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भगवान बुद्ध का कल्याणकारी धम्म

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वैशाख पूर्णिमा, यह भगवान गौतम बुद्ध का जन्मदिन है. पूरे देश तथा विश्व में बहुत से स्थानों पर भगवान की जयंती अत्यंत श्रद्धापूर्वक और भक्तिभाव से मनायी जाती है. भगवान के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा है ‘उनके जैसा महान मानव विश्व में कहीं अन्य नहीं हुआ है. मानव जाति दु:ख से मुक्त कैसे हो सकती है, यह एक ही ध्यास उनको था.’

मानव को सुखी बनाने का ज्ञान अर्थात संबोधि प्राप्त होने के बाद वे प्रथम ऋषिपत्तन (सारनाथ) गये थे. यह स्थान काशी के निकट है. साधनाकाल में उनके साथ पांच भिक्षु थे. कुछ कारणवश वे गौतम बुद्ध को छोड़कर चले गये थे. भगवान ने इन्हीं पांच भिक्षुओं को प्रथम धम्मोपदेश किया और उनको बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी. इसे प्रथम धम्मचक्रपरिवर्तन कहा जाता है. ज्ञानप्राप्ति के बाद भगवान अकेले थे. अब उनको पांच भिक्षु मिल जाने के बाद छह व्यक्ति हो गये. उनके इस संघ में यश नामक संपन्न परिवार का एक सदस्य अपने 54 मित्रों के साथ शामिल हो गया. अब संख्या साठ हो गयी. आगे जैसे-जैसे भगवान देश में भ्रमण करने लगे वैसे- वैसे संघ की संख्या बढ़ती चली गयी और संघ में लाख से अधिक लोग शामिल हो गये.

भगवान गौतम बुद्ध प्राचीन काल में शास्त्रशुद्ध संगठन की नींव रखने वाले महान संघसंस्थापक हैं. आज के अर्थशास्त्रीय जगत में व्यापार/औद्योगिक संगठनशास्त्र का स्वतंत्र अध्ययन किया जाता है. उसमें पढ़ाये जाने वाले बहुतांश मूलतत्व भगवान के संगठनशास्त्र विचार में पाये जाते हैं.

चिरस्थायी और बलवान संगठन खड़ा करने के लिये मजबूत आधार आवश्यक होता है. ऐसा आधार संगठन खड़ा करने वाले व्यक्ति ने स्वयं तथा स्वयं के दर्शन का देना आवश्यक होता है. संबोधि प्राप्त होने के बाद ‘सिद्धार्थ’ इस व्यक्ति का विलोप हो गया  और बुद्ध का जन्म हो गया. बुद्ध अर्थात परम ज्ञानी एवं जिसने इसी जन्म में निर्वाण प्राप्त किया. भगवान एक स्थान पर कहते हैं, ‘यो धम्मं पस्सति, यो मं पस्सति सो धम्मं पस्सति’ अर्थात जो धम्म को देखता है, वह मुझे देखता है और जो मुझे देखता है (जानता है) वह धम्म को जानता है. अपने जीवन में गौतम बुद्ध स्वयं संघमय बन गये थे.

भगवान का संघ केवल भिक्षुओं तक ही सीमित था; गृहस्थाश्रमी व्यक्ति को संघ में प्रवेश नहीं था. पुरुषों का संघ अलग और महिलाओं का भिक्षुणि संघ अलग होता था. संघ में महिलाओं को प्रवेश नहीं देना चाहिये, ऐसा भगवान का प्राथमिक मत था. लेकिन महाप्रजापति गौतमी (भगवान की दूसरी माता जिन्होंने सिद्धार्थ का सात दिन की शिशुअवस्था से पालन किया था) के आग्रह के कारण भगवान ने महिलाओं को संघ में प्रवेश दिया था.

व्यक्ति और दर्शन (तत्व विचार) यह संगठन का मेरुदंड होता है. संगठन मनुष्यों का होता है और मनुष्य इसी समाज से आते हैं. अपने साथ के विकार, रूढ़ि, अंधविश्वास, जाति, पूर्वधार्मिक संस्कार आदि की गठरी बांध कर लाते हैं. इन सब लोगों को एकत्रित रखने हेतु कुछ नियम बनाना आवश्यक होता है. उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था खड़ी करनी होती है. उनके द्वारा नियमित साधना करवानी होती है. भगवान ने संघनियम कैसे बनाये?

भगवान को उनके जीवनकाल में ही राजाश्रय मिल गया था. समाजमान्यता भी मिल गयी थी. अनगिनत धनवान लोग उनके शिष्य बन गये थे. इसलिये भिक्षुओं को निवास और भोजन आसानी से मिलने लगा. भिक्षु लोगों के घर जाते थे, उनको भिक्षा मिलती थी. दार्शनिक आकर्षण के कारण बहुत लोग भिक्षु बनते थे. लेकिन कुछ चालाक लोग पेट भरने के लिये भी भिक्षु बन जाते थे. कुछ लोग रोगी, नपुंसक, दिवालिये, भागकर आये सैनिक होते थे. भगवान के ध्यान में जब यह बात आयी तब उन्होंने भिक्षु संघ में प्रवेश के नियम कठोर बनाये. रोगी, नपुंसक, दिवालिये और भगोड़े सैनिकों को भिक्षु संघ में प्रवेश से मनाही की जाती थी.

ऐसा कहते हैं कि जब चार लोग एकत्रित आते हैं, तब उनमें कुछ ना कुछ विवाद पैदा होगा ही! गृहस्थाश्रमी व्यक्ति शायद स्वार्थ हेतु से, बड़प्पन के लिये आपस में झगड़ा कर सकते हैं, लेकिन जिन्होंने संसार की मोहमाया का त्याग कर श्रमण धर्म की अथवा संन्यासधर्म की दीक्षा ली है, वह लोग भी अन्यान्य कारण से आपस में झगड़ सकते हैं. संघ में जो मतभेद होते हैं वह अग्नि के छोटे अंगारे के सामान होते हैं. अगर यह अंगारा समय पर नहीं बुझाया गया तो बड़ी आग लगने का खतरा होता है. आपसी झगड़े से अपने देश में संस्थायें कैसे टूटती हैं, यह हम देख रहे हैं. भगवान् के काल में भी भिक्षु संघ में झगड़े होते थे. झगड़े मिटाने की भगवान् की पद्धति लोकतान्त्रिक थी.

वादविवाद के उस समय तीन विषय होते थे :

1-संघ के दर्शन के बारे में विवाद

2-भिक्षु के गैरवर्तन के बारे में विवाद

3-संघ की कार्यपद्धति के बारे में विवाद

विवाद सुलझाने के लिये भगवान् ने एक पद्धति विकसित की थी. विवाद जहाँ उत्पन्न हुआ है वहां के भिक्षुओं को एकत्रित किया जाता था. अर्थात उनकी सभा अथवा बैठक आमंत्रित की जाती थी. विवाद का विषय सभी लोगों के सामने रखा जाता था. किसी भिक्षु पर कोई आरोप होता तो वह सबके सामने रखा जाता था. सबको अपना पक्ष रखने की स्वतंत्रता थी. सामूहिक चर्चा, सोचविचार के बाद निर्णय लिया जाता था. संघ में में पैदा हुई समस्याओं का समाधान करने के लिये सबको कहा जाता था. लोकतंत्र में यही अपेक्षित होता है. अपने संघ में लोकतंत्र लाकर भगवान ने एक आदर्श सबके सामने रखा है.

संघ में झगड़े नहीं होने चाहिये, सभी को आपस में बंधुभाव से प्रेम करना चाहिये, अधिक कुछ बताने की आवश्यकता महसूस नहीं होनी चाहिये और एक दूसरे को एक दूसरे का अंतःकरण जान लेना चाहिये. दूसरे के मन का और उसकी आवश्यकताओं का विचार पहले करना चाहिये, इस बात की ओर भगवान् ध्यान देते थे. भगवान् के जीवनचरित्र से एक प्रसंग यहाँ दे रहा हूँ.

अनिरुद्ध, नन्हिय, किम्बिल ऐसे तीन भिक्षु साथ-साथ रहते थे. उनकी मुलाक़ात होने पर भगवान् ने उनसे पूछा, ‘‘अनिरुद्ध, सब कुछ ठीक चल रहा है ना?’’ ‘‘हाँ, हमारा सब कुछ ठीक चल रहा है.’’ अनिरुद्ध ने कहा.

‘‘आप सब एकता से आनंदपूर्वक पानी और दूध की दोस्ती की तरह आपस में प्रेम से रहते हैं न?’’ हाँ, में जवाब मिलने पर भगवान् ने अनिरुद्ध से दूसरा प्रश्न पूछा, “अनिरुद्ध, आप बड़ी जागृति से आचरण करते हैं क्या?’’

अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘हम तीनों अत्यंत जागृति से आचरण करते हैं. हम तीनों एकसाथ भोजन करते हैं. भोजन करने के बाद अपने बर्तन साफ़ करके उन्हें यथास्थान रखते हैं. हम अकारण संभाषण नहीं करते हैं. हमारे मनोमिलन हो जाने के कारण अधिक बातचीत करने की आवश्यकता ही नहीं रहती है.’’

बारिश के मौसम में सारे भिक्षुओं को विहार में एकसाथ रहना पड़ता था. इसे वर्षावास कहा जाता है. तीन मास किसी वादविवाद के बिना एकसाथ रहना आसान नहीं होता है. कोसल देश के भिक्षुओं ने एक वर्षावास एकसाथ तीन महीने बिताया था. भगवान् से मुलाकात के बाद उन्होंने कहा, ‘‘हमने वर्षावास के दौरान मौन धारण कर लिया था. इसलिये हमारे आपस में झगड़े नहीं हुये और वर्षावास अत्यंत सुख से बीत गया.’’

भगवान् ने कहा, ‘‘आप लोगों ने आलसी मनुष्य की तरह वर्षावास व्यतीत किया है. पशु भी एकदूसरे के साथ बात ना करते हुए सुख से रहते हैं. उसी तरह आपने वर्षावास बिताया है. हे भिक्षु, अकारण मौन धारण नहीं करना चाहिये. इस काल में आत्मपरीक्षण करना चाहिये, आपको देखे हुए, सुने हुए और आशंकायुक्त अपने दोषों की चर्चा करनी चाहिये.’’

भगवान् ने संघ में उत्तम व्यवस्था रखने की पद्धति विकसित की थी. संगठन शास्त्र में व्यवस्थापन शास्त्र को भी उचित महत्व होता है. व्यवस्था लगाने हेतु कार्य का उचित विभाजन आवश्यक होता है. योग्य व्यक्ति पर योग्य कार्य का दायित्व सौंपना आवश्यक होता है. उस व्यक्ति को अपना कार्य तथा अपना दायित्व पूरी तरह से पता होना आवश्यक होता है. नियमों का पठन करने वाले को ‘पातिमोक्स’ कहा जाता था. अन्न का वितरण करने वाले को ‘भुत्तुहेसक’ कहा जाता था.‘नवकार्तिक’ अधिकारी नया निर्माण अथवा पुराने विहारों की दुरुस्ती करने हेतु नियुक्त किया जाता था.

भगवान् का संघकार्य कष्टदायी था. भिक्षुओं को अत्यंत सादगी से रहना पड़ता था. किसी भी तरह से वस्तुओं का संग्रह करने की उनको मनाई थी. वे केवल औषधि संग्रह अर्थात गोमूत्र, घी, माखन, आंवला, हिरडा, शहद और रसोई का तेल इतनी ही चीजें अपने पास रख सकते थे. भिक्षुओं को सतत् प्रवास करना आवश्यक होता था. विहार में बैठे रहने की उनको अनुज्ञा नहीं थी, जनता में जाकर उनको धर्म की जानकारी देना यह उनका प्राथमिक कार्य था.

ऐसा कष्टमय जीवन सब लोग सहन नहीं कर पाते थे और भिक्षु जीवन का त्याग कर वे वापस अपने घर लौट जाते थे. भगवान का एक शिष्य था शोण. भिक्षु होने से पहले वह बहुत धनवान था. भिक्षु पैदल चलते थे, मगर शोण को ऐसे चलने कि आदत नहीं थी. उसके पैरों से खून बहने लगता था. शोण ने ऐसा सोचा कि अब उसे घर लौट जाना ही उचित होगा. धर्म से आचरण करते हुये दानपुण्य से कमाया जा सकता है. जब भगवान को इस बात का पता चला तब उन्होंने कहा, “शोण, वीणा की तार अगर बहुत कसी गई अथवा ढीली रखी गई तो उस वीणा से अच्छा सुर नहीं निकल सकता है. मनुष्य की शक्ति का भी ऐसा ही होता है. इस शक्ति को अत्यंत तनाव में रखना अच्छा नहीं होता है. अगर शक्ति शिथिल छोड़ी जाये तो मनुष्य आलसी और कमजोर बन जाता है. इसलिये प्रत्येक मनुष्य को अपनी शक्ति का मध्यबिंदु ढूँढना आवश्यक होता है. ऐसा करने से ही जीवन सुखमय हो सकता है. 

