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देश को एकसूत्र में पिरोने का काम संत परंपरा ने किया – डॉ. कृष्ण गोपाल

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अवध. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल ने भारत की संत परम्परा पर व्याख्यान में कहा कि देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य संत परम्परा द्वारा किया जाता रहा है. भारत की आध्यात्मिक दृष्टि सभी विभेदों से ऊपर उठकर देखने की दृष्टि है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, अवध प्रान्त कोरोना महामारी के दौरान सेवा कार्य के साथ साथ व्याख्यानों की श्रृंखला आयोजित कर रहा है. इसी कड़ी में अभाविप अवध प्रान्त द्वारा आयोजित व्याख्यान श्रृंखला में “भारतीय संत परंपरा एवं राष्ट्रीयता के विविध आयाम” विषय पर सह सरकार्यवाह का उद्बोधन रहा.

उन्होंने कहा कि भारत विश्व भर में अनेकता में एकता रखने वाला एक विशेष देश है, हमारी विशेषता हमको दुनिया के और देशों से भिन्न रखती है. हमारी विशेषताओं में हमारी आध्यात्मिक धारा प्रमुख है. हमारे देश की आत्मा अध्यात्म में संचित है, भारत की आध्यात्मिक भावनाओं ने देश को सदैव जीवंत रखा है. संकट के समय संतों ने ही आगे आकर समाज को दिशा दी है और उसी के कारण हमें समाज में बृहद परिवर्तन दिखाई देते हैं. और यही हमारे देश की अमरता का मूल कारण है.

उन्होंने महात्मा बुद्ध, आद्य शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, रामानंदाचार्य, शंकरदेव, चैतन्य महाप्रभु, ज्ञानदेव, तुकाराम, कबीर, रैदास तथा गोस्वामी तुलसीदास के बाद तक के तमाम संतों की चर्चा करते हुए कहा कि इन महापुरुषों ने आध्यात्मिक चेतना को बल देते हुए पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधा. मूक लोगों को वाणी दी और समाज के हर वर्ग को विश्वास दिलाया. भारत की संत परम्परा को उन्होंने बृहद रूप से संतों के जीवन के क्रांतिकारी परिवर्तन वाले दृष्टान्तों को भी सबके सामने रखा.

जन आन्दोलन से किया संतों ने परिवर्तन

डॉ. कृष्ण गोपाल ने कहा कि भारत में परिवर्तन संतों के जन आन्दोलन का नतीजा है. देश के अध्यात्म और दर्शन के प्रति उनका अगाध प्रेम था. इसके लिए संतों ने 700 वर्षों की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इस आन्दोलन को थमने नहीं दिया. यह जनांदोलन भारत के कोने-कोने में पहुंचा, दक्षिण से उत्तर, पूर्व से पश्चिम, हिंदी से लेकर तमिल सभी भाषाओं में संतों ने अपने विचारों के माध्यम से देश की आध्यात्मिक परम्परा को जीवित रखा. इन जनांदोलनो में जाति, वर्ण, भाषा सभी तरह के बंधन टूट गए.

उन्होंने कहा कि महात्मा बुद्ध के ज्ञान, करुणा भाव और अहिंसा के दर्शन को पूरी दुनिया में मान्यता मिली. आद्य शंकराचार्य ने उपनिषद की व्याख्या को नए रूप में प्रस्तुत कर पूरे देश में सनातन दर्शन की पुर्नस्थापना की. इसके बाद नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ के शिष्यों ने मुगल आक्रमण के समय देश के गांवों-गांवों में भैरवी गाते हुए सांस्कृतिक एकता की अलख जगाई.

डॉ. कृष्ण गोपाल ने बताया कि मध्यकाल में उत्तर की तरह ही दक्षिण में भी कई संतों ने इस जनांदोलन को आगे बढ़ाया. उनमें नयमार और अलवार संत परम्परा प्रमुख रही, दक्षिण से ही निकलकर संत रामानुजाचार्य ने प्रस्थानत्रयी लिख विशिष्टाद्वैत की स्थापना की और देश में भक्ति आंदोलन की शुरुआत की. उन्हीं की परंपरा को दक्षिण के ही एक संत रामानंद ने आगे बढ़ाया और लोक भाषा में धार्मिक ग्रंथों का लेखन प्रारम्भ किया.

संत रामानंद भक्ति मार्ग के दोनों शाखाओं निर्गुण और सगुण का बराबर सम्मान करते थे. उनके ही शिष्य कबीर और रैदास थे, जिनके भजन आज भी भक्ति के नए आयामों को गढ़ रहे हैं. रामानंदाचार्य के शिष्यों में तमाम महिलाएं भी शामिल थीं.

उत्तर भारत के एक अन्य संत गोस्वामी तुलसीदास ने लोक भाषा में ही रामचरित मानस की रचना कर सनातन परंपरा में एक नया आयाम जोड़ा. इस्लामी शासन के दौरान गोस्वामी जी ने गांव-गांव रामलीला का मंचन करवाया और देश का नारा दिया कि भारत के राजा राम हैं. उनके इस नारे ने उस समय जनआंदोलन का रूप ले लिया था.

उन्होंने कहा कि संतों ने पूरे भारत को एकता के सूत्र में बांधा. उनकी गौरवशाली परंपरा में देश की हर भाषा और हर जाति-वर्ग को बराबर सहभागिता मिली. वे समूचे देश का भ्रमण करते थे. और सभी को एक सूत्र में बांधने की कोशिश करते थे. इन संतों ने कभी दरबारी बनने की चेष्टा नहीं की, बल्कि समाज में घूम घूम कर सभी को एकत्र किया और भारत की आध्यात्मिक चेतना को जिन्दा रखा.

उन्होंने कहा कि डॉ. लोहिया कोई बड़े धार्मिक व्यक्ति नहीं थे, लेकिन अपनी पुस्तक में उन्होंने जो लिखा है, उससे प्रतीत होता है कि उन्होंने भी भारत की आध्यात्मिक मौलिकता को स्वीकार किया है. लल्लन प्रसाद राय और राम विलास शर्मा की पुस्तकों की भी चर्चा की और कहा कि इनमें भारतीय संत परंपरा के विविध आयाम बड़े ही अच्छे ढंग से दर्शाये गए हैं.

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