वाराणसी (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार जी ने कहा कि जो व्यक्ति मातृभूमि का नहीं है, वह किसी का नहीं हो सकता है. संकीर्णता तथा भटकाव से मनुष्य को निकालना महापुरुषों का कर्तव्य है. किसी जाति को अछूत तथा अस्पृश्य समझना अपराध है. प्रत्येक जाति तथा संप्रदाय को सम्मान मिलना चाहिए. सभी ईश्वर की संतान हैं, प्रभु एक है, नाम अनेक हैं. जाति, वर्ग, संप्रदाय, परंपरा आदि बिंदुओं पर जो रुक गए, वे कट्टर हो जाते हैं. व्यक्ति को कट्टरता नहीं, बल्कि सत्य के साथ रहना चाहिए. उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति भ्रम में डालता है, वह शैतान तथा जो सत्य की ओर ले जाता है, वह विद्वान या भगवान कहलाता है. भारत की सभी धर्मों में शांति, सद्भाव तथा सुख को ही वरीयता दी गई है. इंद्रेश कुमार जी धर्म संस्कृति संगम काशी तथा पालि एवं थेरवाद विभाग के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित संगोष्ठी को मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित कर रहे थे. विश्व की सुरक्षा तथा शांति में धर्म संस्कृति की उपादेयता संगोष्ठी का विषय था.
मुख्य अतिथि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती जी महाराज ने कहा कि कोई भी धार्मिक नहीं होना चाहता है. धर्म एक दर्शन है, तथा संस्कृति उसका क्रियात्मक स्वरूप है. धर्म तथा संस्कृति एक ही है. किसी भी संप्रदाय में आस्था तथा निष्ठा बनाकर, उस संप्रदाय में दृढ़ रहकर अपने मार्ग पर चलकर सत्य प्राप्त करना ही धर्म है. मनुष्यत्व सामान्य धर्म है. संगम के लिए धाराएं आवश्यक हैं. धर्म को अपने जीवन का अंग बनाना चाहिए. धर्म के सच्चे स्वरूप को आज समाज के सामने लाने की आवश्यकता है.
विशिष्ट अतिथि म. गौ. काशी विद्यापीठ के कुलपति प्रो. पी नाग ने भौगोलिक दृष्टि से धर्म तथा संस्कृति पर प्रकाश डाला. विभिन्न स्थलों पर रहने वाले लोग धर्म तथा संस्कृति के कारण एक दूसरे से जुड़े रहते हैं. विभिन्न धर्मों को जोड़ने के लिए आध्यात्मिक होना आवश्यक है. सभी धर्मों के आध्यात्मिक तत्व एक ही हैं, तकनीक को आध्यात्म से जोड़ने का प्रयास होना चाहिए.
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. यदुनाथ प्रसाद दुबे जी ने कहा कि विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहां धर्म गंगा का अविरल स्रोत बहता आ रहा है. यहां वैदिक, बौद्ध, जैन, सिख आदि पंथों तथा परंपराओं का तो आविर्भाव हुआ ही है, साथ ही यह देश मुस्लिम, इसाई, पारसी आदि धर्मों को भी संपोषित करता आ रहा है.
सारस्वत अतिथि केंद्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. नवांग सामतेन ने कहा कि संगोष्ठी के विषय को जीवन की शैली बनाना चाहिए. धर्म का मूल तत्व आध्यात्मिकता है. स्वार्थवश लोग धर्म को आध्यात्मिकता से पृथक कर रहे हैं, हर धर्म का उच्चतम उद्देश्य मोक्ष अथवा निर्वाण की प्राप्ति है. सभी धर्मों की परंपरा का भारत में सम्मान होता रहा है, भारत में हजारों वर्षों से लोग सहिष्णुता से रह रहे हैं. अगर धर्म के बताए मार्ग पर हम चले तो विश्व में शांति तथा सुख का दर्शन होगा. धर्म के नाम पर दूसरे को हानि पहुंचाना धर्म नहीं, अधर्म है.
विशिष्ट अतिथि बीएचयू के जैन बौद्ध विभागाध्याक्ष अशोक कुमार जैन ने कहा कि धर्म ही अस्तित्व को सुरक्षित रखता है. धर्म जीवन जीने की कला सिखाता है. धर्म के तीन आयाम हैं – अहिंसा, संयम और तप. शांति बाहर की वस्तु नहीं है, यह आंतरिक स्वभाव है. लोभ द्वेष को हटाकर ही शांति लायी जा सकती है. अपने अस्तित्व को बनाए रखने के साथ ही दूसरे संप्रदाय के अस्तित्व का समादर करना ही धर्म है. कें. ति.अ.वि.वि सारनाथ के रमेश चंद्र नेगी ने कहा कि धर्म विस्तृत तथा गंभीर है. धर्म का पालन केवल मानव तक सीमित नहीं है, यह पशु-पक्षी, कीड़े, अन्य जीवों तक विस्तृत है.
कार्यक्रम का आरंभ वैदिक, पौराणिक, तथा मां सरस्वती के मत्र्त्रोच्चार के साथ हुआ. तत्पश्चात दीप प्रज्ज्वलन, मां सरस्वती तथा भगवान बुद्ध के तैल चित्र पर माल्यार्पण हुआ.