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शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व विकास और चरित्र निर्माण होना चाहिए – अतुल कोठारी जी

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स्वतंत्रता पश्चात हमें शिक्षा क्षेत्र में किस दिशा में बढ़ना था और हम किस तरफ चल पड़े, हमारी वर्तमान शिक्षा नीति जीवन के मूल उद्देश्यों को पूरा कर पा रही है अथवा नहीं, मातृभाषा केवल भावनात्मक विषय नहीं है, बल्कि मातृभाषा में शिक्षा पर जोर देने के पीछे वैज्ञानिक कारण विद्यमान हैं, भाषा न केवल ज्ञानार्जन का माध्यम है, अपितु संस्कार व संस्कृति के प्रसार का माध्यम भी है,  विदेशी भाषा में शिक्षा के प्रभाव, सहित  शिक्षा नीति को भारतीयता से जोड़ने के प्रयास पर मचने वाले शोर पर शिक्षाविद् एवं शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव अतुल कोठारी जी से विश्व संवाद केन्द्र भारत ने बातचीत की, प्रस्तुत हैं बातचीत के अंश…………

0 जीवन में शिक्षा का महत्व क्या है, वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिए ?

Atul ji (9)शिक्षा के उद्देश्य की जब बात करते हैं तो स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि Man making & character building, यानि व्यक्तित्व विकास और चरित्र निर्माण. शिक्षा का मूल उद्देश्य है. व्यक्ति का विकास एक ठीक दिशा में होता है तो उसी प्रकार उसका चरित्र बनता है. आज हमारी व्यक्ति के विकास की कल्पना ही दूसरी हो गई है. वास्तव में  व्यक्ति के समग्र विकास की बात है, जिस पर हम काम कर रहे हैं. उपनिषद में दिए गए पंचकोश हैं, इन पंचकोश के आधार पर व्यक्तित्व का विकास होता है, तब व्यक्तित्व का समग्र विकास होता है. हमारा मानना है कि यह व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया है और उसका परिणाम चरित्र निर्माण है. पंचकोश के आधार पर बालक का विकास होगा तो वह बालक निःस्वार्थी होगा, सेवाभावी होगा, उसका मूल आधार आध्यात्मिक होगा, शरीर से सबल होगा, बुद्धिमान होगा, स्वस्थ मन का होगा. इस प्रकार का बालक होना, वही तो चरित्र है. लेकिन आज के संदर्भ में उद्देश्य की दृष्टि से और दो बातें जोड़ता हूं….शिक्षा से सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए और राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान शिक्षा से प्राप्त होना चाहिए.

0 क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली उद्देश्य को पूरा कर रही है, अपने देश में वर्तमान शिक्षा प्रणाली को लेकर आपका क्या मानना है ?

वर्तमान शिक्षा प्रणाली को उपयुक्त तो क्या कहें, पर बिल्कुल विपरीत है. अधिक पढ़ा लिखा व्यक्ति कई बार अधिक भ्रष्ट दिखता है, हमारी शिक्षा व्यक्ति को विपरीत दिशा में ले जा रही है. इसीलिए आज की शिक्षा प्रणाली तो किसी भी हालत में नहीं चलनी चाहिए. हमारा उद्देश्य भी यही है, देश की शिक्षा प्रणाली बदलनी चाहिए. देश की शिक्षा को एक नए विकल्प की आवश्यकता है, और उसके लिए शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के माध्यम से हम प्रयास कर रहे हैं.

जब शिक्षा नीति में बदलाव की बात आएगी, उसमें सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राथमिक विषय है भाषा का, जबतक देश की भाषा नीति नहीं बदलेगी, तब तक शिक्षा नीति बदलने का अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं होगा. इस हेतू मैं वर्तमान सरकार को धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने शिक्षा नीति के साथ-साथ भाषा नीति को लेकर भी कार्य शुरू किया है.

0 यदि उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा तो हमारी शिक्षा प्रणाली कैसी होनी चाहिए, वर्तमान प्रणाली में क्या परिवर्तन होने चाहिए ?

