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संस्कृति पर आघात – झूठे इतिहास के पैरोकार

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विश्व पर राज करना हो तो विश्व का इतिहास खुद के इतिहास से शुरू होना चाहिये, यह मानकर यूरोपीय देशों, खासकर ब्रिटेन और पिछली पांच सदियों में रहे कैथोलिक चर्च प्रमुखों ने विश्व का इतिहास लिखवाया. इसलिये आज भी विश्व के तीन चौथाई हिस्सों में यूरोपीय लोगों द्वारा लिखा इतिहास पढ़ाया जाता था. यह इतिहास यानी एशिया से अफ्रीका तक, पूरा विश्व बाइबिल में उल्लिखित नोहा की कथा से यानी यूरोप और इजराइल आदि हिस्सों से बना एवं हर जगह फैल गया. लेकिन सन् 1950 को केंद्र में रखा जाये तो इसके पूर्व के पांच और बाद के पांच वर्ष में विश्व के अनेक देश स्वतंत्र हुये. उनके इतिहास में बदलाव होने शुरू हुये. इनमें भी जिन देशों को यूरोपीय देशों अथवा उनके अर्थतंत्र पर निर्भर नहीं रहना था, उन्होंने अपने इतिहास में ब्रिटेन व यूरोप के विषय में रोष जताना शुरू किया.

यूरोपीय इतिहास का सार यह था कि विश्व का विभाजन सेमेटिक तथा हेमेटिक पद्धति से हुआ है. विश्व के सारे गोरे अथवा श्वेतवर्णीय लोग यानी सेमेटिक और विश्व के अश्वेत लोग यानी हेमेटिक हैं. ये हेमेटिक एवं सेमेटिक शब्द बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट में एक कथा के अनुसार आये हैं जो कहती है-वर्तमान युग का आरंभ एक प्रलय के उपरांत हुआ. उस प्रलय के बाद एक नोहा नामक ‘महापुरुष’ के लिये नाव आई आदि. किसी भी परंपरा में ऐसी कुछ कथायें हो सकतीं हैं, लेकिन उस कथा में यदि ‘विश्व के अश्वेत लोगों के जीवन का निधान गोरों अथवा श्वेत लोगों की गुलामी करना हो तो क्या विश्व को उसे मानना चाहिये ? यह मुद्दा पिछली कुछ सदियों से पूरे विश्व में चर्चा का विषय बना हुआ है, क्योंकि सभी यूरोपीय लोगों ने विश्व पर राज किया, नरसंहार किया, भारी लूट की. इन सभी को इसकी छूट उसी कहानी से मिली थी. नोहा के तीन बेटों में से सेम के वंशज यानी श्वेतवर्णीय अथवा गोरे लोग अमेरिका, भारत, पूर्व के देशों और पहले के दक्षिण पूर्वी एशिया में गये. वे सभी सेमेटिक माने जाने लगे. लेकिन उनमें से अभिशप्त बेटे हेम को श्राप था कि वह दक्षिण की ओर जायेगा, काला बन जायेगा और उसके वंशज सेम के वंशजों की पीढ़ी दर पीढ़ी सेवा करेंगे. इस इतिहास के अनुसार हेम के सभी वंशज यानी अफ्रीकी हैं. इनके अलावा विश्व में जो भी अश्वेत लोग हैं वे हेमेटिक बन गये और सभी गोरे विश्व में बुद्धि-संपन्नता पर अधिकार जताने लगे. ‘यूरोप के ग्रीस देशवासी अपनी बुद्धि की धरोहर लेकर भारत में आये. दूसरी ओर दक्षिण की तरफ के लोग अफ्रीका से आये हैं. ये सभी हेम के वंशज हैं.’ भारत की यह जो कहानी यूरोपीय लोगों ने तैयार की, ऐसी ही कहानी विश्व के प्रत्येक देश के लिये ब्रिटिशों एवं ईसाई मिशनरियों ने बनाई. ब्रिटिश, अन्य यूरोपीय और पोप केवल इतनी ही कहानी बताकर नहीं रुके, बल्कि हर देश में कहीं सेमेटिकों ने हेमेटिक पर अत्याचार किये वहीं कुछ स्थानों पर हेमेटिक आक्रामक रहे, इस तरह का इतिहास लिखवा लिया. ब्रिटिशों द्वारा लादे गये इस विवाद का भारतीय रूपांतर है आर्य-अनार्य विवाद. हम सेमेटिक हैं यानी दुनिया पर गुलामी लादने का हक विधाता ने हमें दिया है, ऐसा कहकर विश्व में अपने द्वारा नरसंहार के लिये स्वयं ही मान्यता प्राप्त कर ली. उसी तरह जिन हिस्सों पर उनका नियंत्रण नहीं हो सकता था, वहां की समस्यायें इसी विवाद के कारण बनी हैं, यह कहकर वहां आगे भी झगड़े करवाना तथा लड़ाइयां करवाना शुरू किया.

