रविंद्र सिंह भड़वाल
धर्मशाला
पत्रकारिता हमेशा लोक का मंगल करने वाली हो, इसलिए पत्रकार जगत ने स्वयं ही अपने लिए मर्यादाओं की कुछ लक्ष्मण रेखाएं खींच रखी हैं. इस आत्म-नियमन को पत्रकारों के लिए निर्मित आचार-संहिता का नाम दिया गया है. हालांकि इस आचार-संहिता का पालन करने को लेकर किसी तरह की कानूनी बंदिश नहीं है, फिर भी पत्रकारिता धर्म का सही से निर्वहन करने हेतु इस संहिता के नियम आदर्श स्थिति प्रदान करते हैं. पत्रकारिता को सही दिशा देने वाले इन नियमों की सीमा में रहकर मीडिया अगर अपने दायित्वों का निर्वहन करे, तो उसी से इसकी विश्वसनीयता भी पुख्ता होती है. पत्रकार को किसी भी पक्ष से जुड़कर नहीं वरन् अपने आप को दोनों पक्षों से पृथक् रखकर समाचार देना चाहिए, ताकि समाचार निष्पक्ष हो.
दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से कई मीडिया समूह अपने निहितार्थों को साधने के लिए इस सिद्धांत का बार-बार मखौल उड़ाते रहे हैं. इन नियमों की उपेक्षा करना इनके लिए एक रिवायत सी बन चुकी है. पेशेवर पत्रकारिता संस्थान होने का दंभ भरने वाला बीबीसी इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ाने वाले संस्थानों में सबसे आगे चला हुआ है. मुस्लिम समुदाय के प्रति अगाध प्रेम रखने वाला बीबीसी समुदाय के प्रति निष्ठा जाहिर करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देता. अपराध की कोई सामान्य सी घटना भी घट जाए, तो यह सामुदायिक रंग देकर उसे हिंदू बनाम मुस्लिम बनाकर मुस्लिमों के मन में नफरत भरने का काम बड़े ही पेशेवर तरीके से करता रहा है. अब जबकि सारी दुनिया कोरोना महामारी के खौफ के साये में जी रही है, तो बेहद जरूरी हो गया था कि पत्रकारिता जगत् लोगों को इस नकारात्मक माहौल से निकालने के लिए सकारात्मकता का प्रसार करता.
दुःखद यह कि इस मानवीय संकट को भी बीबीसी जैसे संस्थानों ने सामुदायिक विभाजन के एक अवसर के रूप में देखना शुरू कर दिया है. आदत से मजूबर बीबीसी ने कोरोना के समय में भी हिंदू-मुसलमान का अपना एजेंडा बदस्तूर जारी रखा है. इसकी बानगी हरियाणा की एक घटना को लेकर इसकी कवरेज के दौरान देखने को मिलती है. इस रिपोर्ट के कुछ अंश इस प्रकार हैं –
हरियाणा के जींद के एक गांव में कुछ लोगों ने अपने पड़ोस में रहने वाले चार मुसलमान भाइयों पर हमला कर दिया. मामला ठाठरथ गांव का था. इस रिपोर्ट के शुरू से लेकर अंत तक बीबीसी ने पूरी घटना को इस तरह से दिखाने की कोशिश की है कि हिंदू समाज मुस्लिमों पर हावी है, वहीं मुसलमान को पीड़ित और बेचारा जैसा दिखाने का प्रयास हुआ. इस प्रकार बीबीसी एक समुदाय विशेष को भड़काने के लिए मुसलमान शब्द का विशेष तौर पर इस्तेमाल करता है.
बीबीसी ने ऐसी ही एक और रिपोर्ट छापी है, जिसके मुख्य अंश इस प्रकार हैं –
तब्लीगी जमात के मरकज से बड़े पैमाने पर वायरस फैलने की खबरें आने के बाद से देश के अलग-अलग हिस्सों से गरीब मुसलमानों को निशाना बनाए जाने की खबरें आ रही हैं. 30 मार्च को दिल्ली के तबलीगी जमात के धार्मिक आयोजन में शामिल लोगों में से 6 लोगों की कोविड-19 से मौत की खबर जैसे ही सामने आई, उसके बाद से फेक न्यूज और अफवाहों का दौर चल पड़ा है. मरकज में हिस्सा लेने वाले 8,000 लोगों की वजह से निश्चित तौर पर वायरस का फैलाव हुआ है, पूरे देश भर में संक्रमण के मामलों में एक बड़ा हिस्सा जमात से सीधे जुड़ा हुआ बताया गया है. दिक्कत ये है कि अब देश के करोड़ों मुसलमानों और मरकज के जमातियों में कई बार लोग अंतर नहीं कर रहे हैं.
इस प्रकार के निराधार अंतर पाठक को समझाकर बीबीसी खुद को मुस्लिमों का एक निष्ठावान सिपाही साबित करने का प्रयास करता है.
जबकि, इसके विपरीत देशभर में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में स्वास्थ्य विभाग की टीमों, पुलिस टीमों पर पथराव, हमले की घटनाओं पर बीबीसी के चुप्पी उसकी निष्पक्षता पर मोहर लगाती है. बीबीसी ने इनमें से इक्का दुक्का घटनाओं को ही प्रकाशित किया है, उसमें भी अपने एजेंडे को शामिल करने का प्रयास किया है. दूसरी ओर कोरोना के खिलाफ जंग में सरकार के प्रयासों को बीबीसी किसी न किसी तरह मिथ्या प्रचारित करने में लगा है.
बीबीसी का यह एकपक्षीय रवैया 1953 में अखिल भारतीय संपादक सम्मेलन द्वारा पारित आचार संहिता के भी खिलाफ है.
बीबीसी के झुकाव की पुष्टि एक अन्य घटना से भी होती है. भारतीय मूल के ब्रिटिश पत्रकार लॉर्ड इन्द्रजीत सिंह ने बीबीसी के साथ 35 साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया. इसकी वजह उन्होंने मीडिया संस्थान की समुदाय विशेष के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता बताई. सिंह बीबीसी रेडियो 4 के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘थॉट फॉर द डे’ को प्रस्तुत करते थे. उन्हें ब्रिटेन में सिक्ख समुदाय की आवाज माना जाता है. लॉर्ड सिंह के मुताबिक, बीबीसी ने उन्हें सिक्ख गुरु तेग बहादुर के बारे में चर्चा करने से रोकने की कोशिश की, जिन्होंने 17वीं शताब्दी में भारत में हिंदुओं को जबरन मुस्लिम बनाये जाने के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. बीबीसी को डर था कि कार्यक्रम से उसके मुस्लिम श्रोता नाराज हो सकते हैं, जबकि उनकी स्क्रिप्ट में इस्लाम की आलोचना जैसा कुछ नहीं था. बीबीसी का यह रवैया उसकी ‘पूर्वाग्रह और असहिष्णुता’ से ग्रस्त मानसिकता दर्शाता है.
उपरोक्त विवरणों से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीबीसी जैसे मीडिया संस्थान पत्रकारिता पेशे के बुनियादी सिद्धांतों से खिलवाड़ करने के साथ-साथ किस कदर सामाजिक विभाजन को भी अंजाम दे रहे हैं. बेशक बीबीसी को भी अन्य मीडिया संस्थानों की भांति अभिव्यक्ति की आजादी है, लेकिन किसी भी स्वतंत्रता का मानक होता है कि अपने विवेक, चिंतन और लोकहित को आधार मानकर उसका सदुपयोग अपने दायित्वों का निर्वहन करने के लिए किया जाए.