जीवन की नींव ही शिक्षा है, इसीलिए हमने एक नारा दिया है कि यदि देश को बदलना है तो पहले शिक्षा को बदलना होगा. जब तक देश में शिक्षा नहीं बदलेगी, तब तक देश में वास्तविक परिवर्तन नहीं हो सकता. पिछले 150-175 साल में जिस शिक्षा को पढ़कर हम आगे बढ़ रहे हैं, उसमें उनका जो मानस बन गया है..उसमें यदि अर्थशास्त्री है तो उसे मार्क्स के सिद्धांत ज्यादा अच्छे लगते हैं, और चाणक्य की बात करो तो भगवाकरण की बात लगती है. किसी भी व्यक्ति ने 15-20 साल जो पढ़ाई की, तो उसी के आधार पर उसका जीवन बनेगा. शिक्षा ऐसी चीज है, कि छोटी उम्र से बच्चे के मन पर इसका गहरा प्रभाव होता है, बचपन का अधिक प्रभाव होता है, उसको बदलना बहुत मुश्किल होता है.

एक उदाहरण मैं कई बार देता हूं….कि जो राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद के आधार पर काम करने वाले व्यक्ति हैं, ऐसे लोग भी समझते हुए भी व्यवहार में अनेक बार मत संप्रदाय को भी धर्म ही बोलते हैं, जबकि वे जानते हैं कि धर्म, मत, संप्रदाय अलग-अलग हैं. शिक्षा का मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव होता है, कि बुद्धि नहीं मानती है फिर भी मुंह से वही निकल जाता है. इसलिए जब तक शिक्षा जैसी आधारभूत बातें ठीक नहीं होती, तब तक देश की समस्याएं जो आज दिख रही हैं, उनका समाधान भी बहुत मुश्किल है.

0 मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है, ऐसा क्यों ?

मातृभाषा में केवल प्राथमिक शिक्षा नहीं, मैं तो कहता हूं समग्र शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए, यह बात गांधी जी ने भी कही है. क्योंकि प्राथमिक शिक्षा तो अपनी भाषा में पढ़ो, फिर आगे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ो तो माता-पिता क्यों मातृभाषा में बच्चों को प्राथमिक शिक्षा में पढ़ाएंगे. हम नहीं कहते कि अंग्रेजी को एकदम निकाल दो, आप दोनों विकल्प रखिए उच्च शिक्षा में भी, यानि आईआईटी में भी हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं व अंग्रेजी माध्यम चुनने का विकल्प हो, साइंस में भी हिन्दी या अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने का विकल्प हो. शुरूआत इसी प्रकार से करनी पड़ेगी, फिरे धीरे-धीरे बदलाव आएगा.

मूल बात यह है कि यह केवल भावनात्मक विषय नहीं है, कि अपनी भाषा (मातृभाषा) में शिक्षा यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण है. दुनिया के किसी भी भाषा के विद्वान, भाषा शास्त्री, वैज्ञानिक सभी का एक ही मत है कि शिक्षा अपनी भाषा में ही होनी चाहिए. और प्राथमिक शिक्षा तो अनिवार्य रूप से मातृभाषा में होनी चाहिए.

यह वैज्ञानिक बात इसलिए है कि केन्द्र सरकार का राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र है. संस्थान की प्रो. नलिनी सिंह ने मस्तिष्क पर अनुसंधान किया है, उनकी रिपोर्ट प्रकाशित भी हुई हैं. उन्होंने दो पक्षों पर अनुसंधान किया है…हिन्दी में बोलने, लिखने-पढ़ने वाले बच्चे तथा अंग्रेजी में बोलने, लिखने-पढ़ने वाले बच्चों पर. उनके अनुसंधान का निष्कर्ष यह है कि अंग्रेजी में बोलने, लिखने-पढ़ने से केवल बांया मस्तिष्क सक्रिय होता है, जबकि हिन्दी में बोलने, लिखने-पढ़ने से दोनों मस्तिष्क (दोनों हिस्से) समान रूप से सक्रिय होते हैं. तो आप समझ सकते हैं कि किसमें बच्चे का सही विकास होगा, हमारा किसी भाषा से विरोध नहीं है, केवल वैज्ञानिक आधार पर विचार करने की बात है.

0 मातृभाषा में शिक्षा का क्या महत्व है, क्या मातृभाषा का संस्कारों व संस्कृति से भी संबंध है ?

