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सूर्य की भांति हमारा राष्ट्र स्थिर, अमर एवं चिरंतन है – डॉ. मोहन भागवत जी

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कट्टर हिन्दुत्व यानि कट्टर सत्यनिष्ठा, कट्टर अहिंसा, कट्टर अस्तेय, कट्टर ब्रह्मचर्य, कट्टर अपरिग्रह, कट्टरता उदारता के लिये

मेरठ (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि संपूर्ण दुनिया 2000 वर्षों तक अनेक प्रकार के प्रयोग करके थुक चुकी है. भौतिक संसाधनों के विकास से सुविधाएं तो प्राप्त हुईं, लेकिन जीवन में सुःख, समाधान व शांति प्राप्त नहीं हुए. विश्व में कलह नहीं मिटी, दुःख दूर नहीं हुए. विश्व में आज भी हिंसा वैसी ही चल रही है. और इसीलिये विश्व सोचता है कि भारत के पास एक ऐसा रास्ता है जो समस्त सुःख दे सकता है, शरीर, मन, बुद्धि के साथ-साथ आत्मा का भी सुःख दे सकता है. ये व्यक्ति को सुखी करते समय समाज को भी सुःखी करता है, सृष्टि को भी सुःखपूर्वक चलाता है और सारी समष्टि को परमात्मा की ओर बढ़ाता है.

उन्होंने कहा कि सबको जोड़ने वाले, सबको ऊपर उठाने वाले, सबमें संतुलन बिठाने वाले, सबमें समन्वय उत्पन्न करने वाले धर्म की आवश्यकता विश्व को प्रतीत हो रही है. सृष्टि के जीवन की धारणा करने वाला धर्म समस्त दुनिया को देने के लिये भारत को तैयार रहना है. दुनिया को मार्ग दिखाने वाला भारत खड़ा हो, उसके लिये भारत का सारा समाज एकजुट हो. इसमें बाधा लाने वाले लोग हैं, शक्तियां हैं, उनके षड्यंत्रों, छल कपटों के बावजूद हम सबको एक होना है. और यह उद्यम करना है. सरसंघचालक जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मेरठ प्रांत द्वारा 25 फरवरी (रविवार) को आयोजित राष्ट्रोदय – स्वयंसेवक समागम में उपस्थित लाखों स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे थे.

डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि इस कार्यक्रम का नाम रखा गया है – राष्ट्रोदय. राष्ट्र के उदय-अस्त दुनिया में होते रहे हैं. प्रत्येक राष्ट्र का एक जीवन प्रयोजन होता है, उस प्रयोजन को लेकर राष्ट्र का जन्म होता है. और जब उस प्रयोजन की आवश्यकता समाप्त होती है तो उस राष्ट्र का विलय हो जाता है. जैसे रोम अस्तित्व में आया शक्ति का आदर्श रखने के लिये, यूनान अस्तित्व में आया सुंदरता और फ्रांस अप्रितम कला का आदर्श रखने के लिए अस्तित्व में आया. जैसे सूर्य कभी अस्त नहीं होता, महज़ पृथ्वी के घूमने से हमें सिर्फ ऐसा अनुभव मात्र होता है, सूर्य तो अपने स्थान पर स्थिर है, निरन्तर व नित्य है. ऐसा हमारा राष्ट्र स्थिर राष्ट्र, अमर राष्ट्र, चिरंतन राष्ट्र है. उसके उदय-अस्त का प्रश्न नहीं है, हमको अपनी राष्ट्रीयता की ओर उन्मुख होना है.

उन्होंने कहा कि हम हिन्दू हैं, हमारे पूर्वजों ने एक सत्य को प्राप्त किया, दुनिया में अन्य किसी ने उसे प्राप्त नहीं किया. ऋषि-मुनियों ने अंतर्मुख होकर अध्यात्म का अनुशीलन किया, और संपूर्ण सृष्टि के अस्तित्व का कारण, समस्त सृष्टि के शाश्वत-चिरंतन सुःख का निदान, जो संपूर्ण सत्य है, उसका अनुभव हमारे मुनियों ने कर लिया, उस तक हम पहुंच गए. वो सत्य है – संपूर्ण अस्तित्व एक है. अपने भौतिक ज्ञान से हमें भाषा, रहन-सहन, पूजा पद्धति, रीति रिवाज, संपन्नता की स्थिति के रूप में विविध प्रतीत होता है, सृष्टि का हर पदार्थ अलग रंग-रूप लेकर हमारे सामने आता है. लेकिन वास्तविकता में सबकुछ एक है.

हम केवल विविधता में एकता देखने वाले नहीं हैं, हम एकता की विविधता को भी पहचानते हैं और इसलिये सारी विविधताओं का सम्मान करते हैं. इसलिए विविधताओं का उत्सव मनाते हैं और सबको अपना मानकर, वसुधैव कुटुंबकम का मंत्र लेकर चलने वाले हम लोग हैं. सत्य की प्रतीती में जीवन बिताते हैं. भोग का पीछा करने में जीवन बिताना, ये पशु प्रवृत्ति हम मानते हैं. हम त्याग और संयमपूर्वक जीवन बिताते हैं.

उन्होंने कहा कि विविधता में एकता, सत्य का सतत् प्रणीधान, त्याग, सेवा, संयम, परोपकार, कृत्ज्ञता, ये किसी एक पूजा के मूल्य नहीं हैं. किसी एक पंथ संप्रदाय के मूल्य नहीं हैं. भारत से निकले समस्त संप्रदायों के मूल में समान मूल्य हैं, दर्शन अलग-अलग हैं. सत्य का वर्णन अलग-अलग है, उपासना, साधना अलग है. लेकिन सामान्य आदमी को धार्मिक आचरण का जो उपदेश किया जाता है वो तो समान है. सबका प्रारंभ बिन्दु, प्रस्थान बिन्दु और परिणाम बिन्दु एक ही है. ये वैश्विक सत्य है. इसमें विश्व के कोने-कोने से आए संप्रदायों को भी समाया जा सकता है.

