सूर्य प्रकाश सेमवाल
विश्व में परमपावन दलाई लामा को बहुत सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त है. लेकिन छल-प्रपंची और धोखेबाज चीन का ठोस इलाज न कर पाने और तिब्बती लोगों को उनका लोकतंत्र वापस न करा पाने की टीस इस विराट व्यक्तित्व के ह्रदय को भी कचोटती है… पिछले 61वर्षों में तिब्बत में महिलाओं, लामाओं और अन्य तिब्बती नागरिकों के साथ ड्रैगन आर्मी ने कैसे बर्बर अत्याचार और अमानवीय उत्पीड़न किया है, उसका इतिहास बहुत डरावना और लज्जाजनक है. जिस पर सारे विश्व संगठन और मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले आज तक मौन हैं…
धर्मशाला स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार केंद्रीय तिब्बत प्रशासन (सीटीए) ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से भी “एकजुट होने और बहुत देर हो जाने से पहले यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया कि चीन मानवाधिकार संबंधी जवाबदेहियों समेत अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत आने वाले दायित्वों का निर्वहन करे.” सीटीए के अध्यक्ष व तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमन्त्री डॉ. लोबसांग सांगेय ने चीन की बर्बरता के बारे में कहा कि चीन ने तिब्बत में 10 लाख से ज्यादा लोगों का नरसंहार किया. आंदोलन करने पर चीन की सरकार तिब्बती जनता को जेल में डाल देती है. चीन तिब्बत में मठों (मॉनेस्ट्री) को खत्म कर रहा है. तिब्बत की प्राचीन मूर्तियां तोड़ दी गईं या फिर चीन उठा ले गया. तिब्बत में चीन ने लामाओं का कत्ल किया. इतना ही नहीं चीन के सैनिक मठों में मांस पकाकर खाते थे. तिब्बत में चीन के सैनिकों ने लामाओं को मारा.
मध्य एशिया की ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं कुनलुन और हिमालय के बीच 16,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तिब्बत का शताब्दियों पुराना गौरवमय इतिहास रहा है. 8वीं शताब्दी तक यहां बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू हो चुका था. नेपाल की तरह तिब्बत में भी अंग्रेज यूनियन जैक नहीं लहरा पाए थे क्योंकि 1788-1792 ईस्वी में गोरखाओं ने उन्हें बुरी तरह पीटा था. 19वीं शताब्दी तक तिब्बत स्वतंत्र ही रहा, बेशक कभी चीन ने तो कभी नेपाल ने तिब्बत पर बराबर नजर गड़ाए रखी और सैन्य आक्रमण भी किये. इसी कालखंड में लद्दाख़ पर कश्मीर के शासक ने तथा सिक्किम पर अंग्रेंजों ने अधिकार जमा लिया. माओ ने तिब्बत को चीन की हथेली और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और नेफा को अपनी उंगली बताया था.
नेपाल ने तिब्बत को हराया था, बाद में नेपाल और तिब्बत की सन्धि हुई. जिसमें तय किया गया कि तिब्बत नेपाल को जुर्माने के तौर पर प्रतिवर्ष 5 हजार रुपये की नेपाली मुद्रा देगा. लगातार इस जुर्माने की राशि से तंग आकर तिब्बत ने नेपाल से छुटकारा पाने के लिए सहायता मांगी, यहीं तोते की जान पिंजरे में फंस गई. नेपाल से तो तिब्बत को मुक्ति मिल गई, लेकिन इसके बाद 1906-07 ई0 में तिब्बत पर चीन ने अपना अधिकार जमाते हुए याटुंग ग्याड्से एवं गरटोक में अपनी चौकियां स्थापित कर लीं. सन् 1912 में चीन से तिब्बत पुन: स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में घोषित हुआ, चीन की गिद्ध दृष्टि तिब्बत पर बराबर बनी रही, वह केवल सही अवसर की ताक में था…1913-14 में चीन, भारत एवं तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक हिमाचल प्रदेश के शिमला में हुई. जिसमें इस विशाल पठारों से युक्त स्वतंत्र देश तिब्बत को भी दो भागों में बांट दिया गया, पूर्वी भाग के अंतर्गत चिंगहई व सिंचुआन प्रांत थे, जिन्हें ‘अंतर्वर्ती तिब्बत’ (Inner Tibet) कहा गया, जो अब चीन के प्रांत हैं तो दूसरा पश्चिमी भाग जो ‘बाह्य तिब्बत’ (Outer Tibet) कहलाया, जिसका संचालन बौद्ध धर्मानुयायी शासक लामा के हाथ में दे दिया गया.