भाषा मात्र बातचीत का एक माध्यम नहीं है. भाषा के साथ संस्कार व संस्कृति भी आती-जाती है, आखिर संस्कृति को आगे ले जाने का काम कौन करता है, भाषा ही तो करती है. पिछले करीब 175 साल में विशेषकर स्वतंत्रता के पश्चात हमारी भाषा कनिष्ठ हो गई और अंग्रेजी भाषा श्रेष्ठ हो गई. अंग्रेजी श्रेष्ठ है, इसलिए देश में आज भी यह तर्क दिया जाता है कि मेडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन आदि में अपनी भाषा में पाठ्यक्रम कहां है, आज हमारी भाषा में सोचते हैं वह भी कहते हैं कि अनुवाद करो. लेकिन, कोई यह नहीं सोचता कि हमारी एवं  छात्रों की आवश्यकता के अनुसार हम नया पाठ्यक्रम हमारी भाषा में तैयार करेंगे. लगता है कि यह सोच ही समाप्त हो गई है. क्योंकि अंग्रेजी ही हमारी माई बाप सब कुछ हो गई, इस कारण जो अंग्रेजी में है, वो ही श्रेष्ठ है. इसलिए आस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड से जो अंग्रेजी में पुस्तकें हैं, वो लाओ और वही पढ़ो. जिस के कारण मानस बना है कि वहां की संस्कृति, परंपराएं, उत्सव श्रेष्ठ हैं, वे जो कर रहे हैं श्रेष्ठ है, और हम कनिष्ठ हैं. यही कारण है कि आज भी देश में सफेद चमड़ी का आकर्षण कम नहीं हुआ है. यह भाषा का ही प्रभाव है, भाषा के साथ संस्कृति आती है, संस्कार आते हैं. व्यक्ति-व्यक्ति पर अलग-अलग प्रभाव कम ज्यादा हो सकता है, पर होता अवश्य है. हमारे यहां परंपरा है. बच्चे अपने शिक्षक के पैर छूते हैं, आज शायद यह थोड़ी कम हुई है यह भी सच है. लेकिन अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में यह बिल्कुल भी नहीं दिखेगी.

0 जर्मनी, फ्रांस, जापान, रूस, चीन सहित विश्व के अन्य देशों में मातृभाषा में शिक्षा प्रदान की जाती है, ये प्रगति में भी हमसे कहीं आगे हैं. पर, हम आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता का तर्क देते हैं, हमें मातृभाषा को बढ़ावा देने के लिए क्या करना होगा ? 

एक तर्क दिया जाता है कि दुनिया ग्लोबल हो गई. और इस दौर में हमें आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता को स्वीकार करना होगा. लेकिन,  वास्तव में हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश को आगे बढ़ाने के लिए योजना बनानी है तो एक रणनीति के तहत आठ से दस भाषाओं का ज्ञान आवश्यक है, इसे लेकर बच्चों, युवाओं, विद्वानों को तैयार करना पड़ेगा. इसमें रशियन, अरबी, स्पेनिश, फ्रेंच, अंग्रेजी, जापानी सहित अन्य को शामिल कर सकते हैं, लेकिन इसके कारण करोड़ों बच्चों पर  अनिवार्य रूप से अंग्रेजी भाषा थोपने की आवश्यकता नहीं है. बच्चे अपनी भाषा में पढ़ें, सारा ज्ञान अपनी भाषा में हासिल करें, एक स्तर पर आने के बाद उनकी क्षमता, आवश्यकता, योग्यता के अनुसार जितनी भाषाएं सीखनी हैं, सीखें, कोई आपत्ति नहीं है. दुनिया में सारा ज्ञान एक भाषा में है ऐसा नहीं है, अंग्रेजी में ज्य़ादा ज्ञान है, ऐसा हम इसलिए कहते हैं क्योंकि हमारे यहां कुछ लोग अंग्रेजी जानते हैं, अन्य विदेशी भाषा जानते नहीं हैं. जर्मन भाषा में दर्शन का ज्ञान अच्छा है, विज्ञान का ज्ञान रशियन भाषा में, साहित्य का ज्ञान फ्रांसीसी भाषा में ज्यादा अच्छा है, दुनिया का ज्ञान हम तक आए इसके लिए सारी भाषाओं के विद्वान तैयार करने चाहिए. इसके लिए अनुवाद की भी ठोस व्यवस्था देश में होनी चाहिए.

