नई दिल्ली. अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम और गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति के संयुक्त तत्वावधान में दिनांक 9 और 10 सितम्बर 2017 को दिल्ली में दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसका विषय था – भूमि अधिग्रहण कानून, सिद्धांत एवं व्यवहार : भावी मार्ग (Land Acquisition Laws, Theory and Practice : Way Ahead). 2013 में उचित प्रतिकार का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण पुनर्वास तथा पुनर्व्यवस्थापन में पारदर्शिता अधिनियम (Right To Fair Compensation and Resettlement Act, 2013) को तत्कालीन केंद्र सरकार ने कानून बनाकर उसे 01 जनवरी 2014 से प्रवृत्त कर दिया. उसके पहले 120 वर्षों तक अंग्रेजों द्वारा निर्मित भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 देश में भूमि अधिग्रहण की गतिविधि को नियंत्रित करता रहा. पुराना कानून अनेक पहलुओं में न्यायपूर्ण नहीं था और विस्थापित होने वाले प्रभावित व्यक्तियों और परिवारों के प्रति अपेक्षित सवेदनशीलता नहीं रखता था. अतः अनेक वर्षों के गहन विमर्श के उपरान्त 2013 में नया भूमि अधिग्रहण कानून अस्तित्व में आया जो अनेक कल्याणकारी प्रावधानों को समाहित किया हुआ है. 2013 के अधिनियम में जहाँ एक और प्रस्तावित परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण प्रस्तावित करने के पूर्व परियोजना से होने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव के आंकलन करने का प्रावधान किया गया तो दूसरी तरफ विशेष मामलों में प्रभावित व्यक्तियों की सहमति, उचित मुआवजा, पुनर्स्थापना, पुनर्व्यवस्थापन तथा भूमि का उपयोग ना होने पर वापसी जैसे भूमि मालिकों के लिए कल्याणकारी प्रावधान भी किए गए.
लेकिन 2013 का कानून पारित होने के शीघ्र बाद से ही यह बात ध्यान में आने लगी कि सरकारें नए कानून के कल्याणकारी प्रावधानों को अमल में लाने के लिये अनिच्छुक हैं. पहले केंद्र की सरकार ने अध्यादेश लाकर ऐसे प्रावधानों को लागू करने से बचने का रास्ता निकालने की कोशिश की और उसके बाद यह देखने में आया कि अलग-अलग राज्यों की सरकारों ने विभिन्न नियमों, संशोधन अधिनियम या अधिनियम के माध्यम से कल्याणकारी प्रावधानों, विशेष रूप से सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव (अपघात) के आंकलन को लागू ना करने के उपाय किये.
राज्य सरकारों द्वारा 2013 के अधिनियम के कल्याणकारी प्रावधानों को निष्प्रभावी बनाने के उपायों से वनवासी कल्याण आश्रम जैसे ग्राम्य और वन क्षेत्र में सक्रिय सामाजिक संगठन का चिंतित होना स्वाभाविक था और इस चिंता को सकारात्मक दिशा देकर समाधान ढूंढने के लिए दो दिवसीय विमर्श का आयोजन किया गया. अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित विमर्श को सार्थक बनाने के लिए देश भर से सामाजिक परिवर्तन के लिये कार्य कर रहे स्वयंसेवी संगठनों, व्यक्तियों और विधि क्षेत्र में भू अधिग्रहण कानून की जानकारी रखने वाले विधि विशेषज्ञों को आमंत्रित किया गया. विषय की गंभीरता सबको ज्ञात थी, अतः यह स्वाभाविक था कि देश के प्रमुख राज्यों से प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए, जिसमें बड़ी संख्या में अधिवक्ता भी थे.
09 सितम्बर को दो दिवसीय विमर्श का प्रारंभ वनवासी कल्याण आश्रम के अखिल भारतीय अध्यक्ष जगदेव राम उरांव जी ने दीप प्रज्ज्वलित कर किया. अतिथियों और प्रतिनिधियों के परिचय के उपरान्त वनवासी कल्याण आश्रम के जन-जाति हित रक्षा आयाम के अखिल भारतीय संयोजक गिरीश कुबेर जी ने विमर्श की विषय वस्तु और विमर्श के प्रयोजन का खाका उपस्थित जनों के सामने रखा और प्रतिनिधियों तथा विशेषज्ञों से अपनी सक्रिय वैचारिक सहभागिता का आग्रह किया. दो दिवसीय विमर्श में प्रतिनिधियों ने 2013 के सामाजिक अपघात आंकलन, अधिसूचित क्षेत्र में भूमि अधिग्रहण, विशिष्ट मामलों में सहमति, 1894 के कानून के तहत अधिग्रहित 5 वर्ष से अधिक पुराने मामलों का मुआवजा भुगतान ना होने पर अधिग्रहण समाप्त माना जाना, मुआवजा हेतु गुणक और उचित मुआवजा, विस्थापितों की पुनर्स्थापना और पुनर्व्यवस्थापन तथा इस हेतु विभिन्न स्तरों पर निगरानी समितियों का गठन और उनके कार्य, प्रावधानों के उल्लंघन पर दंड का प्रावधान इत्यादि बिंदु और इन बिन्दुओं को निष्प्रभावी बनाने के विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों पर विचार किया गया.
गहन विमर्श के बाद इस निष्कर्ष पर सभी सहमत थे कि विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा 2013 के अधिनियम के कल्याणकारी प्रावधानों के प्रति घोर विरोधी रवैया और उनसे बचने के लिए अपनाए गए विधिक हथकंडे वनवासी और कृषक समुदाय के लिए शुभ लक्षण नहीं है. तमिलनाडु, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों द्वारा 2013 के अधिनियम के प्रावधानों को पूरी तरह निष्प्रभावी बनाने का प्रयास गहरी चिंता का विषय है. अतः विमर्श उपरान्त यह सहमति बनी कि निश्चित किये गए बिन्दुओं पर विभिन्न प्रतिनिधियों द्वारा अपने स्थान पर अध्ययन समूह बनाकर अपने तथा अन्य राज्यों की सरकारों द्वारा बनाए गए विपरीत कानूनों का गहन अध्ययन और शोध करने के उपरान्त ऐसे प्रतिवेदन तैयार करना जो राज्य सरकारों के बनाए कानूनों के दोषों को उजागर कर सके. तत्पश्चात ऐसे प्रतिवेदन राज्य सरकारों के सामने रखकर उन्हें विपरीत कानूनों को वापस लेने के लिए बाध्य किया जाए. इस हेतु आवश्यकता पड़ने पर केंद्र सरकार को भी प्रतिवेदित किया जाए और अंतिम उपाय के रूप में न्यायालय का दरवाजा खटखटाने पर भी सहमति बनी.