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अयोध्या – झूठ पर झूठ बोलकर हमेशा अड़ंगे लगाते रहे वामपंथी

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जो भारत के विरोध में है, वो उसके साथ हैं. वामपंथी बाबर के साथ खड़े हैं. वो काशी विश्वनाथ मंदिर तोड़कर मस्जिद और कृष्ण जन्मभूमि पर मंदिर तोड़कर ईदगाह बनाने वाले औरंगजेब के साथ खड़े हैं, वो स्वयं को गर्व पूर्वक हिन्दू मंदिरों और देवप्रतिमाओं का विध्वंसक कहने वाले टीपू सुलतान के साथ खड़े हैं. इसलिए जब मार्च 2001 में तालिबान ने बामियान में महात्मा बुद्ध की प्रतिमाएं तोडीं, तो वो उन्हें भी बातूनी जिरहबख्तर पहनाने के लिए आ खड़े हुए. लेकिन तालिबान का दुनिया में बहुत विरोध हो रहा था, इसलिए सीधे समर्थन नहीं कर सकते थे, सो राम जन्मभूमि आंदोलन और हिन्दुओं को लपेट लिया और उनकी तुलना तालिबान से कर डाली. वामपंथियों ने कहा कि तालिबान द्वारा वैश्विक धरोहर बामियान बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ने की घटना 6 दिसंबर को बाबरी ढांचा गिराए जाने से भिन्न नहीं है. इस प्रकार अपने आराध्य श्रीराम के जन्मस्थान को विदेशी हमलावर के अवैध कब्जे से मुक्त कराने के लिए साठ सालों से आंदोलन कर रहे हिन्दुओं को उन जिहादी तालिबानियों जैसा बता दिया जो मज़हबी नफरत के आधार पर भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं और अन्य पूजा स्थल तोड़ने, हजारों महिलाओं-बच्चों की हत्याएं करने, स्कूल-संग्रहालय- किताबें जलाने, खून-खराबे के जोर पर महिलाओं को बुर्के में कैद करने और दुनिया में आतंकवाद फैलाने के लिए कुख्यात थे. इस प्रकार मानवता पर धब्बा बन चुके तालिबान की छवि का उपयोग अयोध्या आंदोलन की छवि मलिन करने के लिए किया.

सच के अलावा सब कुछ कहा

इस मानसिकता के बुद्धिजीवियों का हाथ-पैर पटकना स्वाभाविक था, जब राम जन्मभूमि मुक्ति अभियान ने विशाल आंदोलन का रूप ले लिया. सन् 1989 में राममंदिर आंदोलन का प्रभाव गांव-गांव तक पहुंच चुका था. तब जेएनयू के पच्चीस इतिहासकारों ने पैम्पलेट निकाला, जिसका शीर्षक दिया “इतिहास का राजनीतिक दुरुपयोग : बाबरी मस्जिद – रामजन्मभूमि विवाद”. ये इतिहासकार थे – रोमिला थापर, सुवीरा जायसवाल, केएन पनिक्कर, विपिन चंद्र, सर्वपल्ली गोपाल आदि. इस पत्रक में कहा गया था, कि बाबरी ढांचे को राम मंदिर तोड़कर बनाया गया, ऐसा कोई प्रमाण नहीं है. इस पैम्पलेट में साबित करने का प्रयास किया गया कि उत्तरप्रदेश में स्थित अयोध्या रामायण में कही गई अयोध्या है, इसका भी कोई प्रमाण नहीं है. आगे चलकर इन इतिहासकारों ने यह कहना शुरू कर दिया कि अयोध्या में राम पूजा होती ही नहीं थी, यह तो सोलहवीं –सत्रहवीं शताब्दी में शुरू हुआ. इन लोगों को मीडिया पर हावी वामपंथी पत्रकारों ने महान बुद्धिजीवी और इतिहासकार बनाकर पेश करना शुरू किया.

देश-विदेश में मिलने वाले इनाम-इकरार और सुविधाओं के कारण इस वामपंथी बुद्धिजीविता की ठसक ऐसी थी कि सरकारी कर्मचारी की आचार संहिता को किनारे रखकर शेरसिंह नामक बंगाल कैडर के आईएएस अधिकारी ने किताब लिख डाली, यह साबित करने के लिए कि बाबरी ढांचा तो बाबर के आने से पहले ही मौजूद था. बाबर ने कोई मंदिर नहीं तोड़ा. बाबर द्वारा मंदिर तोड़ने की ‘कहानी’ तो 1932 में सीताराम नामक लेखक ने अपनी किताब ‘अयोध्या का इतिहास’ में गढ़ी है. शेरसिंह ने किताब का नाम रखा ‘बाबर : अ सेक्युलर एंपरर’ (बाबर : एक सेक्युलर सम्राट).. इस किताब के लेखन के पुरस्कार के रूप में सउदी अरब सरकार ने शेरसिंह को चालीस लाख अमेरिकी डॉलर का सउदी शाह फैज़ल फाउंडेशन पुरस्कार देने की घोषणा की.