अपनी इस भूमिका के समर्थन में उन्होंने यूरोप व अमेरिका के सैकड़ों विश्वविद्यालयों में कुछ लाख पुस्तकें लिखवा लीं. उनकी भूमिका का सूत्र आगे बढ़ाते हुए चिन्हित देशों के सैकड़ों विश्वविद्यालयों से भी उन देशों का इतिहास लिखवा लिया. एक तरफ विश्व के 300-400 विश्वविद्यालय ‘सेमेटिक एवं हेमेटिक’ का सूत्र सामने रखकर लाखों पुस्तकों का सृजन कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर एक दूसरे विषय पर ज्यादा पुस्तकें नहीं बनने दीं- वह था पिछले 500 वर्षों में यूरोपीय देशों ने विश्व को कितना लूटा. लेकिन हेमेटिक व सेमेटिक का बोझ हटाकर विश्व इतिहास का अध्ययन करने वालों का यह पूछना है कि एक-एक देश को गुलाम बनाने के लिये अथवा मतांतरण करवाने के लिये पूरे विश्व में हुए पिछले 500 वर्षों के नरसंहार का लेखा-जोखा क्या है? पूरे विश्व में महिलाओं पर हुए अत्याचारों की गणना करने का साधन क्या किसी को मिला है? पूरे विश्व में कितने गुलाम हुये एवं उसके लिये मारे जाने वालों का हिसाब कौन देगा?
1492 में कोलंबस द्वारा अमेरिका से लाई गई लूट से आज भी जारी रहने वाली लूट का लेखा-जोखा कौन रखेगा! उस लूट से भी बढ़कर, विश्व के 125 देश आज भी भारत की तरह अपना आत्मविश्वास खो चुके हैं. उनके हिसाब से, प्रगति का मतलब है अंग्रेजी बोलना और नौकरी के लिये अमेरिका जाना. पूरे विश्व के पिछले 500 वर्षों के आत्मविश्वास का लेखा-जोखा भविष्य में उस समय की युवा पीढ़ी निश्चित ही लेगी. पर आज तक तो इस अध्ययन की गुत्थी सुलझी नहीं है.

लेकिन हाल की एक घटना ने अचानक आशा की किरण जगा दी है. उसका कारण बना केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी का भाषण. पुणे में सिम्बायोसिस नामक निजी विश्वविद्यालय के समारोह में वे उपस्थित थीं. वहां भाषण में उन्होंने एक महत्वपूर्ण मुद्दा रखा. उन्होंने कहा, भविष्य में विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम निश्चित करते समय शोध संस्थान, विचारकों का क्या कहना है, इसे तो महत्व दिया ही जायेगा, लेकिन छात्रों का क्या कहना है, इसे भी महत्व दिया जायेगा़ अर्थात् मानव संसाधन विकास मंत्री सभी पाठ्यक्रमों के संदर्भ में यह कह रही थीं, केवल इतिहास के लिये ही नहीं. लेकिन एक बात निश्चित ही सच है कि राजनीतिक लोग पाठ्यक्रम तय नहीं करते. इस नई दिशा में पहली बार शुरुआत हो रही है. पूरे विश्व का इतिहास यूरोपीय लोगों ने सेमेटिकवाद के आधार पर लिखवाया, यह जानकारी सबको होते हुए भी भारत के आज तक के सत्ताधीशों ने उस तरह से एक पंक्ति तक नहीं लिखने दी. श्रीमती ईरानी के वक्तव्य से लगता है उस दिशा में गति आयेगी. इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि ब्रिटिशों ने एक दिशा निश्चित कर इतिहास का लेखन किया है तो नये लोगों को उसके ठीक उलट दिशा लेनी चाहिये. संबंधित क्षेत्र के जानकार जो मत दें, काम उसी के अनुसार होना उचित है.

लेकिन संबंधित हिस्सों में महत्वपूर्ण सार को छोड़कर बाकी चीजों को कैसे महत्व दिया जाता होगा, इस बारे में तमिलनाडु के इतिहास पर नजर डाली जा सकती है. भारत का पूरा इतिहास सेमेटिक एवं हेमेटिक तंत्र पर आधारित है, यह एक तरफ की स्थिति होकर भी उसी आधार पर देश में षड्यंत्र कैसे फैलाया जाता है उसका उदाहरण तमिलनाडु में है. इसमें येल, हार्वर्ड और बर्कले विश्वविद्यालयों ने जो सुदीर्घ भूमिकायें अदा की हैं, वे दूसरे देशों की संप्रभुता पर आक्रमण करने वाली यानी अंतरराष्ट्रीय अपराध में समाविष्ट होने वाली हैं. ऊपरी तौर पर ‘येल’ विश्वविद्यालय ने केवल तमिल शब्दकोश के लिए अगुआई की, इतना ही दृष्टिगोचर होता है. भाषा के विषय पर भारत में अलगाव फैलाकर विभाजन हो, इस उद्देश्य से इन विश्वविद्यालयों ने कितने विषैले षड्यंत्र रचे, इसे देखा जाये तो किसी देश की सेना की मुहिम कैसे चलती होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है. वास्तव में दस से अधिक प्रोफेसरों ने एवं सर्वा, फेट्ना जैसी संस्थाओं ने तमिलनाडु के अलगाव के लिये उसे जो चाहे वह देने की तैयारी की थी.

