आज अमेरिका में ईसाइयों की जितनी संख्या है, उतने ही ईसाई पंद्रह वर्ष बाद चीन में होंगे. यह घोषणा एक चीनी ईसाई मिशनरी ने की है और अमेरिका के परडू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर ने उसके कहे का समर्थन भी किया है. इसलिये फिलहाल चीन में अल्पसंख्यकों के मामले में अघोषित आपातकाल जारी है. समझा जाता था कि विदेशों से नाता रखने वाले जिहादियों एवं चर्च के तत्वों से इस तरह के अल्पसंख्यकों से संबंधित विषयों से निपटने में चीन पिछले अनेक वर्ष से माहिर है, लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है.’अगली सदी में एशिया को ईसाई बनायेंगे’, यह घोषणा इस सदी के आरंभ में ही तत्कालीन पोप जॉन पाल व्दितीय ने की थी. आज उसकी अनुभूति हो रही है. चीन में 15 वर्ष में ईसाइयों की संख्या में तिगुनी वृद्धि करने का लक्ष्य हासिल होता दिखाई दे रहा है. भारत में भी वह प्रयास अभी पूरे जोरों पर शुरू हुआ है. म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल में तो पहले से ही यह प्रयास जारी है. इस सबका जायजा लेने के लिये आगामी नवंबर में पोप फ्रांसिस भारत में आ रहे हैं. इस वातावरण के कारण एशिया में ईसाई मतांतरण का विषय एक बार फिर चर्चा में आया है.
पिछले सप्ताह विश्व के समाचार पत्रों ने चीन में अल्पसंख्यकों के समाचार प्राथमिकता से दिये. उनमें से एक समाचार था चीन में रमजान के रोजे पर पाबंदी लगने के बारे में और दूसरा था एक चीनी ईसाई मिशनरी को 12 वर्ष की कैद दिये जाने का, जिसने घोषणा की थी कि ‘चीन में शीघ्र ही अमेरिका से अधिक ईसाई होंगे’. रमजान पर पाबंदी का समाचार एशियाई दैनिकों ने खासतौर पर दिया जबकि यूरोप-अमरीका के मीडिया ने 12 वर्ष की कैद का समाचार तीन-चार दिनों तक चलाया. चीन के हेन्नान प्रांत में 49 वर्षीय झांग शावजी नामक ईसाई मिशनरी को 12 वर्ष की कैद होने के बाद चीन में वातावरण तनावपूर्ण है. उसे 12 वर्ष की कैद और 10 हजार डालर का दंड हुआ है. इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि झांग चीन की पेट्रियोटिक चर्च का सदस्य है. अमेरिका के परडू विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रो. फेन गांग यांग ने इसकी पुष्टि की है. आज अमेरिका में ईसाइयों की संख्या 24 करोड़ 70 लाख है, चीन में सन् 2030 में ईसाइयों की उतनी संख्या हो जायेगी, क्योंकि चीन में लोग बड़े पैमाने पर ईसाई पंथ स्वीकार कर रहे हैं, यह कहना है परडू स्थित प्रो. गांग का.
विश्व के ईसाई पंथ और चीन में इस पंथ के बीच एक महत्वपूर्ण फर्क यह है कि यूरोपीय आक्रमण की काली छाया चीन पर न पड़े. इसलिये चीन ने साठ वर्ष पूर्व ‘राष्ट्रवादी चर्च‘की स्थापना की थी. ब्रिटेन ने जिस तरह पोप का आधिपत्य टालने हेतु प्रोटेस्टेंट पंथ को अपनी स्वीकृति दी, उसी तरह चीन में यह पेट्रियोटिक चर्च है. उनके बिशप एवं आर्चबिशप का मंडल भी स्थापित किया. इसके पीछे कारण यह था कि माओ के राज में पोप एवं ब्रिटेन के केंटरबरी चर्च का वर्चस्व न हो, इसलिये वहां के कम्युनिस्ट राज में उस चर्च की स्थापना की गई, लेकिन उसे असली गति मिली सन् 1986 में. वजह यह थी कि माओ की कठोर सत्ता के तहत चीन में एक भूमिगत चर्च शुरू होने तथा उसके 250 से अधिक मिशनरी, बिशप, कार्डिनल, आर्चबिशप भूमिगत रूप से कार्यरत होने की जानकारी सामने आई थी. चीन ने अतिशीघ्र सबको हिरासत में लिया. लेकिन तब से इस पेट्रियोटिक चर्च का महत्व अधिक बढ़ गया. कुछ वर्ष तक यह रचना इतनी आकर्षक प्रतीत होती रही कि यूरोपीय वर्चस्व टालने के लिये स्थानीय चर्च, स्वदेशी चर्च एवं पेट्रियोटिक चर्च जैसे शब्द भी प्रचलित किये जाने लगे. लेकिन माओ के समय में भी कैथोलिक चर्च पूरे चीन में गुप्त पद्धति से काम कर रही थी जो ऐसे ‘पेट्रियोटिक’ शब्द की तारीफ करे, यह संभव नहीं था. पिछले वर्ष तक दुनिया यही मानती थी कि चूंकि चीन में कम्युनिस्ट सत्ता है इसलिये ईसाई एवं मुसलमान जैसे अल्पसंख्यकों की संख्या इसी तरह अल्प रहेगी, लेकिन अगले कुछ दशकों में चीन के सबसे बड़ी ईसाई जनसंख्या वाला देश बन जाने की संभावना दिखते ही चीन के सत्ताधीशों की नींद उड़ी हुई है.
चीन में अगले 15 वर्ष में ईसाइयों की संख्या 24.75 करोड़ हो जायेगी, इस घोषणा को चीन द्वारा गंभीरता से लेने का सबसे बड़ा कारण यह है कि फिलहाल चीन में आठ करोड़ ईसाई हैं. उनमें से 7 करोड़ प्रोटेस्टेंट हैं. यद्यपि ये वहां के सरकारी आंकड़े हैं, पर ईसाई मिशनरियों की चर्चा तथा लेखन में यह उल्लेख किया जाता है कि चीन में 13 करोड़ ईसाई हैं. चीन विश्व में अपनी अत्यंत सजग विदेश नीति के लिये जाना जाता है. फिर भी वहां ब्रिटेन के वर्चस्व वाला प्रोटेस्टेंट पंथ कैसे पनपा? इस बारे में जानने की पूरी दुनिया को उत्सुकता है. 19वीं एवं 20 वीं सदी के दौरान चीन में स्थित क्विंग राजसत्ता के दौरान विद्रोहियों को जो मदद चाहिये थी, वह प्रोटेस्टेंट मिशनरियों ने दी, जिससे उस विशालकाय देश में प्रवेश करने का अवसर चर्च ऑफ इंग्लैंड को मिला. उसमें से आज वहां 7 करोड़ प्रोटेस्टेंट हैं. इस पृष्ठभूमि में कैथोलिक चर्च का चुप रहना संभव नहीं था. उसने माओ की सत्ता होते हुए भी उस देश में अपनी मशीनरी स्थापित करने में कसर नहीं छोड़ी. पिछले 20-25 वर्षों में चीन को ‘ओपन डोर पॉलिसी‘ स्वीकार करनी पड़ी है. इसलिये अमेरिका का अप्रत्यक्ष आधिपत्य भी स्वीकार करना पड़ा है. फिलहाल तो कानून अधिक कठोर बनाना और उन पर कड़ाई से अमल करना, इतना ही चीन कर सकता है. यूरोपीय चर्च पर अधिक बंधन नहीं डाले जा सकते, यह आज की स्थिति है. लेकिन चीन में वहां का ईसाई संगठन एवं कम्युनिस्ट सरकार के बीच हमेशा तनाव की स्थिति रहती है. अभी अप्रैल में ही वहां एक 10 मंजिला चर्च ढहाया गया. उस चर्च की इमारत कई एकड़ जमीन पर फैली थी तथा कुछ लाख वर्ग फीट का उसका कार्पेट एरिया था. उस चर्च की रक्षा के लिये बड़ी संख्या में ईसाइयों का झुंड खड़ा था और ‘पहले हम पर टैंक चलाओ’, ये नारे भी लगा रहा था. फिर भी उसे खदेड़ कर वह इमारत ढहा दी गई. इस तरह की घटनायें चीन में बार-बार हो रही हैं. चर्च कार्यकर्ताओं को पकड़ने का सिलसिला तो रोज की बात हो गई है.