जब तक तीन स्तर पर अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त नहीं होगी, तब तक अपनी भाषाओं को पूर्ण स्थापित करना मुश्किल है. पहली बात है कि हमारी उच्च शिक्षा, विशेषकर व्यावसायिक शिक्षा (आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल, मैनेजमेंट आदि) अंग्रेजी माध्यम में ही है, अपनी भाषा में संभव नहीं, न ही व्यवस्था है. दूसरी बात प्रतियोगी परीक्षाएं अधिकतर केवल अंग्रेजी में हैं, और तीसरी बात कि हमारे शासन, प्रशासन का अधिकतर काम न्यायालय सहित अंग्रेजी में ही है. तो इन तीन स्तर पर अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता समाप्त करनी होगी, यह किए बिना अपनी भाषाओं को पुनर्स्थापित करना मुश्किल है. इसलिए आज समाज में अंग्रेजी माध्यम का आकर्षण बढ़ा है. इसमें अभिभावकों का भी दोष नहीं है, वह भी सोचते हैं कि उच्च शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम ही होने वाला है, तो क्यों न पहले से ही अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाएं. अन्यथा बच्चों को आगे कठिनाई आती है, बच्चों के भविष्य का सवाल होता है, प्रतियोगी परीक्षा के कारण नौकरी का प्रश्न होता है, वहां भी अंग्रेजी में परीक्षाएं ही रहती है. शासन प्रशासन में भी काम अंग्रेजी में है, इसलिए मजबूरी में लोग घसीटे जा रहे हैं, इस हेतू तीनों स्तर पर परिवर्तन करना होगा, अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त होनी चाहिए.

0 क्या हम केवल अंग्रेजी भाषा में पढ़कर ही आगे बढ़ सकते हैं, यदि नहीं तो फिर अंग्रेजी को इतना महत्व देने की क्या आवश्यकता है ?

हम अंग्रेजी के बिना आगे नहीं बढ़ पाएंगे, यह तर्क नहीं कुतर्क है. हमारे देश में स्वतंत्रता के बाद कितने भारतीयों को नोबेल पुरस्कार मिले, 125 करोड़ लोगों का देश है. इजरायल एक छोटा सा देश है, दिल्ली से भी छोटा, हमारे बाद स्वतंत्र हुआ है, लेकिन इजरायल में 16 लोगों को नोबेल पुरस्कार मिले हैं. और इन समस्त 16 लोगों ने अपनी हिब्रू भाषा में ही काम किया है.

किसी दूसरी भाषा में, विदेशी भाषा में कुछ जानकारियां तो प्राप्त की जा सकती हैं, सीमित मात्रा में ज्ञान तो प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन ज्ञान का सृजन नहीं किया जा सकता, सृजनात्मकता इसमें नहीं हो सकती. इसलिए अंग्रेजी में ही आगे बढ़ा जा सकता है, इसका कोई आधार नहीं है.

25 साल माइक्रोसाफ्ट में कार्य करने वाले, केजी से पीजी, आईआईटी तक अंग्रेजी में पढ़ाई करने वाले संक्रान्त सानू जी ने पुस्तक लिखी है, अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल, उन्होंने पुस्तक में तथ्यों सहित समस्त तर्क दिए हैं. उन्होंने लिखा है कि दुनिया में जीडीपी में टॉप 20 देश (50 लाख से अधिक आबादी वाले) अपनी भाषा में शिक्षा दे रहे हैं, और अपनी भाषा में सब काम कर रहे हैं. केवल साढ़े तीन देश अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और आधा कनाडा (लगभग आधे हिस्से में स्पेनिश प्रभावी है) अंग्रेजी में शिक्षा देते हैं, कार्य करते हैं. क्योंकि इनकी मातृभाषा अंग्रेजी ही है.

दूसरी ओर उन्होंने बताया है कि दुनिया में जीडीपी की दृष्टि से 20 सबसे पिछड़े देशों में लगभग सभी देश ऐसे हैं जो मातृभाषा को छोड़कर अन्य भाषाओं या अपनी और विदेशी भाषा में शिक्षा दे रहे हैं. स्पष्ट है कि जब तक भारत में अपनी भाषा को महत्व नहीं देंगे, तब तक देश का पूर्ण विकास नहीं होगा.

