हुआ. ध्वजारोहण होने पर अप्पाजी के साथ महात्मा जी ने भी ध्वज को प्रणाम किया.

महात्मा जी शिविर के अंतर्गत प्रायः सभी विभागों में गए और सारे कार्य की जानकारी प्राप्त करने के बाद उन्होंने अप्पाजी जोशी से कहा ‘क्या मैं संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार से मिल सकता हूं?’ तब अप्पाजी जोशी ने उनसे कहा ‘वे कल ही के शिविर में आने वाले हैं, मैं उनको लेकर आपके आश्रम में आ जाऊंगा’. इसके बाद डॉक्टर जी, अप्पाजी जोशी तथा भोपटकर जी तीनों महात्मा जी से मिलने के लिए आश्रम में गए. महात्मा जी दो मंजिले पर अपनी एक बैठक में थे. उनके सहायक महादेव देसाई ने द्वार पर ही सबका स्वागत किया और उन्हें ऊपर ले गए. महात्मा जी भी आगे आकर सबको अंदर ले गए तथा अपने बगल में ही गद्दे पर बैठा दिया. लगभग 1 घंटा महात्मा जी तथा डॉक्टर जी के बीच चर्चा हुई. इस संभाषण का कुछ महत्वपूर्ण भाग इस प्रकार था…….

महात्मा जी – ‘आपको पता चल गया होगा कि कल मैं शिविर में गया था’

डॉक्टर जी – ‘जी हां, आप शिविर में गए, यह स्वयंसेवकों का सौभाग्य ही है’

महात्मा जी – ‘एक दृष्टि से अच्छा ही हुआ कि आप नहीं थे. आपकी अनुपस्थिति के कारण ही आपके विषय में मुझे सच्ची जानकारी मिल सकी. डॉक्टर, आपके शिविर में संख्या, अनुशासन, स्वयंसेवकों की वृत्ति और स्वच्छता आदि अनेक बातों को देखकर बहुत संतोष हुआ’.

इस प्रकार प्रस्तावित संभाषण के बाद महात्मा जी ने पूछा ‘संघ दो-तीन आने में भोजन कैसे दे सकता है? हमें क्यों अधिक खर्च आता है? क्या कभी स्वयंसेवकों को पीठ पर सामान लादकर 20 मील तक संचलन करवाया है?’ अणासाहब भोपटकर का महात्मा जी से निकट का परिचय तथा सम्बन्ध होने के कारण डॉक्टर जी के द्वारा प्रथम प्रश्न का उत्तर देने के पहले ही उन्होंने कहा ‘आपको अधिक खर्च आता है, उसका कारण आप सब लोगों का व्यवहार है, नाम तो रखते हैं ‘पर्णकुटि’ पर अंदर रहता है राजशाही ठाठ, मैं अभी संघ में सबके साथ दालरोटी खाकर आया हूं. आपके समान वहां विभेद नहीं है. संघ के अनुसार चलोगे तो आपको भी दो-तीन आने ही खर्च आएगा. आपको तो ठाठ चाहिए और खर्च भी कम चाहिए फिर दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकेंगी?’ अणा साहब की ये फब्बतियां सब लोगों के मुक्त हास्य में विलीन हो गईं.

इसके उपरांत महात्मा जी ने संघ का विधान, समाचार पत्रों में प्रचार आदि विषयों पर जानकारी के लिए प्रश्न पूछे. इसी समय मीराबेन (गांधी जी की सहायिका) ने गांधी जी को घड़ी दिखाकर बताया कि नौ बज गए हैं, इस पर डॉक्टर जी ने यह कहते हुए कि ‘अब आपके सोने का समय हो गया है’ उनसे विदा मांगी. पर महात्मा जी ने कहा ‘नहीं-नहीं, अभी आप और बैठ सकते हैं, कम से कम आधा घंटे तो मैं सरलता से और जाग सकता हूं’. अतः चर्चा जारी रही.

