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तीसरे विकल्प की खोज

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Pandit Deen Dayal Upadhyay jiआर्थिक समृद्धि के पीछे जी-तोड़ भाग रहा विश्व आज एक अभूतपूर्व उलझन में फँसा है. उत्पादन की प्रविधियों में अनेक नये अन्वेषण हुये हैं. प्राकृतिक सम्पत्ति के अनेक स्रोत उपलब्ध हुये हैं. उत्पादन में भी प्रचण्ड वृद्धि हुई है और इस सबके होते हुये भी वह उलझन अभी न केवल बनी हुई है, बल्कि बढ़ती भी जा रही है. अभावग्रस्त लोगों के सम्मुख अपनी समस्यायें तो हैं ही, किन्तु अपार समृद्धि वाले लोगों के सम्मुख भी कई नयी समस्यायें खड़ी हुई है. समृद्ध एवं सुखी जीवन के लिये लालायित मानव आज भ्रांत एवं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है. इस शृंगापत्ति से कैसे मार्ग निकालें, यही एक बड़ा प्रश्न उसके सम्मुख खड़ा है.

इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पूर्व हाल के कुछ दशकों में आर्थिक स्थिति की दृष्टि से किसने कैसा-कैसा विचार किया, कौन-से प्रयोग किये, उनके परिणाम क्या निकले, आदि बातों का सिंहावलोकन करना बोधप्रद होगा. पश्चिमी देशों में आज पूँजीवाद तथा साम्यवाद और समाजवाद की प्रमुख आर्थिक विचारधारायें प्रस्थापित हुई दिखाई देती हैं. पूँजीवाद अपने मूल रूप में अब कहीं अस्तित्व में नहीं है और समाजवाद एवं साम्यवाद के भी अनेक प्रकार हो गये हैं. यह सब यद्यपि सच है, फिर भी इन अर्थव्यवस्थाओं की संकल्पना पर्याप्त मात्रा में वही रही है. एडम स्मिथ, रिकार्डों, मिल, मार्क्स, हाब्सन, बेब्लेन, केन्स, बर्नहम, शूम्पीटर आदि श्रेष्ठ अर्थवैज्ञानिकों ने विगत कुछ काल में अनेक अर्थशास्त्रीय सिद्धांत प्रस्तुत किये हैं. अविकसित देशों की अर्थव्यवस्था पर प्रा. मिर्डाल, प्रा. जेकब विनर, प्रा. जॉन मेलोर आदि अर्थशास्त्रियों का चिंतन भी विचारों को प्रेरणा देने वाला है. तथापि अर्वाचीन काल में विश्व की आर्थिक गतिविधियों पर लार्ड केन्स एवं कार्ल मार्क्स के विचारों का विशेष प्रभाव दिखाई देता है.

उनके अर्थ-चिंतन की ओर दृष्टि डालने पर क्या दिखाई देता है? लार्ड केन्स कहते हैं, “आने वाले कम से कम सौ वर्षों में यदि सच्चाई का कोई उपयोग नहीं है और असत्य ही उपयुक्त है तो हमें चाहिये कि सच को झूठ और झूठ को सच मानें. अधिकाधिक धन प्राप्त करने की भूख, अधिकाधिक लाभ अर्जित करने की स्पर्धा और उसके लिये बरती जाने वाली दक्षता ही आने वाले कुछ समय के लिये हमारे देवता हैं. ये देवता ही हमें आर्थिक आवश्यकताओं की अंधी गली से बाहर निकालकर प्रकाश की ओर ले जायेंगे.”

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लार्ड केस का अर्थशास्त्र पर प्रभुत्व पश्चिमी जगत में सर्वमान्य हो गया है. केन्स ने पूँजावादी अर्थव्यवस्था को बेकारी एवं मंदी जैसी बीच-बीच में उत्पन्न होने वाली भीषण परिस्थिति में से बाहर निकालने का एक क्रांतिकारी मार्ग खोज निकाला. इसे ‘केन्स का अर्थशास्त्र’ की संज्ञा प्राप्त हुई. पूँजीवाद को मानो संजीवनी मिल गयी. पश्चिमी जगत् समृद्धि के शिखर पर पहुंचा दिखाई देने लगा.

