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हिंदुस्तानी कला, आचार-विचार को नए संदर्भ व व्याख्या और परिभाषा के साथ उजागर करने वाले

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नई दिल्ली. आनंद कुमार स्वामी ने पश्चिम के सामने हिंदुस्तानी कला ही नहीं, आचार-विचार को नए संदर्भ, नई व्याख्या और परिभाषा के साथ उजागर किया. वे मूल रूप से सिंहली थे. उनका जन्म भी तब के सिलोन और आज के श्रीलंका में हुआ था. उनका परिवार तमिल भाषी था. पिता भी दार्शनिक थे और माता इंग्लिश मूल की थीं.

दो साल की उम्र में पिता के देहांत के बाद उनका लालन-पालन इंग्लैंड में ही हुआ. वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई. उन्होंने हिंदुस्तानी कला के सौंदर्य, साहित्य और भाषा की जानकारी देने के लिए नई सोच को जन्म दिया. कुमार स्वामी का मूल स्वभाव खोजी था. अध्ययन काल में भी वह भू-विज्ञान की तरफ झुके. अपना डॉक्टरेट भी उन्होंने सिलोन (श्रीलंका) के खनिज शास्त्र का वैज्ञानिक सर्वेक्षण से आरंभ किया था. भू-विज्ञान उन्हें कला की समझ की ओर ले गया और अपने देश की परंपरागत कला और शिल्प को समझने की कोशिश उन्हें हिंदुस्तान ले आई.

कला इतिहासकार के रूप में कुमार स्वामी की सबसे बड़ी उपलब्धि एशियन कला को फिर से स्थापित करना रहा. उनकी समझ में यह बात भी आ गई थी कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद का क्षयकारी प्रभाव बहुत ही शोचनीय है. इससे निपटने के लिए 1906 में उन्होंने ‘सिलोन समाज सुधार सोसायटी’ का गठन किया, वही इसके प्रथम अध्यक्ष भी थे. इस सोसायटी की सोच बहुत साफ थी कि ‘विचारहीन और सही ढंग से काम न करने वाले यूरोपीय रीति-रिवाज बेमतलब हैं.’ तब उन्होंने सिलोन के गौरव को फिर से जगाने की बात की. उन्हें यह भी समझ हो गई कि ब्रिटेन की सिलोन और हिंदुस्तान में मौजूदगी सार्वजनिक जीवन को और दरिद्र बनाता है. तेरह साल (1900-1913) तक वह सिलोन, हिंदुस्तान और इंगलैंड के बीच घूमते रहे.

हिंदुस्तान में वह रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्यिक पुनर्जागरण और स्वदेशी आंदोलन से भी जुड़ गए. इसके साथ वे कला और शिल्प के बारे में खोज करने में भी लगे रहे. अब तक उन्हें यह भी समझ हो गई थी कि ‘राजनीति और आर्थिक नीति की अनदेखी नहीं की जा सकती, फिर भी ये बहुत बड़ी समस्या नहीं है.’ कुमार स्वामी के सौंदर्य बोध ने उन्हें ज्ञान दिया कि लोक कला और धार्मिक रचनाएं मनुष्य की अभिव्यक्ति का ही माध्यम हैं. उनकी दिलचस्पी हिंदू मंदिरों के शिल्प तक गई. आनंद की तीन पुस्तकें ‘मध्यकालीन सिंहली कला (1908), भारत और सिलोन शिल्प और कला (1913) और उनका आरंभिक आलेख ‘शिव का नृत्य (1918)’ ने भारतीय कला की समझ के सभी पूर्वाग्रहों को समाप्त कर दिया.’

राजपूत कलम (शैली), बौद्ध प्रतीक चिन्ह पर ही नहीं, बल्कि कला के विभिन्न पक्षों पर वह लगातार काम करते रहे. कुमार स्वामी का दृष्टिकोण था कि परंपरागत कला का दुहरा उपयोग है. पहली उपयोगिता यह है कि वह दैनिक उपयोग की वस्तुएं हैं और दूसरी उपयोगिता है कि वह नैतिक मूल्य को संजो कर रखते हुए आध्यात्मिक शिक्षा को भी प्रचारित करते हैं. उन्होंने कला और शिल्प के अलावा वेदांत और उपनिषद् पर भी काम किया. कला, शिल्प, वेदांत और उपनिषद के ज्ञान ने उन्हें अंतिम समय में संन्यास की ओर प्रेरित किया.

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