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14 फरवरी / जन्मदिवस – स्वतंत्रता के साधक बाबा गंगादास

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नई दिल्ली. वर्ष 1857 के भारत के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाले बाबा गंगादास का जन्म 14 फरवरी, 1823 (बसंत पंचमी) को गंगा के तट पर बसे प्राचीन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर (उत्तर प्रदेश) के पास रसूलपुर ग्राम में हुआ था. इनके पिता चौधरी सुखीराम तथा माता दाखादेई थीं. बड़े जमींदार होने के कारण उनका परिवार बहुत प्रतिष्ठित था. जन्म के कुछ दिन बाद पूरे विधि-विधान और हर्षोल्लास के साथ उनका नाम गंगाबख्श रखा गया. चौधरी सुखीराम के परिवार में धार्मिक वातावरण था. इसका प्रभाव बालक गंगाबख्श पर भी पड़ा. जिस समय सब बालक खेलते या पढ़ते थे, उस समय गंगाबख्श भगवान के ध्यान में लीन रहते थे. जब वे आंखें बंदकर प्रभुनाम का कीर्तन करते, तो सब परिजन भाव-विभोर हो उठते थे. जब गंगाबख्श की आयु दस वर्ष की थी, तब उनके माता-पिता का देहांत हो गया. अब तो वे अपना अधिकांश समय साधना में लगाने लगे. परिजनों के आग्रह पर वे कभी-कभी खेत में जाने लगे, पर 11 वर्ष की अवस्था में वे एक दिन अपने हल और बैल खेत में ही छोड़कर गायब हो गये.

उन दिनों उनका सम्पर्क उदासीन सम्प्रदाय के संत विष्णु दास से हो गया था. उनके आदेश से गंगाबख्श ने अपना पूरा जीवन काव्य साधना तथा श्रीमद्भगवद्गीता के प्रचार-प्रसार में लगाने का निश्चय कर लिया. संत विष्णु दास ने उनकी निश्छल भक्ति भावना तथा प्रतिभा को देखकर उन्हें दीक्षा दी. इस प्रकार उनका नाम गंगाबख्श से गंगादास हो गया. संत विष्णु दास के आदेश पर वे काशी आ गये. यहां लगभग 20 वर्ष उन्होंने संस्कृत के अध्ययन और साधना में व्यतीत किये. उन दिनों देश में सब ओर स्वाधीनता संग्राम की आग धधक रही थी. बाबा गंगादास इससे प्रभावित होकर ग्वालियर चले गये और वहां एक कुटिया बना ली. वहां गुप्त रूप से अनेक क्रांतिकारी उनसे मिलने तथा परामर्श के लिए आने लगे.

ऐतिहासिक नाटकों के लेखक वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने नाटक ‘झांसी की रानी’ में लिखा है कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सखी मुन्दर के साथ गुप्त रूप से बाबा की कुटिया में आती थीं. आगे चलकर जब रानी लक्ष्मीबाई का युद्ध में प्राणांत हुआ, तो विदेशी व विधर्मियों के स्पर्श से बचाने के लिए उनके शरीर को बाबा गंगादास अपनी कुटिया में ले आये. इसके बाद उन्होंने अपनी कुटिया को आग लगाकर रानी का दाह संस्कार कर दिया. इसके बाद बाबा फिर से अपने क्षेत्र में मां गंगा के सान्निध्य में आ गये. वे जीवन भर निकटवर्ती गांवों में घूमकर ज्ञान, भक्ति और राष्ट्रप्रेम की अलख जलाते रहे. उन्होंने छोटी-बड़ी 50 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं. उन्होंने अपने काव्य में खड़ी बोली का प्रयोग किया है. उन्होंने संत कबीर की तरह समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों पर भरपूर चोट की.

लगभग 20 वर्ष तक वे गढ़मुक्तेश्वर में राजा नृग के प्राचीन ऐतिहासिक कुएं के पास कुटिया बनाकर निवास करते रहे. यहां सन्त प्यारेलाल, माधोराम, फकीर इनायत अली आदि उनके सत्संग के लिए आते रहते थे. वर्ष 1913 की जन्माष्टमी के पावन दिन ब्रह्ममुहूर्त में गंगातट पर ही उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया.

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