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भारत की राष्ट्रीयता का आधार वसुधैव कुटुंबकम का चिंतन रहा है

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कम्युनिस्टों के अभारतीय विचारों से प्रभावित कांग्रेस के कुछ उच्च शिक्षित नेता जब क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए भारत की अस्मिता पर आघात करने वाले वक्तव्य देते हैं तो आश्चर्य कम, पीड़ा अधिक होती है. ऐसे वक्तव्यों से राधाकृष्णन आयोग की भारतीय शिक्षा पर की गई इस टिप्पणी का स्मरण हो आता है, ‘एक शताब्दी से अधिक समय से चली आ रही शिक्षा प्रणाली की एक गंभीर समस्या यह है कि उसने भारत के भूतकाल की अनदेखी की है और भारत के छात्रों को सांस्कृतिक ज्ञान से वंचित रखा है. इसी कारण कुछ लोगों में यह भावना बनी कि हमारी जड़ों का कोई अता-पता नहीं है. इससे भी खराब यह मानना है कि हमारी जड़ें हमें ऐसी दुनिया में सीमित कर देती हैं, जिसका वर्तमान से कोई संबंध नहीं है.’

साम्यवादी विचारों के प्रभाव में अभारतीयकरण इतना गहरा हो चुका है कि उसने सोच के साथ शब्दावली को भी प्रभावित कर दिया है और इसका एक प्रमाण कांग्रेस के एक नेता के इस बयान से मिला कि यदि भाजपा फिर से शासन में आती है तो भारत ‘हिंदू पाकिस्तान’ बन जाएगा. ‘हिंदू पाकिस्तान’ शब्द ही विरोधाभासी है. नागपुर में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा था, ‘पश्चिम में जो राष्ट्र विकसित हुए उनका आधार एक विशिष्ट भूमि, भाषा, रिलीजन और समान शत्रु रहा है, जबकि भारत की राष्ट्रीयता का आधार वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया का चिंतन रहा है.

भारत ने सदैव समूचे विश्व को एक परिवार के रूप में देखा है. भारत सभी के सुख और निरामयता की कामना करता रहा. भारत की यह पहचान मानव समूहों के संगम, उनके सम्मिलन और सहअस्तित्व की लंबी प्रक्रिया से निकल कर बनी है. हम सहिष्णुता से शक्ति पाते हैं, बहुलता का स्वागत करते हैं और विविधता का गुणगान करते हैं. यह शताब्दियों से हमारे सामूहिक चित्त और मानस का अविभाज्य हिस्सा है. यही हमारी राष्ट्रीय पहचान है.’

भारत के मूलत: उदार, सर्वसमावेशी, सहिष्णु, वैश्विक चिंतन का आधार भारत की अध्यात्म आधारित एकात्म और सर्वांगीण जीवन दृष्टि है. पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने इसी जीवन दृष्टि को हिंदू जीवन दृष्टि कहा. उनका कहना था, ‘हम देखते हैं कि हिंदू एक ही अंतिम तत्व-चैतन्य को मानता है, यद्यपि उसे विविध नाम दिए गए हैं. उसकी सामाजिक व्यवस्था में अनेक जातियां होने पर भी समाज एक है. समाज में अनेक वंश या जनजातियां होंगी, परंतु सभी एक समान तत्व से आपस में बंधे हुए हैं.’

गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने यही बात इस तरह कही, ‘अनेकता में एकता देखना और विविधता में ऐक्य प्रस्थापित करना ही भारत का अंतर्निहित धर्म है. भारत विविधता को विरोध नहीं मानता और पराए को दुश्मन नहीं समझता….इसी कारण वह सभी मार्गों को स्वीकार करता है. भारत के इस गुण के कारण ही हम किसी समाज को अपना विरोधी मानकर भयभीत नहीं होंगे. प्रत्येक मतभिन्नता हमें अपने विस्तार का अवसर देगी. हिंदू, बौद्ध, मुस्लिम और ईसाई परस्पर लड़कर भारत में मरेंगे नहीं, यहां वे सामंजस्य ही प्राप्त करेंगे. यह सामंजस्य अहिंदू नहीं होगा, अपितु वह विशिष्ट भाव से हिंदू होगा. उसके बाह्य अंश चाहे जितने विदेशी हों, पर उसकी अंतरात्मा भारत की ही होगी.’

साम्यवादी विचारों वाले कांग्रेसी नेता यह भूल जाते हैं कि हिंदू को नकारने से ही तो पाकिस्तान का जन्म हुआ. भारत की एकता, स्वाधीनता, सर्वभौमिकता और अखंडता में भारत का अस्तित्व है और हिंदुत्व के नाम से जानी जाने वाली भारत की आध्यात्म आधारित सांस्कृतिक और वैचारिक विरासत ही भारत की अस्मिता है. आधुनिक और उच्च शिक्षित होने के बावजूद (या फिर उसके कारण) जो कांग्रेसी नेता अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए भारत की अस्मिता को ही नकार रहे, उन्हें यह जानना चाहिए कि भारत का विभाजन इस अस्मिता को नकारने के कारण ही हुआ.