महात्मा जी – ‘डॉक्टर! आपका संगठन अच्छा है, मुझे पता चला है कि आप बहुत दिनों तक कांग्रेस में काम करते थे, फिर कांग्रेस जैसी लोकप्रिय संस्था के अंदर ही इस प्रकार का ‘स्वयंसेवक संगठन’ क्यों नहीं चलाया? बिना कारण ही अलग संगठन क्यों बनाया?

डॉक्टर जी – ‘मैंने पहले कांग्रेस में ही यह कार्य प्रारम्भ किया था. सन् 1920 की नागपुर कांग्रेस में मैं स्वयंसेवक विभाग का संचालक था, तथा मेरे मित्र डॉक्टर परांजपे अध्यक्ष थे. इसके बाद हम दोनों ने इस बात के लिए प्रयत्न किया कि कांग्रेस में भी ऐसा ही संगठन हो, परन्तु सफलता नहीं मिली. अतः यह स्वतंत्र प्रयत्न किया है’.

महात्मा जी – ‘कांग्रेस में आपके प्रयत्न क्यों सफल नहीं हुए? क्या पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिली?’

डॉक्टर जी – ‘नहीं-नहीं, पैसे की कोई कठिनाई नहीं थी, पैसे से अनेक बातें सफल हो सकती हैं किन्तु पैसे के भरोसे ही संसार में सब योजनाएं सफल नहीं हो सकतीं. यहां प्रश्न पैसे का नहीं, अंतःकरण का है’.

महात्मा जी – ‘क्या आपका यह कहना है कि उदात्त अंतःकरण के व्यक्ति कांग्रेस में नहीं थे, अथवा नहीं हैं?’

डॉक्टर जी – ‘मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है, कांग्रेस में अनेक अच्छे व्यक्ति हैं, परन्तु प्रश्न तो मनोवृत्ति का है, कांग्रेस की मनोरचना एक राजनीतिक कार्य को सफल करने की दृष्टि से हुई है. कांग्रेस के कार्यक्रम इस बात को ही ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं तथा उन कार्यक्रमों की पूर्ति के लिए उसे स्वयंसेवकों ‘वॉलंटियर्स’ की आवश्यकता होती है. स्वयं प्रेरणा से कार्य करने वालों के बलशाली संगठन से सभी समस्याएं हल हो सकेंगी, इस पर कांग्रेस का विश्वास नहीं है. कांग्रेस के लोगों की धारणा तो स्वयंसेवक के संदर्भ में सभा परिषद में बिना पैसे के मेज कुर्सी उठाने वाले मजदूर की है. इस धारणा से राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने वाले स्वयंस्फूर्त कार्यकर्ता कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? इसलिए कांग्रेस में कार्य नहीं हो सका?’

महात्मा जी – ‘फिर स्वयंसेवक के विषय में आपकी क्या कल्पना है?’

डॉक्टर जी – ‘देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए आत्मीयता से अपना सर्वस्व अपर्ण करने के लिए सिद्ध नेता को हम स्वयंसेवक समझते हैं तथा संघ का लक्ष्य इसी प्रकार के स्वयंसेवकों के निर्माण का है. यह जानकार ही हम एक दूसरे को समान समझते हैं तथा सबसे समान रूप से प्रेम करते हैं. हम किसी प्रकार के भेद को प्रश्रय नहीं देते. इतने थोड़े समय में धन तथा साधनों का आधार न होते हुए भी संघ कार्य की इतनी वृद्धि का यही रहस्य है’.

महात्मा जी – ‘बहुत अच्छा! आपके कार्य की सफलता में निश्चित ही देश का हित है, सुनता हूं कि आपके संगठन में वर्धा जिले में अच्छा प्रभाव है. मुझे लगता है कि यह प्रमुखता से सेठ जमनालाल बजाज की सहायता से ही हुआ होगा’.

डॉक्टर जी – ‘हम किसी से आर्थिक सहायता नहीं लेते’

महात्मा जी – ‘फिर इतने बड़े संगठन का खर्च कैसे चलता है?’