हमने मातृभाषा व भारतीय भाषाओं की बात की है. बच्चों को अपनी भाषा में शिक्षा मिलनी चाहिए, अपनी भाषा में देश का सारा कार्य होना चाहिए. हिन्दी देश की राजभाषा है, तो हिन्दी को देश की राजभाषा के रूप में स्थापित करना चाहिए, उसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थान मिलना चाहिए. राज्यों में वहां की राज्य भाषाओं को स्थान मिले.

0 मातृभाषा में शिक्षा लेने वाले विद्यार्थियों की सबसे बड़ी समस्या है, उच्च शिक्षा में पढ़ाई जाने वाली अच्छे स्तर की पाठ्य सामग्री का उपलब्ध न होना, (quality reading material/books),  इसे लेकर क्या प्रयास हो रहे हैं ?

उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम तैयार करने को लेकर हिन्दी विश्वविद्यालय भोपाल में हाल ही में प्रयास शुरू हुए हैं. पहले चरण में उन्होंने मेडिकल, इंजीनियरिंग, और प्रबंधन के पाठ्यक्रम पर कार्य शुरू किया है. आज देश में इन क्षेत्रों  की ओर अधिक आकर्षण व मांग है. पहले हिन्दी में पाठ्यक्रम तैयार कर रहे हैं, संभवतया आने वाले एक दो साल में यह शुरू भी हो जाए. उसके बाद अन्य भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करने के प्रयास हो सकते हैं.

0 आम जनमानस में एक भ्रम है कि दक्षिण या उत्तर पूर्व राज्यों में संवाद के लिए अंग्रेजी भाषा ही प्रचलित है, इसे लेकर क्या कहेंगे ?

वर्तमान में यह भ्रम है, आज से 25 साल पहले मेरे मन में भी यह भ्रम था कि उत्तर पूर्व में तो अंग्रेजी ही चलती है. लेकिन कुछ प्रांतों में प्रवास किया तो मेरा भ्रम टूट गया. अरुणाचल में तो बोलचाल की भाषा ही हिन्दी है, नागालैंड की द्वितीय राजभाषा हिन्दी बन गई है, उत्तर पूर्व में पिछले कुछ वर्षों में यह ध्यान में आया है कि हिन्दी सीखने की ललक काफी बढ़ रही है. किसी समय तमिलनाडु में विरोध होता था, लेकिन वास्तव में यह विरोध राजनीतिक था. जिसमें सामान्य व्यक्ति भी घसीटा जाता था. लेकिन आज के वातावरण में बहुत अंतर है, वहां के लोगों को, बच्चों को भी लगता है कि हमको हिन्दी सीखनी चाहिए. माना तमिलनाडु का व्यक्ति नौकरी के लिए गुजरात जाता है तो तमिल वहां चलेगी नहीं, अंग्रेजी आम बोल चाल में शामिल नहीं है, पर यदि टूटी फूटी ही सही हिन्दी आती होगी तो गुजारा चल जाएगा. यह बात सब लोग समझ रहे हैं. मैं स्वयं कतई अंग्रेजी नहीं बोलता हूं. दक्षिण में या कहीं भी प्रवास पर जाता हूं, मुझे कभी काम में रुकावट या परेशानी नहीं आई.

0 शिक्षा प्रणाली में देश के गौरवशाली इतिहास, परंपराओं को शामिल करने को लेकर विवाद खड़ा किया जाता है, कुछ लोग भगवाकरण का आरोप लगाते हैं. आपका क्या कहना है ?

सब में मूल बात एक ही है कि हम अपने देश से कट गए हैं. 175 साल की शिक्षा ने हमको हमारे देश से काट दिया है. कहा जाए तो जो मैकाले ने कहा था, वह परिणाम सामने हैं. इस देश में शिक्षा व्यवस्था से ऐसे लोग निर्माण होंगे जो दिखने में तो भारतीय होंगे, लेकिन आचार, विचार, व्यवहार में संपूर्ण रूप से अभारतीय होंगे. मैकाले की शिक्षा के परिणाम हमारे सामने हैं.

जो विरोध कर रहे हैं, उन्होंने 15-20 साल में जो शिक्षा ग्रहण की है, उसमें ये बातें शामिल नहीं हैं, न पढ़ी हैं, न देखी हैं, न समझी हैं. और व्यवहारिक जीवन में भी अनुभव नहीं कर रहे हैं. इस शिक्षा व्यवस्था से तथाकथित बुद्धिजीवी भी हमारे देश में तैयार हुए हैं. वह जब भी भारतीयकरण की बात आती है तो तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं. लेकिन ठीक है, प्रतिक्रिया करने का उनका अधिकार है, और जिन्होंने काम करना है, उनको काम करने का अधिकार है.

