लोकेन्द्र सिंह
अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में जो सुझाव दिया है, वह कोरी कल्पनाओं और सफेद झूठ पर आधारित है. यूएससीआईआरएफ ने भारत को ‘कुछ खास चिंताओं’ वाले उन 14 देशों की सूची में शामिल करने का सुझाव दिया है, जहाँ धार्मिक अल्पसंख्यकों पर उत्पीड़न लगातार बढ़ रहा है. दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता के मामलों पर नजर रखने वाली अमेरिका की इस संस्था ने भारत को इस सूची में शामिल करने के लिए जो तथ्य और कथ्य जुटाए हैं, वे शुद्धतौर पर काल्पनिक हैं. यूएससीआईआरएफ की उपाध्यक्ष नेन्डिन माएजा ने कहा है – ‘भारत के नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी से लाखों भारतीय मुसलमानों को हिरासत में लिए जाने, डिपोर्ट किए जाने और स्टेटलेस हो जाने का खतरा है.’ यह कल्पना नहीं तो और क्या है? इस संदर्भ में यह समझने की भी जरूरत है कि नागरिकता और धर्म, दोनों अलग चीज हैं. लेकिन, इस संस्था ने भारत की छवि खराब करने के लिए दोनों का घालमेल कर दिया. रिपोर्ट में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को निष्प्रभावी करने, गोहत्या और धर्म-परिवर्तन (कन्वर्जन) विरोधी कानूनों को धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के रूप में रेखांकित किया है.
श्रीरामजन्मभूमि प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उत्पीड़न से जोड़ कर आयोग ने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को सांप्रदायिक चश्मे से देख कर अमेरिकी आयोग ने अपनी नासमझी और मानसिक क्षुद्रता का ही परिचय दिया है.
संस्था की यह राय साफ तौर पर उन लोगों के बयानों/लेखन के आधार पर बनी हुई दिख रही है, जो भारत की छवि खराब करने के षड्यंत्र में शामिल हैं. यदि हम पूरी रिपोर्ट को पढ़ें तो यही समझ आएगा कि यह किसी ‘शाहीन बाग के प्रेमी’ द्वारा लिखी गई रिपोर्ट है. वास्तविकता यह है कि नागरिकता संशोधन कानून का किसी भी प्रकार का कोई लेना-देना भारत के धार्मिक अल्पसंख्यक नागरिकों से नहीं है. इस कानून से भारत के अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न होने की कोई गुंजाइश नहीं है. बल्कि यह तो धार्मिक आधार पर उत्पीड़न का शिकार हुए हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, ईसाई समुदाय के बंधुओं का संरक्षण करने वाला कानून है. दुनिया जानती है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों के साथ किस तरह के अत्याचार किए जा रहे हैं. इन देशों से अपनी जान बचाकर भारत में शरण लेने आए धार्मिक अल्पसंख्यकों को स्वाभिमान के साथ जीने का अधिकार देने का सराहनीय काम भारत सरकार ने किया है. अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग को इस कानून के लिए भारत सरकार की प्रशंसा करनी चाहिए थी.
वहीं, राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन (एनआरसी) किसी भी देश का संवैधानिक कार्य है. नागरिकों और घुसपैठियों की पहचान देश की सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़ा मामला है. इसका भी संबंध भारत के अल्पसंख्यकों से नहीं है. एनआरसी के जरिये किसी को भी धार्मिक आधार पर डिपोर्ट या नागरिकता से बेदखल नहीं किया जाना है. एनआरसी में कहीं नहीं लिखा कि इसके जरिए धार्मिक अल्पसंख्यकों को डिपोर्ट किया जाएगा. हैरत है कि अंतरराष्ट्रीय संस्था को इतनी सी बात समझ नहीं आ रही और उसने धर्म एवं नागरिकता का आपस में घालमेल कर दिया. इसलिए भारत सरकार ने उचित ही प्रत्युत्तर यूएससीआईआरएफ को दिया है. भारत के विदेश मंत्रालय ने न केवल आयोग की रिपोर्ट के दावों को खारिज किया है, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इसमें भारत के खिलाफ की गई भेदभावपूर्ण और भड़काऊ टिप्पणियों में कुछ नया नहीं है. यह आयोग पहले भी भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार करने का प्रयास करता रहा है. लेकिन इस बार गलत दावों का स्तर एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया है.
बहरहाल, इस झूठी रिपोर्ट और उसके फर्जी दावों के विरुद्ध आयोग के ही दो सदस्य भारत के पक्ष में खड़े हैं.
भारत के संदर्भ में जो दावे किए गए हैं, वे इसलिए भी खोखले हैं क्योंकि इसमें झूठ का भी सहारा लिया गया है. रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से भाजपा और हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता धार्मिक अल्पसंख्यकों को धमकी देने, उत्पीड़न करने और हिंसा की बहुत-सी घटनाओं में शामिल रहे हैं. यह कोई तथ्य नहीं है, बल्कि शुद्धतौर पर भारत विरोधी ताकतों द्वारा चलाए गए प्रोपोगंडा से प्रेरित है. रिपोर्ट में मॉब लिंचिंग की कथित तौर पर बढ़ती घटनाओं को धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के तौर पर रेखांकित किया गया है. इस संदर्भ में झारखंड में तबरेज आलम की हत्या से जुड़े उदाहरण को भी ठीक उसी प्रकार वर्णित किया गया है, जैसा कि भारत की टुकड़े-टुकड़े गैंग करती है. मॉब लिंचिंग में आयोग ने भी वही धूर्तता दिखाई है, जो भारत का तथाकथित सेकुलर दिखाता है. आयोग ने हिंदुओं की मॉब लिंचिंग की घटनाओं की अनदेखी की है.
अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की यह रिपोर्ट ईसाई मिशनरीज के समर्थन में दिखाई देती है, जो भारत की अनुसूचित जाति-जनजाति के कन्वर्जन के आपत्तिजनक काम में संलग्न हैं. आयोग की पीड़ा यह है कि भारत में कन्वर्जन को रोकने के लिए राज्यों ने कठोर कानून क्यों बनाया है? तब क्या आयोग की मंशा यह है कि भारत को ईसाई मिशनरीज के लिए किसी चारागाह की तरह छोड़ दिया जाए. कन्वर्जन को रोकने वाले कानून ईसाई धर्म के बंधुओं का उत्पीड़न करने के लिए नहीं बनाए गए हैं, बल्कि वह दलित और वनवासी समुदाय को ईसाई मिशनरीज के कन्वर्जन के खेल से बचाने के लिए बनाए गए हैं. यह भी अत्याचार को बढ़ाने वाले कानून नहीं, बल्कि विभिन्न मत-विश्वासों का संरक्षण करने वाला कानून है. इसी तरह आयोग को गोहत्या रोधी कानूनों से दिक्कत है. मूक पशु का संरक्षण करने के कानून से भला किस प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न संभव है?
कुल मिलाकर यह रिपोर्ट ऐसे ही झूठों का पुलिंदा है. यह उन कपोल कल्पनाओं और प्रोपोगंडा का चिट्ठा मात्र है, जो वर्षों से भारत विरोधी ताकतों के द्वारा चलाया जा रहा है. इस तरह तथ्यहीन बातों के आधार पर रिपोर्ट तैयार करने अंतरराष्ट्रीय संस्था यूएससीआईआरएफ ने स्वयं को ही संदिग्ध बनाया है. भारत जैसे लोकतांत्रित देश पर अंगुली उठाने से पहले आयोग को अपने ही गिरेबां (अमेरिका में) ही देख लेना चाहिए था कि किस तरह वहाँ नस्लीय एवं धार्मिक भेदभाव और उत्पीडऩ किया जाता है. कोरोना महामारी के भयंकर संकट में भी अमेरिका का स्वास्थ्य विभाग नागरिकों के इलाज में भेदभाव कर रहा है.
(लेखक विश्व संवाद केंद्र, मध्यभारत के कार्यकारी निदेशक हैं)