चीन के सारे खेल विश्व के बाहरी देशों को भरोसे में लेकर उनकी आँख में धुल झोंकने का प्रयास ही था, अन्यथा तिब्बत पर तो उनकी नजर बहुत पहले से ही थी. 1933 में 13वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद मौका देखकर बाह्य तिब्बत को भी धीरे-धीरे चीनी घेरे में लाने के प्रयास शुरू होने लगे.
06 जुलाई, 1936 को 14वें दलाई लामा का जन्म हुआ और 1940 में शासन संचालन की ज़िम्मेदारी मिल गयी. वर्ष 1950 के अक्तूबर में माओत्से तुंग की पीपल्स लिबरेशन आर्मी अर्थात् चीन की सेना तिब्बत में घुस चुकी थी और नवम्बर में दलाई लामा की ताजपोशी हुई.. पंचेन लामा के चुनाव में चीन ने अनावश्यक रूचि लेते हुए फिर बचे-खुचे तिब्बत के बाहरी क्षेत्र को हड़पने के इरादे से सैन्य आक्रमण कर दिया. 1951 में दबाव बनाकर चीन ने जबरन एकतरफा संधि का नाम देकर तिब्बत को कम्युनिस्ट चीन के अधीन एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया. मई 1951 में तिब्बत के प्रतिनिधियों ने दबाव में आकर चीन के साथ एक 17-सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें तिब्बत को स्वायत्तता देने का वादा किया गया था. इसी आस में दलाई लामा 1954 में पीकिंग की यात्रा पर गए, लेकिन माओ के चीन का इरादा सच्चे, सरल और निश्छल बौद्ध गुरु नहीं भांप सके.. चीन ने दलाई लामा को भी और बाहरी तिब्बत क्षेत्र के लोगों को भी लगातार परेशान और दुखी करने का विस्तारवादी एजेंडा शुरू कर दिया, भूमि सुधार कानून के बहाने दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती के साथ उनके अनुयायी तिब्बत मूल के लोगों का उत्पीड़न और अत्याचार शुरू कर दिये..
महात्मा बुद्ध के अनुयायी और अहिंसा का पालन करने वाले बौद्ध माओ की सेना के अनाचार और कदाचार को कब तक झेलते, इस कारण असंतोष की आग सुलगने लगी. जिसके प्रमाण 1956 एवं 1959 में ड्रैगन आर्मी ने प्रत्यक्ष देखे…. परन्तु बड़ी सेना, भरपूर हथियार और माओवादी खून खराबे की ताकत ने मात्र 8 हजार सैनिकों वाले तिब्बत के निर्दोष और हताश लोगों को बुरी तरह कुचल डाला. माओ की हार्दिक इच्छा थी, दलाई लामा की गिरफ्तारी क्योंकि कम्युनिस्ट सरकार दलाई लामा को बंदी बनाकर तिब्बत पर पूर्णतः कब्जा करना चाहती थी.. कहीं से भी सहयोग न मिल पाने के कारण विवश होकर दलाई लामा 17 मार्च, 1959 की अंधकारपूर्ण रात्रि को अपने तिब्बत को छोड़कर बचते- बचाते 31 मार्च को भारत के तवांग इलाके में प्रवेश कर गए और भारत से शरण माँगी, भारत में उनको तो शरण मिली ही साथ ही उस दौर में 80,000 तिब्बती शरणार्थी भी उनके साथ भारत आए थे, फिर क्या था इसके बाद तो माओ भारत के प्रति बहुत खूंखार दृष्टि रखने लगे…
भारत में राजनीतिक नेतृत्व पर यह प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है कि तिब्बत को लेकर भारत कभी अपनी नीतियों को स्पष्ट नहीं कर पाया, दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव, अनावश्यक विश्वास और दूरदर्शिता के अभाव में तिब्बत पर भारत पूरी तरह असफल रहा… सरदार बल्लभभाई पटेल ने प्रधानमन्त्री पं. नेहरु को तिब्बत के बचाव और चीन से सतर्क रहने के प्रति हमेशा आगाह किया था. उन्होंने कहा था – चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्वासघात जैसा ही है. दुःखद बात यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है, हम ही उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं औरअब हम ही उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भाव के जाल से बचाने में असमर्थ हैं.
डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने तिब्बत के लिए कहा था ‘यदि भारत ने तिब्बत को मान्यता दी होती, जैसी 1949 में चीन को दी गई थी तो आज भारत -चीन सीमा विवाद न होकर तिब्बत – चीन सीमा विवाद होता.
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था – चीनियों ने तिब्बत को लूटा है. तिब्बत को चीन के लोह शिंकजे से आजाद कर उसे तिब्बतियों को सौंपना होगा.
डॉ. राम मनोहर लोहिया ने स्पष्ट रूप से कहा था – “कौन कौम अपने बड़े देवी – देवताओं को परदेस में बसाती है, वह भी शिव और पार्वती को. मैकमोहन रेखा हिन्दुस्तान और चीन की रेखा तो है नहीं, वो रही तो कैलाश मानसरोवर उसकी रखवाली में रहेंगे. तिब्बती हमारे भाई हैं.
तिब्बत को चीन ने पूरी तरह से गुलाम बना दिया और दिखावे के लिये 1965 में तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र का गठन किया. इसी प्रकार 1979 में मंद गति से उदारीकरण शुरू किया तो 1985 में तिब्बत को बड़े पैमाने पर पर्यटन के लिए खोल दिया. तिब्बत की स्वाभिमानी निर्दोष जनता ड्रैगन के अन्याय, अत्याचार व उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाती रही, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ, बेशक आक्रोश और विद्रोह जारी रहा…
1987: ल्हासा और शिगात्से में विद्रोह शुरू हुआ जो क्रमशः चलता रहा, किन्तु 1989 में हू जिंताओ और उनके क्रूर कम्युनिस्ट माओवादियों ने तिब्बत में ऐसा दमनचक्र चलाया कि सब निरर्थक सिद्ध हुआ. दूसरी ओर भारत में आकर तिब्बत के प्रमुख और आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में बस गए, जिसे “छोटा ल्हासा” भी कहा जाता है. संयुक्त राष्ट्र संघ से सहायता की अपील की, जिसे स्वीकारा गया साथ ही विभिन्न प्रस्तावों के माध्यम से उन्होंने तिब्बत में तिब्बतियों के आत्मसम्मान और मानवाधिकार की बात रखी..
भारत में तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रमुख और विश्व में बौद्ध समुदाय में प्रतिष्ठित दलाई लामा विश्व मंचों पर तिब्बत के मानवाधिकारों और विश्व शान्ति का अभियान चला रहे थे तो फिर ड्रैगन ने दुनिया को दिखाने के लिए 2002 में सरकार के स्तर पर दलाई लामा के साथ बातचीत का ढोंग किया, परिणाम कुछ नहीं निकला. 14 मार्च को ल्हासा में चीन विरोधी दंगों के बाद तिब्बत में विरोध प्रदर्शन हुआ, हमेशा की तरह ड्रैगन आर्मी के बल पर चीन की सरकार ने इस प्रदर्शन को भी दबा दिया, इस में कई लोगों की गिरफ्तारी हुई.
2011 में 14वें दलाई लामा ने तिब्बत के राष्ट्र प्रमुख के अपने राजनैतिक अधिकार का त्याग कर लोकतांत्रिक विधि से चुने हुए डॉ. लोबसांग सांगेय को सारे अधिकार सौंपकर राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लिया… दलाई लामा ने इसके बाद विश्व शांति के लिए विश्व के 50 से भी ज्यादा देशों का भ्रमण किया, जिसके लिए उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार भी दिया गया…