भारत में राष्ट्रभाव का आधार राष्ट्रीयता, भारतीयता और हिन्दुत्व जैसे शाष्वत् गुणों से भरा हुआ है. इसकी सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक जीवन-शैली निम्न पंक्तियों की धारा में समरसता, समानता और समता की मिठास से सराबोर है:-
संस्कृति सबकी एक चिरतंन, खून रगों में हिन्दू है.
विशाल सागर समाज अपना, हम सब इसके बिन्दू हैं..
भारत में सदैव संस्कृति का साम्राज्य रहा है. राजनैतिक साम्राज्यों की उथल-पुथल, परकियों के अत्याचार तथा विभेदक प्रवृत्तियों के कारण कभी-कभी समाज में निराशा का भाव अवश्य उत्पन्न हुआ परन्तु महात्माओं, चिंतकों एवं समाज-सुधारकों के अथक व अनवरत प्रयासों ने आशा, उत्साह के द्वारा समाज-जागरण तथा सामाजिक-चेतना को सदा प्रज्जवलित रखा.
सम्राट विक्रमादित्य, छत्रपति शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के शौर्य ने समाज के प्रति सामाजिकता को कोटि-कोटि हृदयों में प्रचंड रखा. फिर भी मुगल आक्रांताओं तथा अंग्रेजी शासकों के कुटिल प्रयासों से राष्ट्रभाव इसलिये कमजोर दिखाई दिया कि सामाजिक स्वरूप पर मानवीय संवेदनाओं का दुष्प्रभाव तो पड़ता ही है.
इसके साथ-साथ गौरवशाली परम्पराओं ने भी अपनी राह को नहीं छोड़ा. विद्वता और वैज्ञानिकता से लगातार समाज में उत्थान व प्रगति के भाव का संक्रमण सदा होता रहा. चाणक्य व सुश्रुत के संगम से समाज में चेतना और गौरव के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवता के उत्थान का मार्ग सहज होता गया.
परन्तु यह दुर्भाग्य अथवा अतिश्योक्तिपूर्ण हो सकता है कि लगभग 100 वर्ष के स्वातंत्र्य संग्राम की बलिदानी परम्पराओं के पष्चात जो स्वातंत्र्य प्राप्त हुआ वह इससे पहले की कुटिलताओं से कहीं अधिक कुटिल था. स्वामी विवेकानन्द और क्रांति के शिरोमणि भगत सिंह के सपनों का भारत उस कुटिलता की कंटीली झाडि़यों में उलझकर रह गया. लेकिन निराशा के वातावरण में भी आशा का भाव जगाने वाली ज्योति तो आजादी से पूर्व ही जल चुकी थी ताकि जिन कारणों से हम सदियों तक पराधीन रहे, स्वाधीन होने के बाद वे कारण हमारी आशाओं को अंधेरे में ना धकेल सकें.
स्वतंत्रता आंदोलन की धारा में से ही एक धारा निकली और राष्ट्र-चिंतन की इस उज्जवल धारा ने जहां एक ओर माथे के कलंक का विध्वंस कर श्री राम जन्मभूमि को मुक्त कराया वहीं दूसरी ओर 800 वर्ष के बाद हिन्दुभाव का पोषण कर राष्ट्रीयता के भाव को पल्ललित करने वाली समर्थ सरकार को राष्ट्र की बागडोर सौंप दी. राष्ट्रीय शक्तियों के प्रचंड रूप ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भाव को भी जागृत किया.
परन्तु जैसा कि इतिहास में होता रहा है प्रतिवर्ष यह मकर-सक्रान्ति का पर्व आता है और समाज को नये उत्साह से उसके दायित्व का बोध कराता है. कभी हिन्दुत्व के पुरोधा स्वामी विवेकानन्द इस दिन जन्म लेकर भारत माँ को गौरान्वित करते हैं तो कभी सम्पूर्ण समाज की समस्त बुराइयों से मुक्ति दिला कर समता, समानता व समरसता के भाव को जागृत करते हैं प्रकाशपुंज सूर्य देवता. आओ हम सब इस संक्रमण की बेला में निम्न काव्यांश को अपना लक्ष्य बनायें,
हिन्दु जगे तो विश्व जगेगा, मानव का विश्वास जगेगा.
भेद-भावना तमस हटेगा, समरसता अमृत बरसेगा..