175 साल से जो शिक्षा व्यवस्था चली आ रही है, उसके परिणामस्वरूप आज मानस बना हुआ है. उसमें परिवर्तन की बात आती है तो उनको डाइजेस्ट नहीं होता, और हो हल्ला खड़ा करने का प्रयास करते है. उनके पास कोई निश्चित तर्क या तथ्य नहीं है, केवल एक शब्द है भगवाकरण किया जा रहा है. उनसे पूछते भी थे, लेकिन उनके पास कोई तथ्य या जवाब नहीं होता है. जैसे वर्तमान में भी केंद्रीय विद्यालय संगठन ने गैर कानूनी रूप से संस्कृत की जगह जर्मन भाषा को थोपा था, उसे कानून के अनुसार ठीक करना यह भगवाकरण है क्या. हो हल्ला करने वाले अधिकतर लोग ऐसे हैं, जिनका पिछले कई वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षित स्थान बना था. और अब उनका अपना स्थान हिलने लगा तो वह चिल्ला रहे हैं, हो हल्ला कर रहे हैं. वास्तव में भगवाकरण का जो हल्ला मचाया जाता है, वह सोची समझी साजिश के तहत है. उनके पास तथ्य या तर्क के रूप में कुछ नहीं है.

जिस प्रकार वेंडी डोनिगर की पुस्तक दि हिन्दूज़ एन आल्टरनेटिव हिस्ट्री पर रोक के पश्चात पुस्तक के प्रकाशक पेंग्विन ने ही अपने स्तर पर निर्णय लेकर न्यायालय में लिखित में दिया और पुस्तक को बाजार से वापिस लिया. जिसपर न्यायालय ने भी अनुमति प्रदान की. इसमें हमारा क्या दोष था, पर हुआ क्या राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा बचाओ आंदोलन एवं दीनानाथ बत्रा जी के नाम पर काफी हो हल्ला खड़ा किया गया. शिक्षा क्षेत्र में गलत बातों को बदलने के लिए हमने लोकतांत्रिक ढंग से हर संभव प्रयास किया. जब हल नहीं निकला तो न्यायालय की शरण लेनी पड़ी, और विभिन्न न्यायालयों के 11 निर्णय हमारे पक्ष में आए हैं.

0 भगवाकरण के आरोपों को लेकर कई बार रक्षात्मक रुख देखने को मिलता है, हम विरोध करने वालों को उचित जवाब नहीं देते, आपका क्या कहना है ?

रक्षात्मक (डिफेंसिव) होने का कोई कारण ही नहीं है, न होना चाहिए. न हम रक्षात्मक होते हैं, न होने की आवश्यकता है. हम समग्र रूप से शिक्षा बचाओ आंदोलन, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास की बात करते हैं. हमारे पास उनके हर प्रश्न का उत्तर है, इसलिए हमें रक्षात्मक होने की जरूरत ही नहीं है.

भगवाकरण का जो नाम देते हैं, उसके पीछे कुछ बाते हैं – भारतीयता के नाम पर, राष्ट्रीयता के नाम पर देश में कोई बात होती है, तो इसके विरोध के लिए उन लोगों ने भगवाकरण शब्द निकाल लिया है. संवैधानिक दृष्टि से संस्कृत को फिर से स्थापित किया जाए, तो वह भारतीयता है, भारतीय कानून के तहत 1968 की शिक्षा नीति का हिस्सा है. त्रिभाषा सूत्र में भारतीय भाषाओं की बात की गई है, विदेशी भाषा की बात है ही नहीं. कानून के अनुसार, संविधान के साथ, देश की नीति के हिसाब से बात हो रही है, लेकिन ये तो भारतीयता, राष्ट्रीयता से जुड़ी बात है तो वे लोग भगवाकरण का लेबल लगा देते हैं. इसलिए उनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है. न ही संरक्षात्मक स्थिति में जाने की जरूरत है. अपना काम करते रहेंगे, अपनी लकीर लंबी करती रहेंगे, वे बोलते हैं, बोलने दो. जिसे अपनी राजनीतिक रोटियां सेकनी हैं, सेंकने दो, हम इससे क्यों डरेंगे. संस्कृत को अनिवार्य रूप से पढ़ाना चाहिए, ऐसा किसी का आग्रह नहीं है. संस्कृत का त्रिभाषा सूत्र में स्थान होना चाहिए, जो पढ़ना चाहे वह पढ़े.

