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भाग चार, नवसृजन की प्रसव पीड़ा है – ‘कोरोना महामारी’

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नरेंद्र सहगल

छोड़ने होंगे संस्थागत स्वार्थ

सर्वस्वीकृत मंच की आवश्यकता

कोरोना महामारी व्यापक एवं भयंकर रूप धारण कर रही है. बड़े-बड़े पूंजीवादी, साम्यवादी, समाजवादी और तथाकथित सुधारवादी देश इसकी चपेट में आकर कराह रहे हैं. इस जानलेवा त्रासदी में भी कुछ बड़े देश हथियारों के परीक्षण की योजना बना रहे हैं. साम्यवादी चीन पर कोरोना वायरस को बनाने और इसे पूरे विश्व में फैलाने का आरोप लग रहा है. एक प्रकार से यह विश्वयुद्ध छेड़ने जैसा आरोप है.

इस भयंकर महामारी ने संसार के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. अमरीका सहित लगभग 150 देशों ने चीन को कटघरे में खड़ा कर दिया है. उधर, चीन भी अपने शस्त्र भण्डार के बल पर अमरीका और उसके मित्र अथवा समर्थक देशों की किसी भी प्रकार की चुनौती का सामना करने की पुरजोर तैयारियों में जुट गया है. चीन ने पुन:  भारतीय क्षेत्रों में अपनी नजरें गड़ाकर लेह-लद्दाख की सीमा पर सैनिक हस्तक्षेप प्रारंभ करके भारत को भी चुनौती दे दी है.

जरा कल्पना करें कि यदि अनियंत्रित कोरोना महामारी के साथ अनियंत्रित परमाणु युद्ध भी प्रारंभ हो गया तो मानव जाति का क्या बनेगा. अपने राष्ट्रगत अहंकार में डूबे अमरीका, रूस और चीन जैसे देश तो इस सम्भावित विनाश काल मे जलती आग पर तेल छिड़कने का ही काम करेंगे. ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ की कहावत व्यवहार में परिणत होती हुई स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है. किसी भी समय चीन द्वारा छोड़ा गया वर्तमान ‘कोरोना विश्वयुद्ध’ अब परमाणु विश्वयुद्ध में बदल सकता है.

समस्त संसार के अस्तित्व पर खतरा बन चुके इस कथित विनाश काल के समय भारतवर्ष को अपने दैवीय उद्देश्य की पूर्ति के लिए कमर कसनी होगी. अगर विश्वयुद्ध की शुरूआत हुयी तो वह भारत के उत्तरी द्वार पर चीन की सैन्य दस्तक से ही होगी. इन परिस्थितियों में भारत को कोरोना और परमाणु दोनों युद्धों से लड़ते हुए अपने उस वैश्विक कर्तव्य को करना होगा जो सृष्टि निर्माता ने उसे अनादि काल से ही सौंपा हुआ है. अगर मध्य काल की कुछ शताब्दियों को छोड़ दिया जाए तो भारत ने सनातन काल में अपना वैश्विक कर्तव्य निभाया है. पुन: उसी बुनियाद पर खड़ा होकर भारत अब भी अपना दैवीय कर्तव्य निभाएगा.

अब जरा इस पर विचार करें कि क्या भारत और भारतवासी विधाता द्वारा सौंपे गए इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए तैयार हैं. असंख्य जातियों, असंख्य मजहबों, असंख्य पूजा पद्धतियों और असंख्य भाषाओं वाला देश ‘विविधता में एकता’ की अपनी राष्ट्रीय पहचान के आधार पर एकरस हो जाएगा. क्या सनातन भारतीय संस्कृति वह धरातल प्रदान कर सकती है, जिस पर एकजुट खड़े होकर 135 करोड़ भारतवासी पुन: ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ समस्त मानवता का भला और आत्मवत् सर्वभूतेषु ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ सभी प्राणियों में एक ही आत्मा का वास का उद्घोष करें.

आज तो अपने देश में धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न डफलियां बजाई जा रही हैं. संस्थागत अहंकार सातवें आकाश को छू रहा है. दलहित स्वार्थ राष्ट्रहित पर भारी पड़ रहा है. हमारे ही दल एवं संस्थान की शरण में आने से कल्याण होगा. हमारे ही गुरु द्वारा प्रशस्त मार्ग और हमारे ही गुरूमंत्र की साधना से मानवता का कल्याण हो सकता है. एक ओर हम विविधता में एकत्व की बात करते हैं और दूसरी ओर ‘हमारा मार्ग ही अंतिम मार्ग है’ की तोता रटंत से बाज नहीं आते. समन्वय शून्य यह भाव वर्तमान में हमारे राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक सभी क्षेत्रों में व्याप्त है.

भारत को यदि अपना और विश्व का कल्याण करना है तो सर्व समन्वय का धरातल तैयार करना होगा. जब तक हमारी विविधता में एकरसता और सामंजस्य की भावना व्याप्त रही हमारी भारत माता विश्वगुरू के सिंहासन पर शोभायमान रही. जब तक हमारी विविधता आध्यात्म पर आधारित रही, हम संसार के मार्गदर्शक बने रहे. परंतु जब हमारी ही त्रुटियों की वजह से हमारी विविधता भौतिकवाद पर आधारित हो गई, तो हम आपस में लड़ कर अपना सर्वस्व गवां बैठे. परिणाम स्वरूप हम निरंतर 1200 वर्षों तक परतंत्र रहे.

अत: वर्तमान वैश्विक चुनौती को स्वीकार करते हुए हमें अपनी अमर अजर सनातन संस्कृति की ओर लौटना होगा. अन्यथा ना तो भारत का ही कल्याण होगा और ना ही विश्व का. उल्लेखनीय है कि संसार की प्रायः सभी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रचनाएं विफल हो चुकी हैं. भारत की धरती पर प्रदत्त ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ की जीवन शैली ही विश्व को बचा सकती है. धर्म अर्थात नैतिक कर्तव्यों का पालन करते हुए आवश्यकता के अनुसार (आवश्यकता व्यक्तिगत एवं सामाजिक) अर्थ का संग्रह करते हुए सुखी जीवन व्यतीत करें. यही मोक्ष का एकमात्र मार्ग है. यही मार्ग विश्व में स्थाई अमन चैन दे सकता है.

एक और महत्वपूर्ण सच्चाई को समझना भी अत्यंत आवश्यक है. आज भले ही राजनीति का बोलबाल हो परंतु भारत की जनता राजनीतिक दलों एवं नेताओं पर तनिक भी भरोसा नहीं करती. भारतवासी आज भी अपने धर्म गुरूओं, धार्मिक, सांस्कृतिक संस्थानों और संत महात्माओं पर आस्था एवं विश्वास रखते हैं. अधिकांश भारतवासी किसी ना किसी धार्मिक व्यवस्था के साथ जुड़े हैं.

अत: यदि हमारी धार्मिक संस्थाएं एवं धर्मगुरू किसी एक मंच पर एकत्रित हो जाएं और अपनी-अपनी पूजा-पद्धतियों पर चलते हुए राष्ट्र साधना में लग जाएं तो भारत समेत संपूर्ण विश्व का कल्याण हो सकता है. कोरोना से निपटने एवं तत्पचात समाज को सनातन संस्कृति के आधार पर संगठित करने की जिम्मेदारी इन्हीं धार्मिक संगठनों की होगी.

 

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