करंट टॉपिक्स

संविधान का हवाला देकर मतांतरण पर दोहरा नजरिया घातक

Spread the love

संसद से लेकर मीडिया तक आज जाने कैसा अजीब खेल हो रहा है. सेकुलरवादी और अंग्रेजी मीडिया दशकों से जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मतांतरण विरोधी घोषित कर रहा था, वही आज मतांतरण के मुद्दे पर उसे लेकर जमीन-असमान एक करने पर तुला हुआ है. आगरा में हुए एक ‘घर वापसी’ कार्यक्रम ने ‘मतांतरण’ के मुद्दे पर फिर बहस छेड़ दी है. उस घटना को देश के सेकुलरवादी और कुछ अंग्रेजी अखबार ऐसे पेश कर रहे हैं मानो भारत को एक ‘थियोक्रेटिक स्टेट’ घोषित कर दिया गया हो. इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, मेल टुडे, टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन और द हिन्दू जैसे अखबार सुर्खियां बनाकर और लेख लिखकर यह साबित करने में लग गये हैं कि चारों तरफ ‘भगवा राज’ हो गया है और वह जल्द ही भारत के एक चौथाई, 25-30 करोड़ ईसाइयों और मुसलमानों को हिंदू बना देगा. अंग्रेजीदां मीडिया और सेकुलरवादी यह भी साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिये संघ मतांतरण का मुद्दा उठाकर उनकी विकास वाली छवि को नुकसान पहुंचा रहा है.’ यही मीडिया भाजपा के कुछ सासंदों और मंत्रियों के ‘हिंदू प्रेम’ के कारण भी विचलित हो रहा है. मतांतरण पर मचे इस हंगामे के बीच सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने साफ कर दिया है कि यह मतांतरण नहीं, ‘घर वापसी’ है. अगर सेकुलरवादी मतांतरण के मुद्दे पर इतने ही चिंतित हैं तो इस मामले पर एक राष्ट्रीय कानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है.

सेकुलरवादी खेमा और अंग्रेजीदां मीडिया मामले पर सरकार और संघ को बदनाम तो करना चाहता है लेकिन मतांतरण के मुद्दे पर कोई कठोर कानून को बनाये जाने के पक्ष में नहीं है.

जो लोग यह मान रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी उतर प्रदेश में राजनीतिक लाभ के लिये यह मुद्दा उछाल रही है, उस पर मुझे लगता है कि ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रमों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मंतव्य मतांतरण को बढ़ावा देना नहीं, बल्कि उसे रोकना है. संघ का ‘घर वापसी’ कार्यक्रम मतांतरण विरोधी कानून बन जाने के बावजूद जारी रह सकता है. इसे पंडित नेहरू के शासन में गृह मंत्रालय द्वारा एक अति महत्वपूर्ण पत्र (भारत सरकार/सं18/4/58-एस सी टी -4 तारीख 23 जुलाई, 1959), जो राज्य सरकारों को ईसाइयों और मुस्लमानों के संबध में जारी किया गया था, से समझा जा सकता है. इस पत्र में साफ लिखा है-
‘भारत सरकार को हाल ही में इस प्रश्न पर विचार करने का मौका मिला है कि यदि अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति मतांतरण करके हिंदू धर्म का त्याग कर देता है तथा पुन: हिंदू धर्म स्वीकार कर लेता है तो उसे मूल अनुसूचित जाति का सदस्य माना जायेगा या नहीं. ध्यानपूर्वक विचार-विमर्श करने के लिये भारत सरकार को यह सलाह दी गई है कि ऐसे व्यक्ति के पुन: मतातंरण को मूल जाति में परिवर्तन माना जायेगा तथा वह उस अनुसूचित जाति के सदस्यों के विशेषाधिकार और सहायता का पात्र होगा, जिस अनुसूचित जाति से वह मूलत: संबंधित था.’ जाहिर है कि संविधान और सरकार इसे मतांतरण नहीं ‘घर वापसी’ की ही संज्ञा दे रहे हैं. जो लोग संघ पर इस बात के लिये आक्षेप लगाते हैं कि वह उन्हें हिंदू समाज में कहां फिट करेगा, उनका हिंदू समाज में क्या दर्जा होगा, उसका समाधान भी नेहरू सरकार द्वारा राज्यों को लिखा पत्र आसानी से कर रहा है.जाहिर है कि जो मतांतरित हिंदू अपने पुरखों के धर्म में वापस आना चाहते हैं, उनका यह पूर्ण और संवैधानिक अधिकार है. आगरा या कहीं और इसी अधिकार के तहत उनकी घर वापसी हो रही है. इस पर जो लोग शोर-शराबा कर रहे हैं, उनका मकसद इसका राजनीतिकरण करना है. अगर ऐसा नहीं है तो एक ऐसा कानून बनाया जाना चाहिये, जिससे छल-कपट से होने वाले सभी तरह के मतांतरण पर प्रभावशाली तरीके से रोक लगाई जा सके. नया कानून ऐसा होना चाहिये कि किसी को अपनी पसंद की उपासना पद्धति अपनाने की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का आघात न हो. सेकलुरवादी और अंग्रेजी मीडिया द्वारा मतांतरण पर किये जा रहे शोर का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वह इस मुद्दे पर दोहरा रवैया अपनाता आया है. आगरा का मामला सुर्खियां बटोरता है, लेकिन झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा आदि राज्यों में ईसाई मिशनरियों और चर्च संगठनों द्वारा किए गये मतांतरण पर वह चुप्पी साध जाता है.

ईसाई मिशनरी भारत में कई सदियों से मतांतरण का खुला खेल खेल रहे हैं. यह तथ्य है कि वंचित और वनवासी समाज के अंदर ईसाई मिशनरियों की गहरी पैठ बन चुकी है और इन वर्गों का बड़े पैमाने पर मतांतरण करवाया जा रहा है. लेकिन इसके खिलाफ संसद में कभी कोई आवाज सुनाई नहीं देती. कुछ साल पहले ऐसे ही मतांतरण को लेकर ओडिशा के कंधमाल जिले में जबरदस्त दंगे हुये थे, जिसमें दर्जनों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ.इसके बावजूद ओडिशा में मतांतरण लगातार जारी है. भारत में मतांतरण के अनेक कारण हैं-जातिवाद, ऊंच-नीच एक छोटा कारण है, लेकिन भय, लालच और षड्यंत्र इसके बड़े कारण हैं. इस्लामी और ईसाई राज में मतांतरण का ग्राफ बहुत ऊंचा रहा है, इसकी रफ्तार अभी भले तेज न हो, लेकिन रुकी नहीं है. भारतीय संविधान हमें अंत:करण की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, संविधान किसी भी मत-पंथ को मानने और उसके प्रचार करने का अधिकार भी देता है. लेकिन मत-प्रचार और मतांतरण के बीच की लक्ष्मण रेखा को समझने की जरूरत है. यदि मतांतरण कराने का प्रमुख लक्ष्य लेकर घूमने वाले संसाधनों से लैस संगठित संगठनों को खुली छूट दी जाये तो आप घर वापसी जैसे अभियानों पर कैसे रोक लगा सकते हैं?

लोकतंत्र और संविधान का हवाला देकर मतांतरण पर दोहरा नजरिया घातक साबित होगा. हम हिंदुओं के मतांतरण पर आंखें बद कर लें और घर वापसी पर कोहराम मचा दें, ये दोनों बातें एक साथ नहीं चलेंगी.

-आर एल फ्रांसिस

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *