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फिल्म इंडस्ट्री में सिनेमा हॉल और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की लड़ाई

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प्रभाकर शुक्ला

जब से लॉकडाउन  हुआ है, तब से फिल्मों की शूटिंग और सिनेमा हॉल सिर्फ भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बंद हो गए. अभी सिनेमा हॉल की जल्दी खुलने की उम्मीद नहीं नज़र आ रही है. यही हाल फिल्मों का भी है. जो फिल्में शूट हो गयी थीं, उनका पोस्ट प्रोडक्शन का काम करके रेडी टू रिलीज़ हो गईं, लेकिन अभी भी सिनेमा हॉल बंद ही हैं.

तो प्रोडूसर क्या करे ? यही सवाल काफी दिनों से सब के मन में चल रहे थे.

जो बहुत ज्यादा बजट की या बड़ी स्टारकास्ट की फ़िल्में थीं, उनमें से कुछ ने अपनी रिलीज़ डेट आगे बढ़ा दी. लेकिन कुछ फिल्मों को ऑनलाइन यानि ओटीटी प्लेटफॉर्म से कुछ अच्छे ऑफर मिले, उनकी फिल्म को सीधे ऑनलाइन रिलीज़ करने के लिए. यह एक बेहतर विकल्प भी था कोरोना की इस महामारी में.

अभी सिनेमा हॉल कब खुलेंगे ?

कैसे लोग फिल्म देखने जाएंगे या नहीं ?

सोशल डिस्टेन्सिंग का कैसे पालन होगा ?

यह सारे सवाल खड़े हैं, जिनका अभी किसी के पास कोई जवाब नहीं है. इस हालत में जो निर्माता फिल्मों में पैसा लगा चुके हैं, वह ऑनलाइन ओटीटी प्लेटफॉर्म के लुभावने ऑफर्स को लेकर अपनी फिल्म रिलीज़ करना चाहते हैं.

अब इसमें गलत क्या है ?

लेकिन सिनेमा हॉल के मालिक तो धमकियों  पर उतर आये हैं कि उन निर्माताओं के खिलाफ कार्रवाई करेंगे, उनकी फ़िल्में आगे से सिनेमा हॉल में रिलीज़ नहीं होने देंगे.

यह वही सिनेमा हॉल मालिक हैं, खास तौर पर मल्टीप्लेक्स वाले जो आज से १५ साल पहले सरकार से तरह तरह की छूट लेकर मल्टीप्लेक्स बनाते गए. लेकिन अपने वादे कभी नहीं निभाए. चाहे वो छोटे शहरों में सिनेमा हॉल बनाना हो, रीजनल भाषा की फिल्मों को सपोर्ट करना हो या लोगों को अच्छी सुविधा काम दाम पर देनी हो.

छोटी फिल्मों के निर्माता तो कई जोड़ी जूते इसलिए रखते हैं कि अपनी फिल्म के लिए मल्टीप्लेक्स की स्क्रीन और शो टाइमिंग लेने में सब घिस जाएंगे, तब भी फिल्म मल्टीप्लेक्स में रिलीज़ होगी या नहीं? कई अच्छी फिल्मों को इसलिए फ्लॉप होना पड़ा कि उनकी फिल्म कमिटमेंट के बाद भी मल्टीप्लेक्स में रिलीज़ ही नहीं हो पायी.

निर्माता रॉनी स्क्रूवाला ने मार्च २०१९ में कॉम्पिटिशन कमीशन ऑफ़ इंडिया, इन सबके खिलाफ केस भी लड़ा कि कैसे यह मल्टीप्लेक्स वाले वर्चुअल फी, प्रोग्रामिंग, शो टाइमिंग और लेट पेमेंट्स से एकाधिकार का व्यहार कर रहे हैं. जिसके चलते उनकी “फिल्म मर्द को दर्द नहीं होता है” को मल्टीप्लेक्स ने स्क्रीन ही नहीं दिया रिलीज़ के लिए.

यह वही मल्टीप्लेक्स के  मालिक हैं जो गर्व के साथ कहते हैं कि हमें फिल्म की टिकट बिक्री से क्या मतलब? हमें तो मतलब है हमारे यहां बिकने वाले समोसे, पॉप कॉर्न और कोल्ड ड्रिंक्स से. लोग तो फिल्म देखने आएंगे ही. हमें फिल्म की टिकट में क्या पैसा मिलता है. जितना मिलता है, उससे ज्यादा तो हम एक समोसे में कमा लेते हैं. १० रुपये का समोसा १०० में, ५ रुपये की कोल्ड ड्रिंक्स १२० में, १२  रुपये का पॉप कॉर्न २८० में और १० रुपये की पानी की बोतल ८० में, ४ रुपये की कॉफ़ी १४० में, यह है इनका प्रॉफिट मार्जिन और बिज़नेस कल्चर. इन्हें किसी सिनेमा विनेमा को प्रमोट नहीं करना है. यह बेसिकली हाई क्लास रेस्टोरेंट हैं, जहां बीच-बीच में फ़िल्में दिखाई जाती हैं.

इन्हें फिल्म और उसके निर्माता से कोई मतलब नहीं है, बस हर चीज में पैसा चाहिए. बड़े हीरो की फिल्में तो आएंगी ही, छोटे निर्माता जब आएंगे तो उनसे रिलीज़ के पहले ही मोटी फीस ले ली जाएगी जो वापस नहीं होगी. मल्टीप्लेक्स का कोना-कोना बिका होगा प्रचार के लिए. यहां तक कि ट्रेलर चलाने के लिए भी पैसा चाहिए, स्टैन्डी लगाने के लिए भी, पोस्टर लगाने के लिए भी. सिर्फ चोखा धंधा, जिसमें  इनकमिंग है लेकिन कोई जिम्मेदारी नहीं. यहां तक कि जिनके भरोसे इनकी दुकान चलती है, उन फिल्म और फिल्म वालों के लिए तो बिलकुल नहीं.

यह वही मल्टीप्लेक्स वाले हैं, जिनका अस्तित्व ही फिल्म और फिल्म वालों से है. जिनको पूरा टैक्स बेनिफिट, प्रमोशन का पैसा, सस्ती ज़मीन, लाइसेंस और हर टिकट पर मेंटेनेंस चार्ज फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए दिया गया. लेकिन यह भस्मासुर ही निकले. जिस डाल पर बैठाया गया उसी को काट रहे हैं.

जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई ज्यादातर मल्टीप्लेक्स वालों ने अपने मालिकों को किराया न दे पाने का नोटिस भेज दिया. मीठा-मीठा गड़प और कड़वा कड़वा थू. कई मल्टीप्लेक्स वालों के कर्मचारी महीनों से सैलरी न मिलने की वजह से प्रदर्शन करने पर मजबूर हो गए हैं. यह कर्मचारी तो कह रहे हैं कि बैलेंस शीट में तो करोड़ों का प्रॉफिट दिखाया जा रहा है और जैसे ही कोई संकट आया तो सारे मालिकान हमें अनाथ छोड़ गए.

जबकि कुछ दशक पहले जब सिंगल स्क्रीन सिनेमा ही थे, तब ऐसे हालात नहीं थे. तब एक ईको  सिस्टम था, सिनेमा मालिक से डिस्ट्रीब्यूटर, निर्माता और फाइनेंसर के बीच. हर फिल्म की घोषणा होते ही मुहूर्त पर पैसे आ जाते थे, हर शूटिंग शेड्यूल से पहले क़िस्त आ जाती थी और फिल्म ख़त्म हो कर रिलीज़ होते तक सब हिस्सेदार होते थे. सिनेमा मालिक डिस्ट्रीब्यूटर को पैसे दे देता था, डिस्ट्रीब्यूटर निर्माता को और निर्माता फाइनेंसर को. अगर कोई फिल्म नहीं चलती थी तो उसका नुकसान सब अगली फिल्म में एडजस्ट कर देते थे.

इस ईको सिस्टम में सब एक दूसरे को सपोर्ट करते थे. इसमें निर्माता को ओवर फ्लो भी मिलता था और सिनेमा मालिक भी अपनी लागत से ज्यादा कमाई कर लेता था. सबसे बड़ी बात यह भी थी कि आम दर्शक को किफायती दाम में फ़िल्में देखने को मिलती थीं. हाँ, यह भी होता था कि जो सिनेमा हॉल अपने को मेन्टेन नहीं करते थे वहां जनता कम आती थी. ऐसे ही सिनेमा हॉल को सुधारने का काम किया था राजश्री प्रोडक्शन ने अपनी फिल्म “हम आपके हैं कौन” की रिलीज़ के समय, जिससे ज्यादा से ज्यादा फैमिली के साथ दर्शक सिनेमा हॉल में वापस आएं.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि मल्टीप्लेक्स में लोगों को नया अनुभव नहीं हुआ. लेकिन किस कीमत पर, २० से ५० रुपये की सिंगल स्क्रीन की टिकट मल्टीप्लेक्स में १५० से १५०० में बिकती है. अगर चार लोगों की फैमिली फिल्म देखने गयी तो कम से कम २५०० से ३००० रुपये खर्च होते हैं – टिकट और खाने पीने में.

अस्सी और नब्बे के दशक में वीडियो कैसेट फिर सीडी, डीवीडी उसके बाद सेटेलाइट और डीटीएच और अब ऑनलाइन ओटीटी प्लैटफॉर्म्स समय के साथ बदलने वाली टेक्नोलॉजी हैं. हर टेक्नोलॉजी के अपने ग्राहक होते हैं, एक उनका अपना दर्शक वर्ग होता है. आज मोबाइल और फ़ास्ट इंटरनेट का ज़माना है. अब फिल्में लोगों के मोबाइल, लैपटॉप या स्मार्ट टीवी पर सीधे आएँगी. अगर किसी को रूठना है तो रूठ जाए. अब कोई मनाने नहीं आएगा.

(लेखक निर्माता-निर्देशक एवं सेंसर बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं)

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