श्रीनगर के लाल चौक का दृश्य. रात का समय है, कर्फ्यू लगा हुआ है. जांच एजेंसी एनआईए के दो अधिकारी चाय पीते हुए आपस में बात कर रहे हैं. महिला अधिकारी दिल्ली से गए पुरुष साथी से कहती है “हम यहां पर जुल्मों-सितम के नाम पर जश्न मना रहे हैं. स्पेशल पावर एक्ट के दम पर कश्मीरी लोगों को दबाया जा रहा है. हम उनके फोन और इंटरनेट बंद कर देते हैं. यहां के लोग हमारे रहमो-करम पर जी रहे हैं. किसी को खुलकर आजादी से जीने न देना अगर जुल्म नहीं है तो क्या है?” दिल्ली से गया खुफिया अधिकारी अपनी महिला सहकर्मी की इस बात से काफी प्रभावित दिखाई दे रहे हैं. महिला अधिकारी आगे कहती है, “आखिर हममें और उन मिलिटेंटों (आतंकवादियों) में फर्क क्या है?”
यह दृश्य हाल ही में जारी वेब सीरीज़ ‘द फेमिलीमैन’ का है. और देश की सेना को आतंकवादियों जैसा कहने का ये कारनामा हमारे ही देश के फिल्मकारों का है. अभिव्यक्ति या कल्पना के आधार पर कैसा नेरेटिव खड़ा किया जा रहा है. फिल्मों और टीवी धारावाहिकों के बाद भारत विरोध और जिहाद का ये बिल्कुल नया रूप है. बीते कुछ साल में देशविरोधी एजेंडा चलाने के लिए जनसंचार माध्यमों का भरपूर उपयोग हो रहा है, इस कड़ी में नया नाम जुड़ गया है वेब सीरीज़ का.
वेब सीरीज़ यानि फिल्मनुमा धारावाहिक, जिन्हें अमेज़न प्राइम वीडियो, नेटफ्लिक्स जैसे मोबाइल ऐप के माध्यम से देखा जा सकता है. क्योंकि ये मोबाइल फोन पर देखे जाते हैं, इसलिए युवा पीढ़ी में काफी लोकप्रिय हैं. देश विरोध ही नहीं, इन वेब सीरीज में हिन्दू धर्म के खिलाफ एक प्रायोजित दुष्प्रचार साफ तौर पर देखा जा सकता है. वेब सीरीज सेंसर बोर्ड के तहत नहीं आती, इसलिए इनकी सामग्री पर कोई नियंत्रण भी नहीं है. वेब सीरीज़ में गाली-गलौज और अश्लील दृश्यों की भरमार रहती है. कुछ समय पहले ‘सेक्रेड गेम्स’ और ‘घोल’ नाम से वेब सीरीज आई थी, जो सीधे-सीधे हिन्दुओं से घृणा का उदाहरण है. ‘सेक्रेड गेम्स’ में हिन्दू धर्म को ऐसे दिखाया गया है जो धरती को नष्ट करना चाहता है.
‘द फेमिलीमैन’ की कहानी में सीरिया से ट्रेनिंग लेकर आए आईएसआईएस और कश्मीरी आतंकवादियों तक के मानवीय पक्षों को उभारा गया है. बताया गया है कि सभी आतंकवादी हिन्दुओं, पुलिस या सेना के अत्याचार से परेशान होकर हथियार उठाने को मजबूर हुए. देश में हर तरह मुसलमानों को दबाया और कुचला जा रहा है. उनके साथ अत्याचार हो रहा है.
आपको याद होगा कि जब बुरहान वानी नाम का आतंकवादी मारा गया था तो फौरन देश की एक तथाकथित बड़ी पत्रकार ने सोशल मीडिया पर उसके बारे में लिखा. बताया कि कैसे वो कश्मीर के युवाओं के बीच हीरो की तरह उभरा था. उसके पिता स्कूल के हेडमास्टर थे, वगैरह-वगैरह. बिल्कुल उसी तरह का महिमामंडन अब वेब सीरीज़ की मदद से किया जा रहा है. संदेश यही है कि हर आतंकवादी बुरा नहीं होता. उसकी परिस्थितयां उसे हथियार उठाने पर मजबूर कर देती हैं. वरना, उसके भी परिवार में मां, बहन और पिता होते हैं. जिनकी याद में उसका दिल तड़पता है. वो आतंकवादी होता है, लेकिन प्यार करता है.
यथासंभव कोशिश होती है कि प्यार करने वाली लड़की हिन्दू या ईसाई हो, जो सबकुछ जानते हुए भी उसे चाहती रहती है. जब वो मारा जाता है तो लड़की उसकी याद में ‘कैंडल मार्च’ भी निकालती है. उद्देश्य यही कि आम लोगों के मन में आतंकवादियों के लिए सहानुभूति पैदा हो और आतंकवादी बनना नई पीढ़ी को ‘कूल’ और ‘फैशनेबल’ लगे.
‘द फैमिलीमैन’ के अनुसार इस्लामी आतंकवाद का सबसे बड़ा कारण 2002 के गुजरात दंगे थे. ज्यादातर आतंकवादी उसी पृष्ठभूमि में तैयार हुए. वो इसलिए आतंकवादी बने क्योंकि गुजरात दंगों में उनके किसी रिश्तेदार की मौत हुई थी.
सवाल उठता है कि इन दंगों में करीब 300 हिन्दुओं की भी हत्या हुई थी. हिन्दुओं के परिवार से आज तक कोई आतंकवादी क्यों नहीं निकला? गोधरा में जिन कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया था, उनके परिवार वालों ने हथियार क्यों नहीं उठाया? अगर आतंकवादी बनने की एकमात्र वजह गुजरात दंगे हैं तो क्या उससे पहले देश में इस्लामी आतंकवाद नहीं था?
सवाल यह है कि वेब सीरीज बनाने वाले ये वामपंथी फिल्मकार आखिर चाहते क्या हैं? इस बात को समझने के लिए हमें पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य को संदर्भ में लेना पड़ेगा. अगर ध्यान से देखें तो पाएंगे कि ज्यादातर वेब सीरीज मीडिया में चल रहे समाचारों से काफी प्रभावित होते हैं. उनकी कहानी कहने को काल्पनिक होती है, लेकिन उनमें ताजा घटनाक्रम को पिरोने की कोशिश की जाती है. जिस तरह का कथानक वेब सीरीज दिखा रही हैं, उसकी पृष्ठभूमि मुख्यधारा मीडिया यानी अखबारों और न्यूज़ चैनलों ने तैयार की.
उदाहरण के लिए देश के किसी क्षेत्र में एक महिला को सरेआम मारा गया. बीफ खिलाया गया और उसका कन्वर्जन करवा दिया गया. इसका वीडियो भी सोशल मीडिया में सामने आया. आरोपी मुसलमान है इसलिए मीडिया ने इस खबर पर वैसी प्रतिक्रिया नहीं दी जैसी वो तब देता अगर आरोपी हिन्दू होता. फिर भी घटना हुई है और उसे दिखाना है, इसलिए मीडिया बताएगा कि एक आदिवासी महिला को सरेआम गांव के बीच में पीटा गया. इस तरह पीड़ित महिला की पहचान तो जाहिर कर दी गई, लेकिन उसे पीटने वालों की पहचान छिपा ली गई. इस खबर के आगे-पीछे कुछ ऐसी टिप्पणियां जोड़ दी जाएंगी, जिससे देखने वाले को लगे कि यह जातीय हिंसा का मामला है और जरूर तथाकथित अगड़ी जातियां इसके लिए दोषी होंगी. ऐसी खबर समाज में एक तरह का टकराव पैदा करेगी. इसी तरह से यह नैरेटिव बनाया गया है, देश में भीड़ की हिंसा केवल मुसलमानों के खिलाफ हो रही है और हमलावर हिन्दू हैं. कोई मुसलमान कभी किसी हिन्दू को नहीं सताता. वो बुरी तरह डरा हुआ है और इस देश में घुट-घुटकर जी रहा है. जबकि हिन्दू भीड़ की शक्ल में घूम-घूमकर जगह-जगह मुसलमानों की जान ले रहे हैं. यहां तक कि खेल के मैदान में भी वो मुसलमानों की बेरहमी के साथ हत्या कर रहे हैं.