चर्च पर हुए इस ‘हमले’ के विरोध में विश्व में अनेक संगठन काम कर रहे हैं. एक तो विश्व में कैथोलिकों की संख्या आज 125 करोड़ है एवं प्रोटेस्टेंटों की संख्या 80 करोड़. इन जनसंख्याओं के देश मुख्यत: महासत्तायें हैं या महासत्ताओं के मित्र हैं. स्वाभाविक रूप से आर्थिक दृष्टि से मजबूत हैं. इसलिये कैद किए गये मिशनरियों की रिहाई की मांग करने हेतु ‘फ्री द फादर्स‘ नामक संगठन कार्यरत है. उसी तरह जहां-जहां मिशनरियों के कामों का विरोध होता है, उन देशों की एक सूची ‘पर्सिक्यूशन कंट्रीज‘के नाम से बार-बार सामने लाई जाती है तथा उसमें बार-बार सुधार भी किये जाते हैं. पश्चिमी जगत के अनेक विश्वविद्यालयों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां एवं विश्व के बड़े बैंक भी इसके लिये काम करते हैं. उसी तरह मानवाधिकार संगठन भी इस काम में जुटे हैं. विश्व के प्रसार माध्यम इस विषय पर पैनी नजर रखते हैं. न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, विश्व में तेजी से फैलता हफिंग्टन पोस्ट, गार्जियन, टेलीग्राफ, भारतीय समाचारों को प्राथमिकता देने वाला डेली मेल, रूस में प्रावदा, लंदन टाइम्स आदि हर रोज इस विषय को उठाते रहते हैं. इसके अलावा चर्च संगठनों के सौ से अधिक बड़े कार्यकर्ता इसी विषय को देखते हैं. आज चर्च विस्तार को लेकर सबसे अधिक घटनायेँ एशिया में घटती हैं, फिर भी एशिया में इस बारे में जानकारी सामने नहीं आती और पाठक बड़े पैमाने पर उसका संज्ञान लेते दिखाई नहीं देते.
भारत एवं चीन के संदर्भ में दस वर्ष पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री कुप. सी. सुदर्शन ने ‘चर्च के आक्रमण को लेकर भारत चीन में संवाद होना चाहिये’ यह इच्छा जताई थी, क्योंकि उन विदेशी ताकतों को नियंत्रित करने में चीन ने सफलता प्राप्त की थी. राष्ट्रीय चर्च की स्थापना भी की थी. आज कुछ हद तक वहां स्थिति बदली है. फिर भी, इस विषय पर भारत-चीन संवाद होने की आवश्यकता कायम है. चीन में माओ की सत्ता आने से पहले वैश्विक स्तर पर जो विचार दिए जाते थे, उनमें एक यह होता था कि ‘भारत विश्व का एकमेव देश है जिसने विश्व को संस्कृति दी, लेकिन कभी भी अपनी सत्ता दूसरों पर नहीं थोपी.’ आज चीन की स्थिति यह है कि वहां की जनता की आध्यात्मिक एवं धार्मिक प्यास बढ़ी है. पिछले 65 वर्षों में पंथ को अफीम मानने के सरकारी आदेश के कारण वहां पश्चिमी महासत्ताओं का प्रवेश हो रहा है. कुछ भिन्न कारणों से भारत में भी पश्चिमी आक्रमण की समस्या है. वहां की मुख्य बौद्ध परंपरा का जन्म भारत में हुआ.चीन की आज की आवश्यकता पूरी करने हेतु उन विषयों का अध्ययन, उसके साथ योग, प्राणायाम का अध्ययन और मुख्य रूप से स्कूली पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले अध्यापक यदि भारत भेज सके एवं चीन अगर उन्हें स्वीकार कर सके तो इन दो देशों की आवश्यकतायें एक दूसरे की सहायता से पूरी हो सकती हैं. भारतीय अध्यापकों को चीन में भेजने की कल्पना हो सकता है अजीब लगे, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जनसंपर्क अभियान के दौरान यह कल्पना व्यक्त की थी कि विश्व को आज 10 लाख शिक्षकों की आवश्यकता है, उसे पूर्ण करना हो तो अच्छे संस्कार देने वाले भारतीय अध्यापक ही उसके लिये सबसे उचित हैं. इसके लिये एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय तक बनाने की योजना उनके भाषणों में थी. केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बने कुछ ही दिन हुये हैं. इसलिये फिलहाल इस विषय को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं दी जा सकती. लेकिन कुछ जिम्मेदार विश्वविद्यालय यह विषय हाथ में लें तो दोनों देशों के बीच यह अंतर कम होने की संभावना है. भारत तथा चीन में ईसाइयों की संख्या बढ़ना गंभीर विषय है. पिछले 500 वर्ष में इन चर्च संगठनों ने यूरोपीय देशों को पूरी दुनिया में लूट मचाने में सक्रिय मदद दी थी. आज अगर चर्च फिर से अपनी संख्या बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं तो इसका अर्थ यही है कि उन्हें और कुछ सदियों तक दुनिया पर गुलामी लादनी है, फिर से लूट मचानी है. विश्व की जनसंख्या की दृष्टि से बड़े देश अगर संगठित रूप से इसके लिये सिद्ध हों तो दोनों देश उससे लाभान्वित हो सकते हैं.
-मोरेश्वर जोशी