जिस उदार, सहिष्णु और पांच हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी संस्कृति की बात प्रणब दा ने की और जिस विरासत को राधाकृष्णन ने हिंदू जीवन दृष्टि कहा उसका वारिस तो पाकिस्तान भी है. यदि वह उससे अपने को जोड़ ले तो मुस्लिम उपासना पद्धति छोड़े बिना वह हिंदू बन सकता है. एमसी छागला, एपीजे अब्दुल कलाम और तारिक फतह जैसे अनेक लोग मुस्लिम होते हुए भी ख़ुद को इस विरासत से जोड़ते हैं. यदि पाकिस्तान इस उदार और सहिष्णु विरासत को स्वीकारता है तो वह ‘हिंदू पाकिस्तान’ अर्थात् भारत ही बनेगा. नेपाल अलग राष्ट्र होने के बाद भी भारत की इस सांस्कृतिक विरासत से ख़ुद को जोड़ता है. अपनी गहरी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहना अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक है. यदि किसी को हिंदू शब्द पर आपत्ति है तो वह इसे भारतीय या इंडिक भी कह सकता है, परंतु उसकी विषयवस्तु वही है जो हजारों वर्षों की हमारी विरासत है. हिंदू चिंतन यह मानता है कि सत्य एक होने पर भी उसे विभिन्न नामों से जाना जा सकता है, क्योंकि महत्व विषयवस्तु का है.

यदि भारतीय अपनी सांस्कृतिक विचार परंपरा से गहराई से जुड़े रहें तो उनकी सोच की पद्धति कैसी होती है, इसका एक अच्छा उदाहरण श्वेतांबर जैनों की आध्यात्मिक परंपरा-तेरा पंथ के प्रमुख आचार्य महाप्रज्ञ जी के कथन में आता है. वह कहते थे, ‘मैं तेरा पंथी हूं, इसका कारण यह है कि मैं स्थानकवासी जैन हूं. मैं स्थानकवासी हूं, इसका कारण यह है कि मैं श्वेतांबर जैन हूं. मैं श्वेतांबर हूं, इसका कारण यह है कि मैं जैन हूं और मैं जैन हूं, इसका कारण यह है कि मैं हिंदू हूं.’

यह भारतीय पद्धति की सुंदर सोच है और इसका कारण है कि भारतीय चिंतन इस विविधता में कोई विरोधाभास नहीं देखता. जब गहरी जड़ों से जुड़ाव कमजोर होता है तो यह व्याख्या बदलने लगती है और यह कहा जाने लगता है कि मैं हिंदू हूं, लेकिन मैं जैन हूं. मैं जैन हूं, लेकिन मैं श्वेतांबर हूं. मैं श्वेतांबर हूं, लेकिन मैं स्थानकवासी जैन हूं और मैं श्वेतांबर जैन हूं, परंतु मैं तेरापंथी हूं.

जड़ों से जुड़ाव का क्षरण होते-होते यह स्थिति भी बन जाती है कि मैं जैन, श्वेतांबर, स्थानकवासी और तेरापंथी जो भी हूं, पर मैं हिंदू नहीं हूं. जड़ों से जुड़ाव का और अधिक क्षरण होने के कारण ही लोगों को हिंदू पाकिस्तान, हिंदू तालिबान, हिंदू आतंकवाद जैसे विचार सूझते हैं. यह क्षरण पूरा होते ही अभारतीयकरण की प्रक्रिया पूरी हो जाती है और फिर भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसी बातें शुरू हो जाती हैं और वह भी सबसे प्रगतिशील माने जाने वाले शैक्षिक संस्थान के युवाओं की ओर से, जिन्हें कुछ प्राध्यापकों का समर्थन भी मिलता है.

अभारतीयकरण का इससे स्पष्ट उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं. यह शिक्षा द्वारा हो रहे अभारतीयकरण का परिणाम है. प्रणब दा ने शायद इसीलिए कहा था कि जब हम गहराई से अपनी जड़ों से जुड़ेंगे तभी दुनिया में अपनी पहचान बनाकर टिक सकेंगे. इसे प्रसून जोशी ने अपनी एक कविता में इस तरह व्यक्त किया है –

उखड़े-उखड़े क्यों हो वृक्ष, सूख जाओगे.

जितनी गहरीं जड़ें तुम्हारी, उतने ही तुम हरियाओगे..

डॉ. मनमोहन वैद्य

सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

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