किन्तु लार्ड केन्स की आर्थिक संकल्पना से गरूड़-उड़ान भरने वाले राष्ट्रों के विकास ने प्रत्यक्ष में क्या साध्य किया, देखना उपयुक्त होगा. उत्पादन-वृद्धि में प्राण-लेवा स्पर्धा तथा भौतिक सुखभोग की असीम लालसा के कारण अमेरिका धरती की बहुमूल्य खनिज एवं प्राकृतिक सम्पदा का निरंकुश उपभोग करते हुये सारे विश्व के सम्मुख संकट खड़ा कर रहा है. मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी जैसी अग्रणी संस्था ने दिखा दिया है कि अमेरिका की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एवं उत्पादन-प्रणाली उस देश के आर्थिक विकास के लिये विश्व के 42 प्रतिशत एल्यूमीनियम, 44 प्रतिशत कोयला, 33 प्रतिशत तांबा, 28 प्रतिशत लोहा, 63 प्रतिशत प्राकृतिक गैस, 33 प्रतिशत पेट्रोलजन्य पदार्थ, 24 प्रतिशत टिन, 38 प्रतिशत निकिल जैसे पुर्निर्मित न किये जा सकने वाले खनिजों का नाश कर रही है. इस संदर्भ में लक्षणीय बात यह है कि सत्ता और समृद्धि के लालच में इतनी बड़ी मात्रा में प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट करने वाले अमेरिका की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की 5.6 प्रतिशत ही है.

प्राकृतिक सम्पत्ति के निरंकुश उपयोग और उससे उत्पन्न होने वाले भीषण अभाव के प्रश्न के साथ ही यांत्रिकीकरण के कारण पश्चिमी जगत के और अब एशिया के भी- प्रगत राष्ट्रों के सम्मुख बेकारी की समस्या खड़ी हुई है. अमेरिका के साथ ही ब्रिटेन, फ्रांस तथा पश्चिम जर्मनी में भी बेकारी की प्रचण्ड लहर उठी है. पहले के साम्राज्यवाद के दिन अब लद गये. नये-नये बाजारों पर हावी होकर मंदी कम करना संभव नहीं रहा. अतः इन बेकारों को काम देने के लिये अधिकाधिक मात्रा में शस्त्रों का निर्माण करना और उन्हें बेचने के लिये विश्व के देशों में झगड़े प्रारंभ कराना समृद्ध राष्ट्रों का एक खेल बन गया है.

समृद्धि के लालच में और भी एक बड़ी समस्या उत्पन्न हो गयी है. वह है बहुराष्ट्रीय समवायों (कंपनियों) के विभिन्न देशों में चल रहे कारनामे. ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी प्रचुर धन-सम्पत्ति के बल पर विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था में घुसपैठ करते हुये दबाव की राजनीति खेलती रहती है. इक्सौन ऐसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से एक है. इस कम्पनी की वार्षिक आय विश्व के कई राष्ट्रों की वार्षिक आय से अधिक है. ऐसी कम्पनियों की दबाव की राजनीति कितनी प्रभावी हो सकती है, इसकी कल्पना उनकी सम्पन्नता से की जा सकती है.

यह सब कुछ करने के बाद भी इन धनवान राष्ट्रों को क्या मिला? जितनी हत्यायें, बलात्कार, तलाक एवं आत्म-हत्यायें अमेरिका में होती हैं, उतने ये अपराध अन्य देशों में नहीं पाये जाते. हर पाँचवा अमेरिकी अपने जीवन में कभी न कभी कुछ समय मनोरोगियों के लिये बने चिकित्सालयों में बिताता है. परिवार-संस्था तीव्र गति से धवस्त होती जा रही है. नींद लेने के लिये अमेरिका में अधिसंख्य लोग नींद की गोलियां खाते हैं. व्यसन का अनुपात इतना बढ़ा है कि तुर्कस्थान जैसे देश के अफीम के प्रचण्ड भंडार अकेले अमेरिका में खप जाते हैं. प्रा. गाल ब्रेथ जैसे अर्थशास्त्री विचारक ने इस समस्या का वर्णन करते हुये कहा है- “सम्पत्ति इकट्ठी होती है और मनुष्य भीतर से ध्वस्त होता जाता है.” ब्रिटेन तथा फ्रांस जैसे यूरोपीय राष्ट्रों की अवस्था भी न्यूनाधिक मात्रा में ऐसी ही है. युवा वर्गों में हिप्पियों की संख्या बढ़ती जा रही है. पश्चिम जर्मनी की सरकार को युवकों के उग्र आंदोलन के सम्मुख झुककर टी.वी. पर ‘ब्लू फिल्म्स’ दिखाने की अनुमति भी देनी पड़ी है.