एक के बाद एक अड़ंगे लगाते रहे

ऐसे माहौल में वामपंथी फंतासियों की कतार लंबी होती गई. 18 जून 2002 को परिसर में चल रहे भूमि समतलीकरण के दौरान 39 पुरातात्विक अवशेष मिले. अक्तूबर में 40 पुरातत्वविदों के एक दल ने इनका अध्ययन करके इन्हें 12वीं शताब्दी के मंदिर का अवशेष बताया. लेकिन वामपंथियों ने इन सबूतों को मानने से इनकार कर दिया, कहने लगे कि ये अवशेष किसी पुरातत्वविद ने खोदकर नहीं निकाले, मजदूरों ने निकाले हैं. इन्हें नहीं मानेंगे. ऐसे विचित्र तर्क देकर ये लोग देश का माहौल खराब करते रहे. 06 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा कारसेवकों के आक्रोश में ढह गया. ढांचा टूटने के बाद उसके मलबे में से मंदिर के अन्य प्रमाण निकले तो इन लोगों ने उन प्रमाणों का “कारसेवक अर्कियोलॉजी” कहकर मजाक उड़ाया.

2002 में इलाहबाद उच्च न्यायालय ने जन्मस्थान की खुदाई की जांच का आदेश दिया ताकि हिन्दू पक्ष के दावों की सत्यता की जांच की जा सके. हिन्दू पक्ष ने इस आदेश का स्वागत किया. लेकिन वामपंथी इतिहासकार न्यायालय के इस आदेश का विरोध करने लगे. सुन्नी वक्फ बोर्ड ने भी खुदाई के आदेश का विरोध किया. 05 मार्च 2003 को उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को खुदाई का आदेश दिया. 06 मार्च को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सर्वोच्च न्यायालय से अपील की कि वो उच्च न्यायालय के खुदाई के आदेश को निरस्त कर दे.

09 मार्च को इरफ़ान हबीब, सूरजभान, केएम श्रीमाली आदि ‘सहामेट’ (सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट) नामक संस्था के मंच पर आए और खुदाई का आदेश देने पर उच्च न्यायालय को कोसा. सहामेट वो संस्था है जो न्यूयॉर्क संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के बाहर, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उद्बोधन के समय उनके खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी. नारे लगवा रही थी कि “हल्ला बोल-हल्ला बोल, वाजपेयी पर हल्ला बोल” और “भारत से कट्टरवाद को जाना होगा”. उस समय सहामेट ने संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव कोफी अन्नान को संबोधित करते हुए एक पर्चा भी बांटा, जिसमें लिखा गया था कि – अटल सरकार को मानवता के विरुद्ध किए गए अपराधों के लिए दोषी करार दिया जाए. अटल सरकार ने परमाणु हथियारों की होड़ शुरू कर दी है. अल्पसंख्यकों पर अत्याचार किए जा रहे हैं, आदि.

12 मार्च को इंडियन एक्सप्रेस में इरफ़ान हबीब का साक्षात्कार आया, जिसमें एक बार फिर उच्च न्यायालय को कोसा गया. तर्क था कि “खुदाई से यथास्थिति बनाए रखने के सर्वोच्च न्यायालय के 1994 के आदेश का उल्लंघन होगा”. मजे की बात ये है कि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय को खुदाई के आदेश में अपने आदेश का कोई उल्लंघन नज़र नहीं आया.

झूठ पर झूठ

जब इन लोगों की नहीं चली और खुदाई शुरू हो गई तो ये लोग भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की योग्यता और निष्पक्षता पर सवाल उठाने लगे. जब खुदाई में भूमि के अंदर से मंदिर के अवशेष निकलने लगे तो वामपंथी कहने लगे कि उन्हें कहीं और से लाकर वहां रख दिया गया है. इनके ये सारे आरोप अदालत में औंधे मुंह गिरे.

