नई दिल्ली. विश्व हिन्दू परिषद के संरक्षक श्री अशोक सिंघल ने गोरक्षेपीठाधीश्वर पूज्य महंत अवेद्यनाथ जी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर अपनी शोक-श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा है कि उनका अभाव परिषद के लिये अपूरणीय क्षति है. उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में कहा, “हम महाराज श्री के मार्गदर्शन से वंचित हो गये, इस कष्ट को मैं व्यक्त नहीं कर सकता. मैं अन्तिम समय में महाराज श्री के दर्शन के लिये मेदान्ता अस्पताल में भी गया. वे इतनी जल्दी चले जायेंगे, ऐसा नहीं सोचता था परन्तु विधाता ही अपना विधान जानते हैं.”
श्री सिंघल ने महाराज श्री को श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन का प्राण बताते हुए कहा कि 1984 में उन्होंने इस आन्दोलन का नेतृत्व संभाला था. सबको साथ लेकर चलने की उनमें विलक्षण प्रतिभा थी. उसी के परिणामस्वरूप श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के साथ सभी सम्प्रदायों, दार्शनिक परम्पराओं के जगद्गुरु आचार्य, आचार्य, श्रीमहंत, महंत, महामण्डलेश्वर एवं अन्य सन्त महापुरुष जुड़ते चले गये. 1989 के प्रयाग महाकुम्भ के अवसर पर जब श्रीराम शिलापूजन कार्यक्रम का निर्णय हो रहा था तो उस समय सारा कुम्भ जन्मभूमि आन्दोलन के साथ जुड़ गया था.
श्री सिंघल ने अपने शोक संदेश में कहा, “ हिन्दू समाज की एकता को बनाये रखने तथा समाज में से छुआछूत जैसी बुराई को मिटाने के कार्य को उन्होंने अपने जीवन का मिशन बना लिया था. उन्हीं के प्रयत्नों से काशी में धर्मसंसद के अवसर पर वे सन्त महापुरुषों को अपने साथ लेकर डोम राजा के घर गये थे. वहाँ प्रसाद ग्रहण किया था. उन्हीं के आग्रह पर डोम राजा धर्मसंसद में पधारे थे. महंत अवैद्यनाथ जी महाराज का छुआछूत जैसी सामाजिक बुराई को दूर करने के लिये किया गया प्रयास सभी सन्तों के लिये अनुकरणीय है.”
विहिप के शीर्षस्थ नेता ने महाराज श्री की अयोध्या में भगवान श्रीराम की जन्मस्थली पर भव्य मन्दिर का निर्माण होता न देख पाने की पीड़ा का स्मरण करते हुए बताया कि अपनी इस पीड़ा की चर्चा उन्होंने स्वयं उनसे की थी. श्री सिंघल ने कहा कि देश में हिन्दुत्व अभिमानी सरकार बने, इसके लिये वे राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रयत्नशील रहे और उनके जीवन काल में ही हिन्दुत्व अभिमानी सरकार स्थापित भी हो गई, इसका सन्तोष उन्हें अवश्य ही रहा होगा.
श्री सिंघल ने संतोष व्यक्त करते हुए कहा कि महाराज श्री की अध्यक्षता में बनी अयोध्या, मथुरा और काशी के पवित्र स्थानों की मुक्ति हेतु बनी ‘धर्मस्थान मुक्ति यज्ञ समिति’ उनकी अंतिम श्वास तक सक्रिय रही. उन्होंने कहा, “ इन तीनों ही स्थानों पर बने मन्दिरों को कभी विदेशी आक्रमणकारियों ने तोड़ा था, इसलिये इन तीनों स्थानों को वापस प्राप्त करके उन पर पुनः भव्य मन्दिर का निर्माण करने से ही गुलामी का कलंक मिट सकेगा और हिन्दू समाज का मस्तक ऊँचा होगा, यह महाराज श्री का स्थिर विचार था. इसीलिये धर्मस्थान मुक्ति यज्ञ समिति बनी थी. निश्चित ही पूज्य महाराज श्री की तपस्या के परिणामस्वरूप अपना देश इन तीनों स्थानों पर भव्य मन्दिरों का निर्माण देख सकेगा.”
गोरक्षपीठ के माध्यम से शिक्षा, चिकित्सा, स्वावलम्बन आदि क्षेत्रों में चल रहे समाजसेवा के कार्यों को सारे देश के लिये उदाहरण बताते हुए उन्होंने कहा कि वे इन्हें सदैव प्रोत्साहित करते रहे. “महाराज श्री ने अपना उत्तराधिकारी भी एक ऐसे व्यक्ति को चुना जो राष्ट्र, हिन्दुत्व और हिन्दू जीवन मूल्यों के प्रति पूर्ण समर्पित है. महाराज श्री कहा करते थे कि गोरक्षपीठ देश, धर्म और संस्कृति के प्रति सदैव समर्पित रही है और भविष्य में भी रहेगी.”