0 वर्तमान शिक्षा प्रणाली मात्र परीक्षा में अच्छे अंक लाने तक ही सीमित रह गयी है… क्या यह मैकॉले सिस्टम की देन है ?

यह सही है, इसे लेकर देश में जागरूकता लाने की बहुत आवश्यकता है. यह मैकॉले सिस्टम की ही देन है. क्योंकि इस पद्धति में छात्र वर्षभर डंपिंग करता है, और परीक्षा में तीन घंटे की अवधि में वोमिट कर देता है. इस व्यवस्था के कारण स्नातक, परास्नातक, आदि तक पढ़ाई करने के बाद दो ही बातें फलित होती हैं…पहली या तो वह नौकर बनता है, दूसरी वह बेकार (बेरोजगार) बनता है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था में संपूर्ण बदलाव की आवश्य़कता है.

0 वैदिक गणित पर क्या कार्य हो रहा है, उसे प्रचारित करने को लेकर क्या प्रयास किए जा रहे हैं ?

हम वैदिक गणित पर भी काम कर रहे हैं, पिछले पांच साल में काफी काम किया है. इसके पूर्व में भी कुछ काम वैदिक गणित पर हुआ था. अब हमने कक्षा एक से लेकर 12 तक का पाठ्यक्रम तैयार किया है. सीबीएसई के गणित के पाठ्यक्रम में कहां कहां वैकल्पिक रूप में वैदिक गणित का उपयोग करना चाहिए, जिससे बच्चों के लिए गणित सरल हो जाए. उच्च शिक्षा में छह माह के प्रमाण पत्र पाठ्यक्रम (सर्टिफिकेट कोर्स) तैयार किया है, तीन विवि के साथ एमओयू साइन किया है और वहां यह कोर्स चल रहा है. हमने कालीदास संस्कृत विद्यापीठ नागपुर, हिन्दी विवि भोपाल, पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी के साथ एमओयू किया है, उन्हें पाठ्यक्रम दिया है, साथ ही शैक्षणिक सहयोग किया जाता है. परीक्षा का संचालन, प्रमाण पत्र देना विवि की अपनी प्रक्रिया है. इसके बाद एक साल का डिप्लोमा कोर्स वैदिक गणित में तैयार करेंगे. उसके आगे भी कार्य करने की योजना है.

ऐसे ही प्रत्येक विषय में इस प्रकार कार्य करने और उसे सिस्टम में लाने की जरूरत है. यूपीए सरकार के समय में ही सीबीएसई ने एडिशनल सब्जेक्ट के रूप में वैदिक गणित का पाठ्यक्रम तैयार कर लागू किया था और आज भी वह अस्तित्व में है. समाचार माध्यमों में कुछ भी आता रहे, राजनेता कुछ भी कहते रहें. लेकिन विद्वानों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो इन प्रयासों का स्वागत कर रहा है. पांच-छह साल पहले तक वैदिक गणित के बारे में बोलना तक मुश्किल था, लेकिन आज वैदिक गणित प्रतियोगी परीक्षाओं में आशीर्वादरूप साबित हो रहा है. हजारों रुपए खर्च कर बच्चे वैदिक गणित पढ़ रहे हैं. देश में वातावरण बदल रहा है, चिल्लाने वाले चिल्लाते रहें, हम काम करते रहेंगे, आगे बढ़ते रहेंगे. एक प्रकार से वैदिक गणित यह प्राचीन संकल्पना है और प्रतियोगी परीक्षाएं आधुनिक संकल्पनाएं हैं. इस प्रयोग में दोनों का समन्वय दिखाई देता है.

0 शिक्षा प्रणाली को भारतीयता से जोड़ने के लिए कोई मॉडल विकसित किया गया है क्या, इसे लागू करने को लेकर क्या प्रयास हो रहे हैं ?