भगवान का संघकार्य धर्मजागरण और लोगों को सत्य धर्म की जानकारी देना यह था. यह कार्य किसी एक मनुष्य के वश का नहीं था. इसलिये हजारों लोग इस कार्य में जुटे थे. लोगों को नया धर्म बताना आसान नहीं होता है. प्रचलित विचारधारा के विरोध में जब कोई नया विचार बताया जाता है, तब समाज में बड़ी प्रतिक्रिया पैदा हो जाती है. पूर्ण के साथ भगवान का संवाद कुछ इस प्रकार है.

धर्मोपदेश हेतु नये विभाग में जानेवाले पूर्ण को भगवान ने कहा “तू सुनापरत प्रान्त में जा रहा है. वहां के लोग कठोर होते हैं. वे तुझे गाली देंगे, लाठी से मारेंगे, तब तेरे मन में क्या विचार आयेगें?”

पूर्ण कहता है, “उन लोगों ने मुझे केवल गालियां बकी है, लाठी से मारा है; जान से नहीं मार डाला इसलिये वे लोग बड़े दयालु हैं, ऐसा मैं मानूंगा. मेरे मन में उनके विरोध में कोई दुर्भावना नहीं होगी”. भगवान कहते हैं, “ अगर वे लोग तुझे जान से मार डालेंगे तो मरते समय तेरे मन में क्या विचार आयेंगे?”

पूर्ण कहता है, जन्म तो दुखदायी है. मरण भी दुखदायी है. व्याधि भी दुखदायी है. बुढ़ापा दुखदायी है. ऐसा शरीर का सुनापरत के निवासी नाश कर देते हैं तो वे लोग बहुत भले लोग हैं ऐसा मैं सोचूंगा”. समाज का भला करने जब हम निकलते हैं, तब समाज पर क्रोधित नहीं होना चाहिये. समाज अपनी निंदा करता है, हम पर आघात करता है, तो हमें वह सब सहन करना चाहिये.

“अपने संघ में कई अच्छे गुण हैं, संघ में जातिभेद को कोई स्थान नहीं है. वे आगे कहते कहते हैं, “ हे भिक्षु गंगा, जमुना, अचरवती, सरयू जैसी सारी नदियां जब सागर में समा जाती हैं, तब वह अपना-अपना नाम त्याग कर महासागर यह एक ही नाम धारण करती है. उसी तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-यह चार वर्ण तथागत के संघ में जब प्रवेश करते हैं, तब अपना पहला नामगोत्र छोड़कर ‘शाक्यपुत्रीय श्रमण’ इसी एक नाम से पहचाने जाते हैं”.

भगवान के संघ में हिन्दू समाज के सारे व्यक्ति शामिल हुये थे, संघ में जातिभेद नहीं था, उच्चनीचता नहीं थी, वर्णाभिमान नहीं था, सारे लोग एक समान स्तर के माने जाते थे.

भगवान का संघ दीर्घकाल तक चला. संघ में श्रमण, भिक्षु, उपासक, नीतिमान, चारित्र्यसंपन्न, अनासक्त, ज्ञानोपासक, कर्मयोगी जब तक थे, तब तक संघ के आधार से समाज का भी उत्थान हुआ, उत्पादन बढ़ा, व्यापार बढ़ा, कला का विकास हुआ, शास्त्रों का विकास हुआ, शिल्पशास्त्र का विकास हुआ.

भगवान को अत्यंत प्रतिभासंपन्न शिष्य मिले थे.‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ यह मंत्र जपते हुये उन्होंने धर्मजागरण किया और भारत को महान बनाया. धर्म का उत्थान यही भारत को महान बनाने का मार्ग है, ऐसा आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद ने कहा है. धर्म से जीते हुये का मार्ग विचरण करने वाले ही सही मायने में भारत के भाग्यविधाता हैं.

रमेश पतंगे

 

 

     

         

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