मुख्यधारा मीडिया के बोए इसी ज़हर की फसल को अब नेटफ्लिक्स और प्राइम वीडियो काट रहे हैं. जिस तरह से समाचारों में तथ्यों को छिपाकर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश होती है, ठीक उसी तरह की कोशिश वेब सीरीजों के निर्माता करते हैं.
‘द फेमिलीमैन’ में करीम नाम के एक छात्र को दिखाया गया है जो कॉलेज के हॉस्टल में रहता है. वह एक कार्यक्रम में आए हिन्दू मेहमानों को धोखे से बीफ खिलाने की साजिश रचता है. लेकिन इसे उकसाने की कोशिश के बजाय ‘सत्याग्रह’ की तरह दिखाया गया. उनके लिए हिन्दुओं की धार्मिक संवेदनाओं का कोई मतलब नहीं है. हो सकता है इस वेबसीरीज से यह तरीका सीखकर कट्टरपंथी सोच रखने वाले कुछ लोग हिन्दुओं को धोखे से गोमांस खिलाने की कोशिश करें. इस दुस्साहस के क्या परिणाम हो सकते हैं क्या कोई इसकी कल्पना कर सकता है? इसके कारण कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी तो किसका उत्तरदायित्व होगा?
करीम नाम का यह लड़का पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी सरगनाओं से फोन पर बात करता है. पुलिस की गाड़ी उसे रोकती है तो वो भागने लगता है. उसका एक साथी पुलिस पर गोली चलाने लगता है. जवाबी गोलीबारी में सभी मारे जाते हैं. लेकिन वेब सीरीज ने इसे भी ‘मुसलमानों पर अत्याचार’ मानते हुए दिखाया है. इस मुठभेड़ के बाद सभी सुरक्षा अधिकारी आत्मग्लानि में डूब जाते हैं. उन्हें लगता है कि उनसे गलती हो गई. पूरी कहानी ऐसे बुनी गई है कि देखकर आपको यही लगेगा कि एनआईए जैसी खुफिया एजेंसियां आतंकवादी हमलों को रोकने में नाकाम हैं. वो सिर्फ बेकसूर मुसलमानों को मार रही हैं. वेब सीरीज में आतंकवादी हमलों पर भारतीय मुसलमानों के जश्न मनाने को सही बताया गया है.
वेब सीरीज़ राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ ही नहीं, हमारे पारिवारिक और सामाजिक ढांचे पर भी हमला करती है. फेमिलीमैन में दिखाया गया है कि स्कूल जाने वाली लड़की अपने पिता के सामने गर्भनिरोधक गोलियां लेती है और जब वो स्कूल में पकड़ी जाती है तो उसके पिता उसे सही ठहराते हैं. कहते हैं कि इसमें क्या बड़ी बात है. ये कोई ड्रग्स तो है नहीं. बेटी अपने पिता के आगे गालियां देती है और पिता भी सहज रूप से बेटी के आगे गालियां देते रहते हैं. इसी तरह ‘सेक्रेड गेम्स’ में गुरु-शिष्य के संबंधों को घिनौने तरीके से दिखाया है. इसमें उपनिषदों के महावाक्य ‘अहं ब्रम्हास्मि’ को कलंकित करने की कोशिश की गई है.
यह प्रश्न मन में आता है कि ऐसी वेब सीरीज़ के पीछे किन लोगों का दिमाग है. ध्यान से देखें तो पाएंगे कि घृणा का ये पूरा उद्योग घोषित तौर पर वामपंथी और कांग्रेसी सोच वाले फिल्मकार चला रहे हैं. जिस तरह से इन वेब सीरीज़ में भारत सरकार और सुरक्षा एजेंसियों तक को खलनायक बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है और दूसरी तरफ आतंकवादियों का महिमामंडन, पाकिस्तान के रुख को सही ठहराना और वहां की सेना को एक जिम्मेदार सेना की तरह दिखाया जा रहा है यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि वेब सीरीज़ की इन कहानियों के पीछे कुछ बड़ा षड्यंत्र है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सुरक्षा एजेंसियों की नज़र इस नए तरह के खतरे की तरफ जरूर होगी और जल्द ही इस षड्यंत्र की पूरी सच्चाई जनता के सामने आ जाएगी.