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भारत के रत्न को भारत रत्न

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सवाल सीधा-सा था, इतनी कठिनाइयों में भी आप शांत स्वर कैसे रखते हैं? आपकी आस्था का आधार? अटल जी अपनी चिर-परिचित शैली में मुझे देखते रहे और फिर हौले से मुस्कराते हुए बोले, आस्था? मेरी आस्था भारत है, और कुछ नहीं. मैं अवाक रह गया. इतनी बड़ी बात कितनी सहजता से कह गये अटल जी.

अटल जी की तुलना सिर्फ अटल जी से ही की जा सकती है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और कवि ऐसे कि हृदय में सागर हिलोरें लेने लगे, वक्ता ऐसे कि मन के तार झंकृत हो उठें, धमनियों में रक्त गर्म हो चले, तो कभी हंसते-हंसते आंख में पानी आ जाये. पंडित नेहरू के बाद शायद वही प्रधानमंत्री हुये, जो अपने हाथ से दर्जनों पत्र लिखने में आनंद महसूस करते थे और प्रायः अंतिम पंक्ति में लिखते थे, ‘आपका स्नेह बना रहे, यही कामना है.’

अटल जी को भारत रत्न मिला, तो यह कहना ज्यादा प्रासंगिक लगता है कि ‘भारत रत्न’ को भारत रत्न मिला. एक अजातशत्रु और सर्वसमावेशी व्यक्तित्व वाले अटल जी को भारत रत्न मिलने में हुआ विलंब भी भारतीय राजनीति के विद्रूप का ही एक आयाम है. फिर भी इस एक घोषणा ने आम जनमानस में जो उल्लास पैदा किया, वही इस बात द्योतक है कि यह अलंकरण सरकार की ओर से कम और सवा अरब लोगों की ओर से ज्यादा मिला. अटल जी पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनन्य सहयोगियों में से थे, और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बहुत प्रिय. राष्ट्रधर्म जैसी पत्रिकाओं को उनकी कलम की धार मिली. हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू, मेरा परिचय और गगन में लहराता है भगवा हमारा, कवितायें तभी लिखी गईं. बाद के वर्षों में उन्होंने हिरोशिमा और मनाली मत जइयो जैसी रचनायें भी लिखीं.

अटल जी की राजनीतिक स्वीकार्यता वस्तुतः स्वीकार्यता का मानक बन गई. गठबंधन धर्म और राजधर्म जैसे शब्द उन्होंने राजनीति में उदारता एवं विश्वसनीयता को कायम करते हुए गढ़े. उनकी संसदीय शैली अपने आप में एक राजनीतिक विद्यालय है. आक्रामकता में भी शालीनता, प्रहारों की तीव्रता में भी संयम तथा हास्य का जीवंत पुट, जो आज कमोबेश संसद से गायब है, उनकी असाधारण शैली के आयाम हैं. वही ऐसे राजपुरुष हैं, जो यदि पंडित नेहरू से भी प्रशंसा ले सके, तो इंदिरा जी की भी उन्होंने दिल खोलकर तारीफ की. वह आपातकाल में जेल गये, तानाशाही का जुल्म झेला, पर बाद में जब सत्ता में आये, तो इंदिरा गांधी के प्रति भाषा में कभी कटुता नहीं दिखाई. मारुति कार की शुरुआत के समय संसद में हुए विवाद के अवसर पर बोला गया उनका वाक्य ‘बेटा कार बनाता है, मां बेकार बनाती है’ काफी कुछ कह जाता है. इसी तरह, शायद कच्छ सत्याग्रह की बात है. वह आंदोलन में जेल गये और फिर रिहा हुये. पत्रकारों ने पूछा, आप तो आंदोलन के लिये गये थे, रिहा कैसे हो गये? अटल जी ने अपनी शैली में जवाब दिया, ‘कैद मांगी थी, रिहाई तो नहीं मांगी थी’, और खिलखिलाकर हंस पड़े. यह एक प्रसिद्ध फिल्मी गीत की पंक्ति थी और इन शब्दों के साथ ही बात खत्म हो गई.

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधी चिंतन में उनकी गहरी श्रद्धा है, इसलिये भाजपा बनाने के बाद उन्होंने गांधीवादी समाजवाद को अपनाया. अपने घनघोर विपक्षी पर भी घनघोर व्यक्तिगत प्रहार के वह कभी पक्षधर नहीं रहे. हम पाञ्चजन्य में सोनिया जी के नेतृत्व में कांग्रेस की आलोचना करते हुए अक्सर तीखी आलोचना करते थे. ऐसे ही एक अंक को देखकर उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से ही फोन किया और कहा, ‘विजय जी, नीतियों और कार्यक्रमों पर चोट करिये, व्यक्तिगत बातों को आक्षेप से बाहर रखिये.’

लाहौर बस यात्रा के समय अटल जी बहुत आशान्वित थे. वह हर कीमत पर, अतिरिक्त मील चलकर भी पाकिस्तान से मैत्री चाहते रहे. लेकिन परवेज मुशर्रफ के धोखे ने उन्हें बहुत पीड़ा दी. कारगिल के शहीदों के सम्मान के प्रति वह बहुत संवेदनशील रहे और उनके शासन में ही पहली बार भारत के शहीद सैनिकों को भावभीनी विदाई दी गई.

सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति, मोबाइल को सस्ता बनाकर घर-घर पहुंचाना, देश के ओर-छोर स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्गों से जोड़ना और हथियारों के मामले में देश को अधिक सैन्य सक्षम बनाना अटल जी की वीरता और विकास केंद्रित नीतियों का ही शानदार परिचय है. वह अंतिम व्यक्ति की गरीबी को दूर करने के लिये हमेशा चिंतित रहे. वह सामाजिक समानता और सौहार्द को लेकर भी काफी संजीदा रहे. एक बार हमने धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे अंक निकाला, जिसके मुखपृष्ठ पर काशी के डोमराजा के साथ संतों, शंकराचार्य और विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक सिंघल का भोजन करते हुए चित्र छपा. अटल जी यह देखकर प्रसन्न हुये और कहा, ऐसी बातों का जितना अधिक प्रचार-प्रसार हो, उतना अच्छा है. ऐसे कार्यक्रम और होने चाहिये, पर मन से होने चाहिए, फोटो-वोटो के लिये नहीं.

 

अटल जी पाञ्चजन्य के प्रथम संपादक तो थे ही, प्रथम पाठक भी रहे हैं. प्रधानमंत्री रहते हुए हमारे अंकों पर उनकी प्रतिक्रियायें मिलतीं थीं. एक बार स्वदेशी पर केंद्रित अंक के आवरण पर भारत माता का द्रोपदी के चीरहरण जैसा चित्र देखकर वह क्रुद्ध हुए, और कहा, हमारे जीते जी ऐसा दृश्यांकन. संयम और शालीनता के बिना पत्रकारिता नहीं हो सकती. वास्तव में, अटल जी को भारत रत्न नहीं मिला, बल्कि भारत के रत्न को भारत रत्न मिला. वह दीर्घायु हों, यह कामना है.

(लेखक तरुण विजय भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)

 

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