उद्योग के केन्द्रीकरण के कारण विशाल महानगर खड़े हुये है. वहाँ का जनजीवन प्रकृति से तो दूर हो ही गया है, नैतिक दृष्टि से भी उसका अधिकाधिक अधःपतन होता जा रहा है. सभी प्रगत राष्ट्रों को यही अनुभव करना पड़ रहा है. तथापि इतने कटु अनुभवों के बाद भी वहाँ के कुछ शास्त्रज्ञ अधिकाधिक आर्थिक विकास, भारी उद्योग-धन्धे एवं विशाल नगरों के निर्माण की नीति पर ही चल रहे हैं.                           यूरोपीय आर्थिक समुदाय नामक विशाल संस्था के उपाध्यक्ष डॉ.मेन्शोल्ट तो कह रहे हैं कि “युवकों को गाँव छोड़ खेती को अंतिम विदा कहकर नगरों की ओर जाना चाहिये. कारण, वही आज की प्रकृति का द्योतक है.”इसके लिये उनकी संस्था आर्थिक सहायता देने के लिये भी तैयार है. पश्चिमी अर्थशास्त्रज्ञों की मति पूर्णतः मारी जाने का ही यह लक्षण है.

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के दुष्परिणामों की प्रतिक्रिया में ही मार्क्सवादी अर्थचिंतन सामने आया.”उत्पादन के सिद्धांतों का केन्द्रीकरण और श्रमशक्ति का समाजीकरण, दोनों ऐसे बिन्दु तक पहुंचते हैं कि पूँजीवादी आवरण के साथ वे बेमेल हो जाते हैं. इनसे निजी पूँजी-सम्पदा के विनाश की सूचक मृत्यु-घंटी बजने लगती है. छीन लेने वाले से छीन लिया जाता है.”यह क्रांतिकारी विचार कार्ल मार्क्स ने विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया. इस विचार का नेतृत्व रूस ने किया और उसके बाद उसने चीन तथा पूर्व यूरोप के राष्ट्रों को भी अपनी चपेट में ले लिया. आज वह अनेक राष्ट्रों पर अपना प्रभुत्व बनाने और सोवियत संघ के विघटन के बाद अपनी प्रासंगिकता लगभग खो चुका है. विभिन्न राष्ट्रों में मार्क्सवादी अर्थचिंतन का स्वरूप यद्यपि अलग-अलग रहा. पर उसकी संकल्पना वही है. वहां हम क्या देखते हैं? उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मुट्ठी भर लोगों के हाथों में हो गया था. उसी प्रकार का केन्द्रीकरण साम्यवादी अर्थरचना में शासन-संस्था के हाथ में हो गया. राज्यसत्ता एवं अर्थसत्ता दोनों के केन्द्रीकरण के कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अपेक्षा भयंकर दुष्परिणाम साम्यवादी देशों ने भुगते. वहाँ जनतंत्र, विचार-स्वातंत्र्य एवं लेखन-स्वातंत्र्य की बलि चढ़ा दी गयी. तानाशाही की पकड़ कठोर हो गई. जीवनावश्यक वस्तुओं की भारी कमी, युवा पीढ़ी में बढ़ते जा रहे व्यसन, तलाकों की बढ़ती संख्या, उद्योगों की अकार्यक्षमता और नये रूप में खड़ी विषमता (इसका वर्णन यूगोस्लाविया जैसे कम्युनिस्ट देश के दिवंगत उपप्रधानमंत्री जिलास ने ‘द न्यू क्लास’ पुस्तक में किया है) आदि बातों के कारण कम्युनिस्ट देशों में व्यक्ति-जीवन एवं समष्टि-जीवन के सभी अंगों की दुर्दशा हुई. और वह साँचाबंद एवं नीरस हो गया. प्रारंभ में कम्युनिस्ट विचारों से पर्याप्त प्रभावित किन्तु प्रत्यक्ष स्थिति देखकर मोह भंग हुये आर्थर कौसलर ने ‘डार्कनेस एट नून’ पुस्तक में मानव-मुक्ति की दुहाई देने वाली साम्यवादी अर्थरचना में मानव के भाव विश्व एवं आत्मा की किस प्रकार क्रूर अवहेलना होती है, सारे विश्व के सम्मुख रखा है.

(शरद अनन्त कुलकर्णी की पुस्तक एकात्म अर्थनीति से )

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