डॉक्टर जी – ‘अपनी जेब से अधिकाधिक पैसे गुरु दक्षिणा के रूप में अर्पण कर स्वयंसेवक ही यह भार ग्रहण करते हैं’.

महात्मा जी – ‘निश्चित ही विलक्ष्ण है! कि आप किसी से धन नहीं लेते?’

डॉक्टर जी – ‘जब समाज को अपने विकास के लिए यह कार्य आवश्यक प्रतीत होगा, तब हम अवश्य आर्थिक सहायता स्वीकार करेंगे. यह स्थिति होने पर हमारे ना मांगते हुए भी लोग पैसे का ढेर संघ के सामने लगा देंगे. इस प्रकार की आर्थिक सहायता लेने में हमें कोई अड़चन नहीं. परन्तु संघ की पद्धति हमने स्वावलम्बी ही रखी है’.

महात्मा जी – ‘आपको इस कार्य के लिए अपना सम्पूर्ण समय खर्च करना पड़ता होगा. फिर आप अपना डॉक्टरी का धंधा कैसे करते होंगे’.

डॉक्टर जी – ‘मैं व्यवसाय नहीं करता’.

महात्मा जी – ‘फिर आपके कुटुम्ब का निर्वाह कैसे होता है?’

डॉक्टर जी – ‘मैंने विवाह नहीं किया’.

यह उत्तर सुनकर महात्मा जी कुछ स्तम्भित हो गए. इसी प्रवाह में वे बोले, ‘अच्छा आपने विवाह नहीं किया? बहुत बढ़िया, इसी कारण इतनी छोटी अवधि में आपको इतनी सफलता मिली है’. इस पर डॉक्टर जी यह कहते हुए कि ‘मैंने आपका बहुत समय लिया, आपका आर्शीवाद रहा तो सब मनमाफिक होगा, अब आज्ञा दीजिए’, चलने के लिए उठे, महात्मा जी उन्हें द्वार तक पहुंचाने आए तथा विदा करते हुए बोले ‘डॉक्टर जी अपने चरित्र तथा कार्य पर अटल निष्ठा के बल पर आप अंगीकृत कार्य में निश्चित सफल होंगे’.

डॉक्टर जी ने महात्मा जी को नमस्कार किया और वापस आ गए.

उल्लेखनीय है कि सितम्बर 1947 को भारत विभाजन के तुरन्त बाद गांधी जी ने संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी गोलवलकर से मिलने की इच्छा प्रकट की. महात्मा जी संघ की बढ़ती हुई शक्ति से परिचित थे. गांधी जी की इच्छा की जानकारी मिलते ही श्री गुरुजी ने तुरन्त दिल्ली में आकर बिड़ला भवन में गांधी जी से भेंट की. इस भेंटवार्ता में गांधी जी ने किसी कार्यक्रम में आकर स्वयंसेवकों को संबोधित करने की इच्छा व्यक्त की. 16 सितम्बर 1947 को बिड़ला भवन की एक निकटवर्ती भंगी कॉलोनी के एक मैदान में 500 से ज्यादा स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए गांधी जी ने संघ के कार्य और ध्येय की खुली प्रसंशा की. अगले ही दिन 17 सितम्बर 1947 को एक प्रसिद्ध राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘हिन्दू’ ने यह समाचार इस तरह प्रकाशित किया था – ‘वर्षों पूर्व जब संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जीवित थे, गांधी जी ने संघ का शिविर देखा था. वे उनका अनुशासन, उनकी कठोर सादगी और अस्पृश्यता से सर्वथा मुक्त उनका आचरण देखकर गदगद हो उठे थे. उसके बाद तो संघ फलता-फूलता ही गया. गांधी जी ने विश्वास व्यक्त किया कि जो संगठन इस प्रकार की सेवा और त्याग के उच्चादर्श से अनुप्राणित होगा, उसकी शक्ति तो दिनों दिन बढ़ती ही जाएगी’.

…………………..शेष कल.

नरेंद्र सहगल

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