भारत में जब ब्रिटिशों की सत्ता शुरू हुई, तब से दक्षिण की ओर तमिल भाषा बोलने वाला प्रांत अन्य भारतीय प्रदेशों से मिला हुआ नहीं है, यह प्रतिपादन ब्रिटिश अफसर काल्डवेल ने किया था. ब्रिटिशों का प्रयास दक्षिण की चारों भाषाओं के लिये था. लेकिन वे सब नहीं कर पाये. उन्होंने यह भूमिका ली कि यूरोप एवं पश्चिम एशिया मे हेमेटिक वंश के लोग, जो पहले अफ्रीका में आये उनमें से ही कुछ का स्थानांतरण दक्षिण एशिया एवं दक्षिण पूर्व एशिया में हुआ. उत्तर भारत के लोग सेमेटिक एवं दक्षिण में हेमेटिक, यह दिखाने के प्रयास के हिस्से के रूप में अमेरिका के येल, हार्वर्ड तथा बर्कले विश्वविद्यालयों में पहले तमिल भाषा का शब्दकोष तैयार करने काम शुरू किया गया. यह काम करने हेतु येल के मुरे बर्सन एवं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के थॉमस बुरो सबसे आगे थे. उनका दृष्टिकोण एक ही मुद्दे पर टिका था, वह था कि भले हर एक बात में तमिल संस्कृति उत्तर भारत से जुड़ी हुई हो, पर उसमें एक भी शब्द का अर्थ वैदिक संस्कृति से जोड़ने वाला नहीं होना चाहिये. उसकी बजाय वह अफ्रीका के रास्ते यूरोप से संबंधित होना चाहिए. बुरो संस्कृतज्ञ भी था एवं तमिल शब्दकोश का काम पूरा होने पर कइयों ने उसे तमिल-संस्कृत संबंध होने के अनेक उदाहरणे दिखाये. उसने वे मान्य भी किये, लेकिन तब तक उसका शब्दकोश तैयार हो चुका था और उसके एक के बाद एक संस्करण निकल रहे थे. शब्दकोश के उपलक्ष्य में भारत में आये इन दो प्रोफेसरों ने दक्षिण भारत के अनेक राजनीतिज्ञों को अमेरिका में राजनीतिक मित्र उपलब्ध कराये. इतना ही नहीं, चार दशक पूर्व तमिलनाडु में जो आंदोलन हुआ उसे इन प्रोफेसरों का पूरा समर्थन था. इस तरह के काम की शुरुआत 16वीं सदी में दक्षिण में आए डिनोबिली नामक मिशनरी तक जाती है. पिछले 65 वर्षों में दक्षिण भारत में अर्थात् कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश में भी जिस साहित्य का सृजन हुआ है, उन सभी में तमिल साहित्य में यूरोपीय लोगों द्वारा की गई घुसपैठ का उल्लेख है, फिर भी इस प्रश्न का ठीक ढंग से निराकरण हुआ है, ऐसा नहीं लगता. येल विश्वविद्यालय के बाद हार्वर्ड
विश्वविद्यालय ने भी भारत में विभाजनवादी मुद्दों की घुसपैठ करने के लिये अलग से ‘सर्व’ नामक मुहिम शुरू की. इसमें हार्वर्ड के संस्कृत प्रोफेसर माइकल विट्जल, पेनसिल्वानिया के प्रोफेसर फ्रेंकलिन साउथवर्थ और अमेरिका में सरकारी अनुभव रखने वाले प्रो़. स्टीव फार्मर का समावेश था. मुद्दों में था यह दिखाना कि तमिल का संस्कृत से कोई संबंध नहीं है. जहां संस्कृत का संबंध प्रतीत होता भी हो, वहां अन्य कुछ उदाहरण देकर वह विषय किसी अन्य दिशा में ले जाना और तीसरा मुद्दा यानी उत्तर भारत में आर्यों का आगमन था, यानी उसका जो कालखण्ड बताया जाता है, उनसे भी पुरातन तमिल संस्कृति है, यह दिखाना. इस वातावरण के स्थानीय परिणाम के रूप में नक्सली आंदोलन को ऐसे किसी अलगाववादी मुद्दों की जरूरत तो थी ही. अमेरिका के विश्वविद्यालयों को इसमें सफलता मिल रही है, यह देखकर यूरोप के अनेक विश्वविद्यालय उनकी सहायता के लिये आगे आये. बर्कले विश्वविद्यालय ने भी इसके लिये अलग से विभाग तैयार किया जो भारत से अलगाव के अलगाववादी आंदोलनों का मुख्यालय ही साबित हुआ.
भारतीय आंदोलनों से जुड़े अनेक लोगों को यह विषय बताकर इसका पूरे भारत में प्रचार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई. फेडरेशन ऑफ तमिल संगम्स ऑफ नार्थ अमेरिका यानी फेट्ना नामक एक संगठन शुरू किया गया. उसमें शिक्षा, संस्कृति, भाषा जैसे अनेक विषय शामिल किए गये. तमिलनाडु के वंचित वर्गों के आंदोलनों को भी उसका हिस्सा बनाया गया. जर्मनी का कोलोन विश्वविद्यालय, एम्सटरडम स्थित खुला विश्वविद्यालय,स्वीडन का अप्सला विश्वविद्यालय, कोपेनहेगेन विश्वविद्यालय. इन सभी ने इस विषय का साथ देना आज भी जारी रखा है. इस सबके मूल में सेमेटिक-हेमेटिक वाद है. यूरोपीय विश्वविद्यालय एवं अमेरिकी विश्वविद्यालयों का उद्देश्य यह है कि पिछली पांच सदियों की तरह विश्व की लूट का मार्ग कायम रखने की दिशा में सतत प्रयास करते रहना. कम से कम अब 21वीं सदी के आगमन के बाद इस सारे दुष्चक्र को राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखना आवश्यक है.
– मोरेश्वर जोशी-

 

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