करंट टॉपिक्स

18 जून / इतिहास स्मृति – हल्दीघाटी का महासमर

Spread the love

downloadनई दिल्ली. 18 जून, 1576 को सूर्य प्रतिदिन की भांति उदित हुआ, पर उस दिन कुछ अधिक लाल दिखायी दे रहा था. क्योंकि उस दिन हल्दीघाटी में खून की होली खेली जाने वाली थी. एक ओर लोसिंग में अपने प्रिय चेतक पर सवार हिन्दुआ सूर्य महाराणा प्रताप देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए डटे थे, तो दूसरी ओर मोलेला गांव में मुगलों का पिट्ठू मानसिंह पड़ाव डाले था.

सूर्योदय के तीन घण्टे बाद मानसिंह ने राणा प्रताप की सेना की थाह लेने के लिए अपनी एक टुकड़ी घाटी के मुहाने पर भेजी. यह देखकर राणा प्रताप ने युद्ध प्रारम्भ कर दिया. फिर क्या था, मानसिंह तथा राणा की सेनाएं परस्पर भिड़ गयीं. लोहे से लोहा बज उठा. खून के फव्वारे छूटने लगे. चारों ओर लाशों के ढेर लग गये. भारतीय वीरों ने हमलावरों के छक्के छुड़ा दिये.

यह देखकर मुगल सेना ने तोपों के मुंह खोल दिये. ऊपर सूरज तप रहा था, तो नीचे तोपें आग उगल रही थीं. प्रताप ने अपने साथियों को ललकारा – साथियो, छीन लो इनकी तोपें. आज विधर्मियों की पूर्ण पराजय तक युद्ध चलेगा. धर्म व मातृभूमि के लिए मरने का अवसर बार-बार नहीं आता. स्वातन्त्र्य योद्धा यह सुनकर पूरी ताकत से शत्रुओं पर टूट पड़े.

राणा की आंखें युद्धभूमि में देश और धर्म के द्रोही मानसिंह को ढूंढ रही थीं. वे उससे दो-दो हाथकर धरती को उसके भार से मुक्त करना चाहते थे. चेतक भी यह समझ रहा था. उसने मानसिंह को एक हाथी पर बैठे देखा, तो वह उधर ही बढ़ गया. पलक झपकते ही उसने हाथी के मस्तक पर अपने दोनों अगले पांव रख दिये.

राणा प्रताप ने पूरी ताकत से निशाना साधकर अपना भाला फेंका, पर अचानक महावत सामने आ गया. भाले ने उसकी ही बलि ले ली. उधर मानसिंह हौदे में छिप गया. हाथी बिना महावत के ही मैदान छोड़कर भाग गया. भागते हुए उसने अनेक मुगल सैनिकों को जहन्नुम भेज दिया.

मुगल सेना में इससे निराशा फैल गयी. तभी रणभूमि से भागे मानसिंह ने एक चालाकी की. उसकी सेना के सुरक्षित दस्ते ने ढोल नगाड़ों के साथ युद्धभूमि में प्रवेश किया और यह झूठा शोर मचा दिया कि बादशाह अकबर खुद लड़ने आ गये हैं. इससे मुगल सेना के पांव थम गये, दोगुने जोश से युद्ध करने लगे.

इधर, राणा प्रताप घावों से निढाल हो चुके थे. मानसिंह के बच निकलने का उन्हें बहुत खेद था. उनकी सेना सब ओर से घिर चुकी थी. मुगल सेना संख्याबल में भी तीन गुनी थी. फिर भी वे पूरे दम से लड़ रहे थे.

ऐसे में यह रणनीति बनायी गयी कि पीछे हटते हुए मुगल सेना को पहाड़ियों की ओर खींच लिया जाये. इस पर कार्यवाही प्रारम्भ हो गयी. ऐसे समय में झाला मानसिंह ने आग्रहपूर्वक उनका छत्र और मुकुट स्वयं धारण कर लिया. उन्होंने कहा – महाराज, एक झाला के मरने से कोई अन्तर नहीं आयेगा. यदि आप बच गये, तो कई झाला तैयार हो जायेंगे, पर यदि आप नहीं बचे, तो देश किसके भरोसे विदेशी हमलावरों से युद्ध करेगा ? छत्र और मुकुट के धोखे में मुगल सेना झाला से ही युद्ध में उलझी रही और राणा प्रताप सुरक्षित निकल गये. मुगलों के हाथ कुछ नहीं आया. इस युद्ध में राणा प्रताप और चेतक के कौशल का जीवन्त वर्णन पण्डित श्यामनारायण पाण्डेय ने अपने काव्य ‘हल्दीघाटी’ में किया है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *