प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जीवन की दो बड़ी विफलताएं – भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947) और भारत-चीन युद्ध (1962) हैं. दोनों बार प्रधानमंत्री नेहरू की कमजोर दूरदर्शिता और विफल कूटनीति की साफ झलक दिखाई देती है. इन युद्धों के बाद बनी परिस्थितियों ने भारतीय सैनिकों को सियाचिन ग्लेशियर के 30 डिग्री से कम तापमान वाले मौसम में तैनाती को मजबूर कर दिया. भारतीय जवानों ने वहां शौर्य, जज्बे और दृढ़ता का शानदार प्रदर्शन किया है.
विभाजन के साथ ही भारत को पश्चिम, उत्तर और उत्तर-पूर्व की सीमाओं से चुनौतियां मिलनी शुरू हो गयी थी. शुरुआत में अधिकतर ध्यान पाकिस्तान की ओर था, चीन के तिब्बत पर एकाधिकार ने जल्दी ही हमारी चिंताएं बढ़ा दीं. सरदार पटेल इस उभरते खतरे पर भारत के रुख को ठोस और सुरक्षित करना चाहते थे. उन्होंने 07 नवंबर, 1950 को प्रधानमंत्री को एक पत्र में लिखा, “चीन सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों के बल पर हमें बहकाने की कोशिश की है……हालांकि हम खुद को चीन का मित्र मानते हैं, चीनी हमें अपना मित्र नहीं मानते.”
प्रधानमंत्री नेहरू के पास विदेश मंत्रालय की भी अतिरिक्त जिम्मेदारी थी. आमतौर पर जवाहरलाल नेहरू उचित नसीहत की ओर विशेष ध्यान नहीं देते थे. ऐसा ही उन्होंने सरदार पटेल के साथ किया और चीन पर अपना एकतरफा भरोसा कायम रखा. इसका नतीजा 1962 का युद्ध था. इस हार से जम्मू-कश्मीर का 37,544 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा चीन के कब्जे में चला गया. साल 1963 में पाकिस्तान ने 5,180 वर्ग किलोमीटर का इलाका भी गैर-कानूनी रूप से चीन को दे दिया. इस तरह अक्साई चिन, मनसार और शाक्सगाम घाटी का कुल 42,735 वर्ग किलोमीटर का इलाका चीन अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर (सीओजेके) कहलाता है.
अब विडम्बना थी कि प्रधानमंत्री नेहरू को कोई सलाह समझ नहीं आती थी, दूसरी ओर वे खुद अपनी समझ के अनुसार भी काम नहीं करते थे. उदाहरण के लिए, उन्होंने 14 मई, 1949 को वी.के. कृष्णा मेनन को एक पत्र लिखा, “कश्मीर का मुद्दा हमारे लिए समस्या बनता जा रहा है. यूएन कमीशन की हमें सहायता नहीं मिल रही है. वास्तव में, उन्होंने हमेशा हमारा हित कमजोर किया है. हमारी उनके साथ लंबी चर्चा हुई है. हम संभवतः उनके हालिया प्रस्तावों को स्वीकार नहीं कर सकते.” (नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, वी.के. कृष्णा मेनन पेपर्स) फिर भी उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ को पक्षकार बनाते हुए कराची समझौता 1949 किया. पाकिस्तान के साथ युद्ध विराम में जम्मू-कश्मीर में 78,114 वर्ग किलोमीटर का इलाका पाकिस्तान के कब्जे में रह गया. मीरपुर, भिम्बर, कोटली, मुजफ्फराबाद, पूंछ (कुछ हिस्सा), नीलम घाटी और गिलगित-बल्तिस्तान को मिलाकर पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर (पीओजेके) कहा जाता है.
जवाहरलाल नेहरू की दोनों व्यक्तिगत कमजोरियों के कारण भारत को दो बार भारी नुकसान उठाना पड़ा. हालांकि कराची समझौते में भारत ने सियाचिन ग्लेशियर पर अपना दावा कायम रखा. जिसमें एनजे 9842 (सालोटोरो पर्वत श्रृंखला) से आगे के इलाके को युद्ध विराम की रेखा माना गया. चीन से युद्ध के बाद इसका सामरिक महत्व बढ़ गया. सियाचिन ग्लेशियर एक त्रिकोणीय आकार में लद्दाख से आगे काराकोरम श्रृंखला में स्थित है. इसके पश्चिम में पीओजेके और उत्तर में सीओजेके स्थित है. इस तरह यह ग्लेशियर दोनों कब्जाई जमीनों को एक-दूसरे से अलग करता है. अगर भारत अपनी सेना वहां से हटा ले तो चीन और पाकिस्तान लेह तक अपनी पकड़ बना सकते हैं. इसलिए सियाचिन भारत की सुरक्षा के लिए अहम है.
वैसे प्रधानमंत्री नेहरू ने खुद इस मुद्दे पर 1964 में ही ध्यान दिया था. उन्होंने कहा, “वर्तमान में, हालाँकि, हमारी प्रमुख चिंता हमारे दोनों पड़ोसी चीन और पाकिस्तान हैं. हमें नहीं पता उनका एक-दूसरे से कैसा गोपनीय समझौता है, अगर ऐसा है तो यह भारत के हित में नहीं होगा.” (लोकसभा डिबेट्स, 15 अप्रैल, 1964) यहां उन्हें यह भी ध्यान रखना था कि उपरोक्त समस्या भी उनके कार्यकाल में पनपी थी. अगर प्रधानमंत्री नेहरू समझदारी से काम लेते तो जम्मू-कश्मीर के सभी इलाके भारत का हिस्सा बने रहते. सियाचिन में भी भारतीय सेना को विपरीत हालातों का सामना नहीं करना पड़ता.
जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद इस मामले में उलझनें पैदा होनी शुरू हो गयी. साल 1971 के आसपास पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को अपने नक्शे में दर्शाना शुरू कर दिया और सियाचिन एवं उसके आसपास के चोटियों पर अपने पर्वतारोहण अभियान भेजना शुरू कर दिए. इसका पता 1977 में कुमायूं रेजिमनेट के कर्नल नरेंद्र कुमार को चला. कर्नल कुमार की मुलाकात कुछ पर्वतारोही जर्मन नागरिकों से हुई थी. उनके पास मिले नक्शों में सियाचिन को पाकिस्तान का हिस्सा बताया गया था.
इस बीच 02 जुलाई, 1972 को इंदिरा गाँधी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला समझौता हुआ. जिसमें कराची समझौते पर दोनों देशों ने स्थिति को बरकरार रखा. पाकिस्तान ने व्यवहारिकता में समझौते की शर्तों को कभी नहीं अपनाया. भुट्टो को हटाकर वहां जिया-उल-हक ने सैन्य शासन लगा दिया. वे बार-बार सियाचिन में घुसपैठ कर, ग्लेशियर को कब्जाने की योजना बनाने लगे. इसलिए भारतीय सेना की नॉर्दन कमांड को समझ आ गया था कि सियाचिन में सेना की तैनाती बेहद जरुरी है. पाकिस्तान के प्रयास को विफल करने के लिए भारत ने ऑपेरशन मेघदूत और ऑपरेशन राजीव नाम से दो अभियान चलाए. दोनों बार पाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा.
भारतीय सेना की सूझबूझ और तुरंत कार्रवाई ने भारत की सियाचिन में मौजूदगी को संभव किया है. वरना यह पाकिस्तान के कब्जे में लगभग चला ही गया था. इस इलाके में पहली बार शांति की कोशिश प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय हुई. उस दौरान जुल्फिकार की बेटी बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनी. उस दौरान दोनों देशों ने सचिव स्तर पर एक समझौते में निश्चित किया कि सियाचिन में 2 जुलाई, 1972 की स्थिति बनी रहेगी. हालांकि इस बार भी पाकिस्तान ने धोखा दिया. दरअसल 1999 का कारगिल युद्ध पाकिस्तान को सियाचिन में मिली हार का बदला लेने के लिए भारत पर थोपा गया था. जिसका जवाब भारतीय सेना ने पाकिस्तान को एक और हार के रूप में दिया.
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 1949 और 1962 की गलतियों का नतीजा 1999 तक कायम रहा. यह आज भी जारी है. साल 1984 से 2018 तक 869 सेना के जवान सियाचिन में बलिदान हो गए. यहां दुश्मन से भी ज्यादा खतरनाक मौसम है. अधिकतर मौतें जलवायु परिस्थितियों और पर्यावरण के कारण हुईं. वहां तैनात जवानों के सैन्य उपकरण और अन्य सामग्री पर सरकार 7,500 करोड़ का खर्चा कर चुकी है. नेहरू-गांधी परिवार ने पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर पर कई स्तर की वार्ताएं और समझौते किये, लेकिन कोई खास नतीजा नहीं निकला.
अगर जवाहरलाल नेहरू पाकिस्तान और चीन अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर पर भारत का दावा बनाये रखते तो सियाचिन में भारतीय सेना को इतना नुकसान नहीं उठाना पड़ता. हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि सेना को मौका मिला और उन्होंने वहां साहस का परिचय दिया. आज सियाचिन भारतीय सेना की उपलब्धियों में से एक है, जिस पर प्रत्येक भारतीय को गर्व है.
देवेश खंडेलवाल