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भीम-मीम एकता, दलित हितों की राजनीति करने वाले जौनपुर की घटना पर चुप क्यों?

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सौरभ कुमार

उत्तरप्रदेश के जौनपुर में मंगलवार की रात एक मामूली सी कहासुनी में जिहादी भीड़ ने अनुसूचित जाति की एक बस्ती में घुसकर आग लगा दी. लाठी डंडे लेकर पहुंची सैंकड़ों की भीड़ ने गाँव में हमला किया, मारपीट की जिसमें कई लोग घायल हुए और घरों को आग के हवाले कर दिया गया. जब पुलिस के पास मामला गया तो ‘शांतिदूतों’ का कहना था कि विवाद के दौरान ग्रामीणों ने खुद अपने मड़हे में आग लगाई है. आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए, अगर कल को बुद्धिजीवी मीडिया चैनल ये साबित भी कर दें कि आग गांववालों ने खुद लगायी थी.

वैसे दलितों के सबसे बड़े पैरोकार कहलाने वाले मुट्ठी भर राजनेता और वामपंथी गिरोह ऐसी घटना पर इतना शोर मचाते हैं कि उसकी गूँज अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँच जाती है, लेकिन इस मामले में किसी ने एक ट्वीट करने की भी जहमत नहीं उठाई. ऐसा क्यों? क्या बस इसलिए कि आरोपी विशेष समुदाय के हैं, दलितों की चीखें मायने नहीं रखतीं, आग की लपटों से घिरा उनका घर कोई मायना नहीं रखता? ऐसा इसलिए क्योंकि दलित हितों के पैरोकार बने इन संगठनों को बस अपनी राजनीतिक रोटी सेंकनी है, घर जलते हैं तो जलें, लेकिन राजनीति चलती रहनी चाहिए. जय भीम, जय मीम का नारा चलता रहना चाहिए.

जौनपुर की घटना पहली नहीं

यह पहली बार नहीं है, जब दलित ‘विशेष समुदाय’ की हिंसा का शिकार बने हैं. मध्य प्रदेश के खंडवा में सोशल मीडिया पर डाली गई आपत्तिजनक पोस्ट का विरोध करने पर राजेश माली की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई. हत्या करने वाले सभी आरोपी विशेष समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. समुदाय विशेष के इन लोगों ने 22 अप्रैल को फेसबुक पर सीता माता को लेकर अश्लील टिप्पणी की थी. इस घटना की जानकारी लगते ही राजेश माली ने पुलिस थाने में इन लोगों के खिलाफ शिकायत की थी, मामले में पुलिस द्वारा लापरवाही बरती गई. थाने से छूटकर  आरोपियों ने खुलेआम राजेश माली को जान से मारने की धमकी दी थी.

18 मई को आरोपियों ने राजेश फूलमाली के घर पर हमला कर दिया, उन्हें बेरहमी से पीटा बचाने की कोशिश करने पर उनकी बहन शीला और चाचा पर भी हमला किया. अति गंभीर घायल राजेश माली की 31 मई को मौत हो गयी.

पिछले साल भी मध्यप्रदेश के सागर में विशेष समुदाय के लोगों ने धनप्रसाद अहिरवार की हत्या कर दी थी. एक भीड़ ने घर में घुसकर धनप्रसाद अहिरवार को आग लगा दी थी, जिसके कारण उनकी मौत हो गयी. मुज्जफरनगर के दंगों में मुसलमानों के आक्रोश के कारण दलितों को अपने घर छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा. तब न उन्हें बचाने मायावती आईं, न दलित-मुस्लिम एकता का समर्थन करने वाला कोई नेता आया.

मेवात में दलितों का कर दिया सफाया

मेवात की मुस्लिम आबादी धीरे-धीरे दलितों के श्मशान घाट पर कब्जा कर रही है. साथ ही सरकार द्वारा मुहैया कराए गए उनके प्लॉट भी समुदाय विशेष के लोगों द्वारा धीरे-धीरे हड़पे जा रहे हैं. वहीं, मारपीट, उधारी का पैसा माँगने पर हमले की घटनाएँ तो मानो बेहद सामान्य हो गई हैं. पूर्व न्यायाधीश पवन कुमार की जांच रिपोर्ट के अनुसार मेवात में समुदाय विशेष (बहुसंख्यक आबादी) का अल्पसंख्यकों पर अत्याचार इतना भीषण है कि जिले के करीब 500 गाँवों में से 103 गाँव ऐसे हैं जो हिन्दू विहीन हो चुके हैं. 84 गाँव ऐसे हैं, जहाँ अब केवल 4 या 5 हिंदू परिवार ही शेष हैं.

भीम-मीम एकता का ढोंग

जब देश भर में सीएए विरोधी प्रायोजित प्रदर्शन करवाए जा रहे थे, तब खुद को दलितों का नेता कहने वाले चंद्रशेखर ने दिल्ली की जामा मस्जिद में प्रदर्शन किया था. यह प्रदर्शन खूब सुर्ख़ियों में आया था. उत्तरप्रदेश में दलितों की राजनीती करने वाली मायावती भी लम्बे समय तक इसी भीम-मीम के गठबंधन के कारण सत्ता में रहीं. खुद को बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों का उत्तराधिकारी बताने वाले इन नेताओं ने दशकों तक बाबा साहब के विचारों के साथ धोखा किया और आज दलितों को एक ऐसी दलदल में धकेलने का प्रयास किया जा रहा है, जहाँ उनकी जिंदगी और मौत का फैसला विशेष समुदाय के लोग करेंगे.

समाज को अब यह समझ जाना चाहिए कि ये नेता अपनी राजनीति के लिए उन्हें किस दलदल में धकेल रहे हैं. दलित मुस्लिम एकता के नाम पर उन्हें ऐसे बंद अँधेरे कमरे में धकेला जा रहा है, जहाँ उनकी जिंदगी चंद ‘शांतिप्रिय’ गुंडों के रहमो करम पर टिकी होगी. बाबा साहब ने इस समस्या को आजादी से पहले ही पहचान लिया था. अपनी किताब “पाकिस्तान एंड द पार्टीशन आफ इंडिया” (1940, 1945 एवं 1946 का संस्करण) में डॉ. आंबेडकर लिखते हैं – “इस्लाम विश्व को दो भागों में बांटता है, जिन्हें वे दारुल-इस्लाम तथा दारुल हरब मानते हैं. जिस देश में मुस्लिम शासक हैं वहां दारुल-इस्लाम है. लेकिन जिस किसी भी देश में जहां मुसलमान रहते हैं, परन्तु उनका राज्य नहीं है, वह दारुल-हरब होगा. इस दृष्टि से उनके लिए भारत दारुल हरब है. इसी भांति वे मानवमात्र के भ्रातृत्व में विश्वास नहीं करते. इस्लाम का भ्रातृत्व सिद्धांत मानव जाति का भ्रातृत्व नहीं है. यह मुसलमानों तक सीमित भाईचारा है. समुदाय के बाहर वालों के लिए उनके पास शत्रुता व तिरस्कार के सिवाय कुछ भी नहीं है.”

अभी भी वक्त है कि समाज विरोधी ताकतों के इस षड्यंत्र को समझें. ये समाज में विघटन खड़ा करना चाहती हैं. बाबा साहब के सन्देश को आत्मसात करें.

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