06 दिसंबर को जब बाबरी ढांचा टूटा तो उसमें से एक शिलालेख निकला. लाल पत्थर का यह शिलालेख पांच फुट लंबा और ढाई फुट चौड़ा था. इस पर नागरी लिपि में संस्कृत से 20 पंक्तियां खुदी हुई थीं. जिनमें बताया गया था कि वहां 12वीं शताब्दी में दशानन का वध करने वाले श्रीराम का भव्य-ऊंचा मंदिर बनाया गया था. नरसिंह राव सरकार ने तत्काल इस शिलालेख की छाप लेकर उसे न्यायालय को सौंप दिया. अब वामपंथी बुद्धिवीर हड़बड़ाए. और फिर कहने लगे कि ये शिलालेख बाबरी ढांचे के मलबे में से नहीं निकला है, बल्कि इसे लखनऊ म्यूजियम से चुराकर यहां रख दिया गया है. लेकिन उनका ये झूठ तत्काल पकड़ा गया, जब लखनऊ म्यूजियम के निदेशक जितेन्द्र कुमार ने बताया कि लखनऊ म्यूजियम का शिलालेख म्यूजियम में ही मौजूद है, और बाबरी ढांचे में से निकले शिलालेख से बिलकुल अलग है. जितेन्द्र कुमार ने म्यूजियम में रखे उस शिलालेख को टीवी पर सारी दुनिया को दिखाकर वामपंथी झूठ का पर्दाफ़ाश कर दिया. दुनिया को इन तथाकथित इतिहासकारों की क्षमता और नीयत का पता चल गया. लेकिन, उन पर कोई असर नहीं हुआ.

झूठ न चले तो धौंस ही सही

दिसंबर 1994 में दिल्ली में विश्व पुरातत्व सम्मेलन होना था. वामपंथी खेमा बेचैन था क्योंकि इस सम्मेलन में 06 दिसंबर को निकले उस लाल पत्थर वाले शिलालेख का जिक्र आना तय ही था. पहले तो वो झूठा प्रचार करते रहे कि आयोजनकर्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं, फिर, अर्जुन सिंह जो उस समय मानव संसाधन मंत्री थे, से अपने संबंधों का इस्तेमाल किया गया, और जब 01 दिसम्बर की रात को डेढ़ बजे विश्व पुरातत्व सम्मेलन के अध्यक्ष जैक गोल्सन ऑस्ट्रेलिया से आने वाले विमान से उतरे तो उन्हें अधिवेशन के महासचिव वीएन मिश्र बदहवास से मिले. वो तनाव में थे. उन्होंने जैक गोल्सन को बताया कि भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने लिखित आश्वासन मांगा है कि सम्मेलन में राम जन्मभूमि के पुरातात्विक साक्ष्यों पर किसी भी प्रकार से चर्चा नहीं की जाएगी, अन्यथा अधिवेशन करना संभव नहीं होगा. गोल्सन सन्न रह गए. जब ये बात सम्मेलन की कार्यकारिणी के सामने रखी गई, जिसके 33 सदस्यों में से 31 विदेशी थे, तो सभी सदस्य आक्रोशित हो उठे, परन्तु न मानने की कोई गुंजाइश नहीं थी. हारकर समिति ने लिखित आश्वासन दे दिया. फिर उन्हें बताया गया कि राष्ट्रपति इस सम्मेलन का उद्घाटन नहीं करेंगे, बल्कि अब अर्जुन सिंह उद्घाटन करेंगे.

फिर मानव संसाधन मंत्री ने सम्मेलन के आयोजकों को बुलाकर निर्देश दिया कि चार (वामपंथी) पुरातत्वविदों इरफ़ान हबीब, आरएस शर्मा, सूरजभान और केएम श्रीमाली को सम्मेलन की विद्वत समिति में शामिल किया जाए. अर्जुन सिंह ने दबाव बनाकर इरफ़ान हबीब और आरएस शर्मा को एक –एक सत्र का अध्यक्ष भी बनवाया. इन दोनों ने मिलकर अंग्रेजों द्वारा गढ़े गए भारत पर “आर्यों के आक्रमण सिद्धांत” को मुद्दा बनाया, लेकिन डॉ. एके शर्मा और डॉ. स्वराज्य प्रकाश गुप्त ने उनके दावों और तर्कों की धज्जियां उड़ा दीं.

फिर ये वामपंथी लॉबी, समिति पर दबाव बनाने में लग गई कि विश्व पुरातत्व सम्मेलन में 6 दिसंबर को हुए बाबरी ढाँचे के विध्वंस का निंदा प्रस्ताव लाया जाए. वामपंथी पत्रकारों ने इसे अखबार में भी छपवा दिया, लेकिन अध्यक्ष प्रोफ़ेसर जैक गोल्सन ने साफ मना कर दिया कि जब हमसे लिखित आश्वासन लिया गया है कि किसी भी रूप में अयोध्या की चर्चा नहीं होगी तो 6 दिसंबर की भी चर्चा नहीं होगी. उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि विश्व पुरातत्व सम्मेलन, पुरातात्विक अध्ययन के लिए है, राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति का अड्डा बनने के लिए नहीं. अंततः वामपंथी लॉबी 06 दिसंबर पर कोई निंदा प्रस्ताव पारित नहीं करवा सकी. लेकिन न्याय प्रक्रिया में अड़ंगे लगाए जाते रहे, तथ्यों को दबाने के षड़यंत्र रचे जाते रहे.

प्रशांत बाजपई

पाञ्चजन्य

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