उन्होंने कहा कि कट्टर हिन्दुत्व क्या होता है, कट्टर हिन्दुत्व यानि कट्टर सत्यनिष्ठा, कट्टर अहिंसा, कट्टर अस्तेय, कट्टर ब्रह्मचर्य, कट्टर अपरिग्रह, कट्टरता उदारता के लिये. लेकिन दुनिया का एक व्यवहारिक नियम है कि दुनिया अच्छी बातों को भी तभी मानती है, जब उसके पीछे कोई शक्ति खड़ी हो. दुर्बल की कोई नहीं सुनता, जैस बलि भी घोड़े, हाथी या बाघ की नहीं, बकरे की दी जाती है.

उन्होंने कहा कि हमारी कुटुंब पद्धति में पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कार देने के कारण 8000 वर्ष पूर्व भगवान राम जिस संस्कृति में जीते थे, उस संस्कृति का जीवन चित्र आज भी भारत वासियों में आकर कोई देख सकता है. वह संस्कृति जीवंत है, अमर है. वो संस्कृति हमारे पास है, हमें आत्मावलोकन करना पड़ेगा. जो स्वयं का सम्मान नहीं करता, स्वयं के गौरव को नहीं जानता वो उन्नति कैसे करेगा. समय-समय पर हमने (हमारे पूर्वजों ने) विश्व को धर्म का मार्ग दिखाया है. उन पूर्वजों का रक्त हमारी नसों में बहता है. इसलिए गर्व से कहो हम हिन्दू हैं, और हम हिन्दू हैं इसलिए एक हैं. क्योंकि दुनिया में कहीं संप्रदाय अलग है तो एकता नहीं मानी जाती, दुनिया मानती है कि एकता होने के लिए एकशः (एक समान) होना आवश्यक है. अकेला हमारा देश है जो एकता में विविधताओं को मानता है.

उन्होंने कहा कि बातें करना आसान है, प्रत्यक्ष काम करने के लिये सामूहिकता चाहिए, सामाजिकता चाहिए. समरसता से आचरण का स्वभाव आदत से बनता है, अनुशासन सीखना पड़ता है, उसके लिये रोज तपस्या करनी पड़ती है, साधना करनी पड़ती है. उसी साधना का नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. संघ की नित लगने वाली शाखा में कैसे-कैसे कर्तृत्व संपन्न, संपूर्ण समाज को अपना मानने वाले, बैर भाव न रखने वाले, देश के हित में जो करना है वो बिना किसी हिचक के करने वाले लोग निकलते हैं. ये बताने की आवश्यकता नहीं, संघ के स्वयंसेवक चारों ओर अनेक काम कर रहे हैं, अपनी चमड़ी, अपनी  दमड़ी खर्च करते हुए, सरकार से बिना सहायता लिए, समाज के सहयोग से सुदूर क्षेत्रों में 1,70000 से अधिक सेवा कार्य कर रहे हैं. जब कभी संकट आता है, संघ के स्वयंसेवक सबसे पहले पहुंच जाते हैं. देश के हित में अपनी सेवाएं देने के लिए और आवश्यक है तो प्राण भी देने के लिये.

 

उन्होंने कहा कि ये कार्यक्रम हम जो करते हैं वो शक्ति का प्रदर्शन करने के लिये नहीं है. शक्ति का हिसाब लगाते हैं हम – कितनी आई, क्योंकि शक्ति के प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं होती. शक्ति होती है तो दिखाई देती है. कार्यक्रम से आंकलन कर अपने कार्य को विस्तार देते हैं, दृढ़ीकरण करते हैं. लेकिन दुनिया का मार्गदर्शन करने वाला भारत केवल एक संगठन के उद्यम से खड़ा होने वाला नहीं है, स्वयंसेवक बनने से नहीं होगा. संपूर्ण समाज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनना होगा. एक बड़ा समूह मिलजुल कर काम करता है तो काम होते हैं, और जो काम सारे समाज का है, वो सारे समाज को मिलजुल कर योग्य बनकर करना होगा. आज के कार्यक्रम में सबसे आह्वान है कि संघ के केवल हितैषी बनकर न रहते हुए, सीधा-सीधा सहयोगी कार्यकर्ता बनिये, संघ की साधना को कीजिए. उस साधना से योग्य बनिये. समाज में काम करने के लिए प्रामाणिकता, निःस्वार्थ बुद्धि लेके तन-मन-धन पूर्वक समाज को जोड़ने के काम में किसी न किसी रूप में सहयोगी कार्यकर्ता बन जाइये.

जैन मुनि विहर्ष सागर जी महाराज ने भारत माता को कालजयी मानवरत्नों को उत्पन्न करने वाला बताया. जगप्रसिद्ध जूना अखाड़े के पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद जी ने कहा कि आज पूरे विश्व की दृष्टि भारत की ओर है. सर्वश्रेष्ठ संस्कृति के लिए हर कोई भारत की शरण में आने के लिए उत्सुक है. हमारी संस्कृति भोग की नहीं, बल्कि संसाधनों के सदुपयोग की है. यहाँ तक कि आज वैज्ञानिक भी हिन्दू धर्म में निहित ज्ञान को श्रेष्ठतम मानने लगे हैं. वास्तव में राष्ट्रोदय समागम का उद्देश्य भारत माता को परमवैभव की ओर ले जाना है.

 

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