हरिद्वार (मीडिया सेंटर). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परम पूज्य सरसंघचालक मोहन जी राव भागवत ने कहा कि हिन्दू धर्म, संस्कृति और समाज का संरक्षण होना चाहिये. तीनों का एक दूसरे से बहुत गहरा संबंध है. धर्म के संरक्षण से संस्कृति मजबूत होती है और जब संस्कृति सुरक्षित रहती है तो समाज भी अक्षुण्ण बना रहता है.
सरसंघचालक जी 27 नवंबर को कनखल स्थित जगद्गुरू आश्रम में ब्रह्मलीन स्वामी प्रकाशानन्द जी के मूर्ति अनावरण कार्यक्रम के बाद उपस्थित जनसमूह को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कहा कि जैसे कानून से कभी परिवार को एकजुट नहीं रखा जा सकता, उसी प्रकार संस्कृति की रक्षा कभी कानून से नहीं की जा सकती है. अनालरण समारोह का शुभारंभ आश्रम के ऋषिकुमारों के मंगलाचारण से हुआ.
उन्होंने कहा कि संस्कृति की रक्षा के लिये धर्म की रक्षा जरूरी है. जब धर्म रहेगा तो संस्कृति रहेगी और संस्कृति से ही समाज की रक्षा होगी. उन्होंने कहा कि भारत के संतों ने हमेशा ऐसे ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया जिससे संपूर्ण समाज को अपने धर्म का ज्ञान होता था. उस ज्ञान से वह अपनी संस्कृति का महत्व समझता था और उसे संरक्षित करने का प्रयत्न करता था. उन्होंने कहा कि एक दौर ऐसा आया जब धर्म का संबंध संस्कृति से कम होता गया और समाज से कटता गया. आद्य शंकराचार्य से तर्क करने वाला हमारा भाई हमसे दूर होता गया, उसका भरोसा हमसे टूटा. आज यह गंभीर चिंता का विषय है.
उन्होंने कहा कि हमारे दर्शन में अर्थ और काम पर भी चिंतन हुआ लेकिन हम एक कदम आगे मोक्ष तक चले गये. स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हिन्दू पर्वत के उस शीर्ष पर पहुंच गया जहां से वह नीचे के सभी मार्गों को देख सकता है इसलिये उसे ज्ञान है कि उस ऊंचाई पर आने वालों का एक यही रास्ता सही है, जिसको सिर्फ चलने वाले दिखाई दे रहे हैं. उन्हें लगता है कि सिर्फ उनका ही रास्ता सही है और अन्य का गलत. इसलिये हमारे यहां कहा जाता है कि संस्कारों का विश्लेषण ज्ञान के प्रकाश में ही हो सकता है. इसलिये आज संतो की बहुत आवश्यकता है.
उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति या समाज संतो के सतत संपर्क में रहता है तो वह सही रास्ते पर चलता है. इसलिये संतों को मर्यादा में रहकर अधिकाधिक संपर्क कर समाज को दिशा देनी चाहिये. इस देश की रक्षक गंगा, गीता और गायत्री हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है. हमें सुजल, सुफल, मलयज, शीतल मातृभूमि मिली है, इसका धर्म, संस्कृति और समाज जब तक सुरक्षित है तब तक ही भारत भी सुरक्षित है. राजतंत्र हो या प्रजातंत्र, समाज का दबाव ही सही कार्य करने की प्रेरणा देता आया है. परम पूज्यनीय सरसंघचालक ने कहा कि अब समय चक्र ने अपनी गति बदल ली है. हिन्दुस्थान का परम् वैभवशाली व जगद्गुरू बनना तय है. अब सनातन धर्म के उत्थान की बारी है और हमें अब पराजय नहीं देखना होगी. हमें अब धर्म, संस्कृति और समाज के साथ चलना होगा.
समारोह को संबोधित करते हुए परमार्थ आश्रम के परमाध्यक्ष व पूर्व गृहराज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानन्द ने कहा कि आज हिन्दू समाज अपने आंतरिक बिखराव से पीड़ित है. आज कुछ राष्ट्र विरोधी तत्व गड़बड़ी कर रहे है तो उसका भी कारण हमारे समाज के अन्दर का बिखराव है. उन्होंने कहा कि दुनिया में सिर्फ हिन्दू समाज ही सर्वसमावेशी है. यही वह एकमात्र समाज है जो सबमें खुद को देखता है. हिन्दू समाज जब अपनी विषमताओं को भूलकर एकजुट होगा तो यही स्वामी प्रकाशानन्द को सच्ची श्रद्धांजलि होगी. आज देश में बहुत चौंकाने वाला परिवर्तन हुआ है. यही परिवर्तन अब हमारे संपूर्ण समाज में होना चाहिये. उन्होंने कहा कि संस्कृत भाषा सभी भाषाओं को जोड़ने वाली देवभाषा है. उन्होंने कहा कि स्वामी प्रकाशानन्द की प्रतिमा पाषाण प्रतिमा नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रेरणा की प्रतिमा बने यही कामना है.
समारोह को संबोधित करते हुए विश्व हिन्दू परिषद के अन्तरराष्ट्रीय महामंत्री दिनेश जी ने कहा कि स्वामी प्रकाशानन्द जी से मेरा बहुत पुराना संबंध रहा. उन्होंने 13 साल की उम्र में संन्यास ग्रहण किया और धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में ख्याति पाई. उनके मन में अपने देश और धर्म के लिये गहरी आस्था थी. वे बचपन में ही संघ के संपर्क में आये और शाखा से जुड़े और मुख्य शिक्षक का दायित्व निभाया. स्वामी जी के आश्रम में ही देश के सबसे बड़े धार्मिक आन्दोलन श्रीराम जन्म भूमि मंदिर निर्माण का बीजारोपण हुआ था. यहीं पर हिन्दू जागरण मंच की बैठक हुई थी, जिसमें श्री दाउदयाल खन्ना जी भी उपस्थित थे और बाद में मुजफफ्रनगर में एक हिन्दू सम्मेलन में उस आन्दोलन की विधिवत घोषणा हुई. उन्होंने कहा कि स्वामी जी एक बेहद सरल और सहज व्यक्ति थे और उनके मन में सदैव राष्ट्रवाद हिलोरें मारता था.
समारोह के आयोजक शंकराचार्य राजराजेश्वाराश्रम जी ने कहा कि स्वामी प्रकाशानंद जी की मूर्ति चार साल से तैयार थी, लेकिन उसका अनावरण किसी न किसी कारण से टल रहा था. मोहन जी भागवत ने हमारा अनुरोध स्वीकार कर इसका अनावरण किया. इसके लिये मैं उनका आभारी हूं. जैसा मोहन जी का नाम है वैसा ही इनका व्यक्तित्व है यानी जिसे किसी तरह का मोह न हो वही मोहन है.
संत हरिचेतनानंद महाराज, रवीन्द्र पुरी जी महाराज, सुरेन्द्र नाथ अवधूत, रामानंद जी, महामंडलेश्वर कपिल मुनि व पारमार्थिक न्यास के सचिव रवीन्द्र सिंह भदौरिया आदि ने भी संबोधित किया. कार्यक्रम का संचालन उत्तराखंड संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.महावीर अग्रवाल ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन जगद्गुरू आश्रम के परमाध्यक्ष शंकराचार्य राजराजेश्वराश्रम जी महाराज, क्षेत्र प्रचारक आलोक जी, संयुक्त क्षेत्र प्रचार प्रमुख कृपाशंकर जी, प्रांत कार्यवाह लक्ष्मी प्रसाद जायसवाल, विभाग प्रचारक भुवन जी समेत बड़ी संख्या में गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे.
कौन थे स्वामी प्रकाशानंद जी
प्रकाशानंद जी का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में नंदग्राम में 1905 में माता कमलादेवी और कमलाकांत गोस्वामी के यहां हुआ. 13 साल की उम्र में माता पिता ने अपने पुत्र प्रकाशानंद को मथुरा भ्रमण पर महामना मदनमोहन मालवीय को सौंप दिया. प्रकाशानंद उनके साथ काशी गये और वहां प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान जगन्नाथ जी के सान्निध्य में संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की. उसी दौरान प्रकाशानंद जी संघ की शाखा से जुड़े और मुख्य शिक्षक का दायित्व निभाया. उन्होंने स्वामी चेतनानंद जी से संन्यास की दीक्षा ली. 1952 में जोशीमठ में दंड धारण किया और दंडी संन्यासी बन गये. इसके बाद उन्हें जगद्गुरु कहा गया. 1952 में हरिद्वार में जगद्गुरू आश्रम की स्थापना की. 1966 में नासिक महाकुंभ में महामंडलेश्वर बनाये गये.