देश में शिक्षा व्यवस्था में एक नया मॉडल देने के संदर्भ में कई संस्थाएं कार्यरत हैं. आवश्यकता है ऐसी सभी संस्थाएं, संगठन एक मंच पर आकर कार्य करें. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास प्रयासरत है. शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास का उद्देश्य देश की शिक्षा व्यवस्था को एक नया विकल्प देने का है. इस दिशा में हमने भी विचार किया है.

प्रथम बात यह है कि शिक्षा के उद्देश्य के बारे में स्पष्टता की आवश्यकता है. शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है , चरित्र निर्माण व व्यक्तित्व विकास. दूसरी बात यह कि शिक्षा के द्वारा देश और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए. तथा राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान प्राप्त होना चाहिए.

उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा में प्राचीन एवं आधुनिकता का समन्वय होना चाहिए, साथ में भौतिकता व आध्यात्मिकता का भी समन्वय होना चाहिए. व्यवहार व सिद्धांत का संतुलन होना चाहिए. शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिए, मूल्य आधारित होनी चाहिए, मातृभाषा में होनी चाहिए, शिक्षा व्यवसाय-व्यापार न होकर सेवा का माध्यम होनी चाहिए. शिक्षा में पारिवारिक भाव का विकास एवं शैक्षिक परिवार की संकल्पना होनी चाहिए. साथ ही शिक्षा का टुकड़ों-टुकड़ों में विचार न करते हुए समग्रता व एकात्मता का दृष्टिकोण होना चाहिए. इस प्रकार की आधारभूत बातों के आधार पर शिक्षा की नीति व्यवस्था एवं पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम का निर्धारण होना चाहिए.

लेकिन केवल मॉडल बनाने से काम नहीं हो जाता, मॉडल के अनुरूप व्यवहारिक धरातल पर प्रयोग करने पड़ेंगे, उसमें कितना सफल होते हैं. जब मॉडल धीरे धीरे सफल होता है, तो उसमें समय के साथ नई – नई बातें भी जुड़ती हैं. देश और दुनिया जैसे बदलते हैं, इस प्रकार बदलाव भी आवश्यक हैं. इसलिए प्राचीन और आधुनिकता का समन्वय भी होना चाहिए.

हमारा प्राचीन ज्ञान विज्ञान आज भी उपयोगी है, परंतु प्राचीन जितना भी है, वह आज उपयोगी है ऐसा कहना मुश्किल है, तो जो आज उपयोगी है उनको अपनाओ. साथ-साथ दुनिया जिस गति से आगे जा रही है तो वह आधुनिकता भी हमारे पाठ्यक्रम में आनी चाहिए. जैसे गॉड पार्टिकल की खोज हुई, वह हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है क्या. ऐसा दुनिया में जो भी नया शोध, अनुसंधान होता है, उसका भी नियमित रूप से पाठ्यक्रम में समावेश करना चाहिए और प्राचीन ज्ञान का भी उपयोग होना चाहिए.

इस प्रकार एक दिशा तय की जा सकती है, जिसमें प्रमुख आधारभूत बातें शामिल की जा सकती हैं. उस दिशा में हमने तैयारी की है. समय के साथ उसमें अनुभव के आधार पर बदलाव करते जाते हैं. जैसे हमारा चरित्र निर्माण – व्यक्तित्व विकास का पाठ्यक्रम है, 2010 के बाद पांच साल में अभी तक तीन बार छापा है. तीनों में अंतर देखेंगे, साथ ही आज जो धरातल पर प्रयोग कर रहे हैं, उनमें से कुछ बातें ऐसी हैं जो तीनों पाठ्यक्रम में नहीं हैं, कुछ बातें हमने जोड़ी हैं. एक प्रतिमान तो तय किया जा सकता है, जिसमें इस प्रक्रिया को भी अपनाना पड़ेगा. यह प्रयोग समस्त क्षेत्रों में किए, शहरी, ग्रामीण, जनजातीय, सरकारी एवं निजी विद्यालयों में भी किए. तीन साल के अनुभव से लगा कि यह सभी जगह सफल हो सकता है. और अब सरकारी स्तर पर इसको ले जाने का प्रयास कर रहे हैं, कुछ प्रदेशों में चयनित सरकारी विद्यालयों में प्रयोग को शुरू भी किया है. प्रयोग में सैद्धांतिक व व्यवहारिक स्तर पर कार्य करना होगा, देश काल समय की आवश्यकता के अनुसार दोनों बातों पर एक साथ विचार करना पड़ेगा.

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