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महामारी को हराता सेवा कार्यों का भारतीय मॉडल

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डॉ. अवनीश नागर

आज सम्पूर्ण विश्व शताब्दी की सबसे विकट आपदा से गुज़र रहा है. त्रासदी से सम्पूर्ण मानव जीवन प्रभावित है. संभवतः अतीत की मानवीय उच्छश्रृंखलाओं का ही परिणाम है कि आज सम्पूर्ण मानव सभ्यता के वर्तमान एवं भविष्य पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. कोरोना महामारी के दौर में जहाँ विश्व की बड़ी से बड़ी आर्थिक महाशक्तियां संकट से निपटने में स्वयं को निरुपाय महसूस कर रहीं हैं. ऐसे समय में भारतीय प्रशासन न सिर्फ समस्या का डट कर सामना कर रहा है. वरन् भारतीय समाज भी पूरी दुनिया के समक्ष मानव सेवा का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है. जहाँ एक ओर कोरोना से लड़ने के लिए भारत सरकार की विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सराहना की जा रही है और भारत ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन जैसी आवश्यक दवा पर निर्यात प्रतिबंद हटा कर दुनिया के ५५ देशों को सहयोग उपलब्ध करवाया है. देश के भीतर भी व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयासों द्वारा कोरोना की मार झेल रहे पीड़ितों एवं प्रभावितों की मदद के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं.

देश में समय की आवश्यकता के अनुरूप सेवा कार्य हो रहे हैं. अनगिनत लोग प्रभावितों की सहायता करते दिखाई दे रहे हैं. कोई अपनी मित्र मण्डली के साथ, कोई अपने समाज के बेनर तले तो कोई अपने संगठन अथवा धर्मार्थ ट्रस्ट के माध्यम से किसी न किसी रूप में अभावग्रस्त लोगों की सहायता करने में जुटा है. मास्क वितरण से लेकर राशन-भोजन, दवाई की व्यवस्था तक करने का कार्य किया जा रहा है और जो किसी अन्य रूप में अपना सहयोग नहीं दे सके, वे रक्तदान करके योगदान दे रहे हैं. समाज के हर वर्ग से देशवासी अपनी क्षमता और सामर्थ्य के अनुसार सहयोग कर रहे हैं.

भारतीय समाज को लम्बे समय से पश्चिम जगत कई पूर्वाग्रहों से देखता आया है और अब तो पश्चिम ही नहीं वरन भारत में भी यह मानने वालों की एक लम्बी कतार है जो भारत की अनेकता में अन्तर्निहित एकता को समझ नहीं पाते हैं. उनकी नज़रों में गरीब भारत कई आधारों पर बंटा और बिखरा हुआ है. किसी देश में जहाँ ऐसी स्थितियाँ मौजूद हों, वहाँ कोरोना जैसी महामारी से पार पाना तो एक असंभव सी चुनौती ही होगी, परन्तु भारतीय समाज संकट के समय सामाजिक संगठनों के माध्यम से एकजुट होकर प्रयास कर रहा है जो पूरी दुनिया के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं है.

संगठनों की संरचना, प्रेरणा एवं गतिविधियों के लिए वित्त पोषण तथा सीमित संसाधनों के उपरांत भी प्रमाणिक कार्य करने की शैली किसी भी समाज विज्ञान के छात्र के लिए शोध का विषय हो सकती है. समझने पर पता चलता है कि आपदा की इस घड़ी में कार्यरत ये हजारों समूह केवल मानव सेवा के उद्देश्य के लिए कार्यरत हैं, यहां न जाति है और ना ही सम्प्रदाय और ना ही इनके ऊपर ऐसा करने का कोई दबाव है. यहाँ तक कि अपने कार्यों के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन भी ये आपस में मिलकर अर्थात् स्थानीय स्तर पर ही एकत्रित कर रहे हैं. सेवा का यह पूर्णतः भारतीय मॉडल है जो समाज का, समाज के लिए और समाज द्वारा उत्पन्न है. जो किसी और पर निर्भर न होकर आत्मावलम्बी भी है और संभवतः इसी कारण अपने सामाजिक उद्देश्य की प्राप्ति में सफल भी है. इसी का परिणाम है कि आज देश में लाखों हाथ पीड़ितों की सेवा करने में जुटे हुए हैं.

आपदाओं के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के कार्यों की तो विरोधी भी प्रशंसा करते हैं. चाहे २००१ में गुजरात में आया भूकम्प हो, चरखी दादरी की दुर्घटना हो अथवा २०१४ में कश्मीर में आई बाढ़ या कोई अन्य संकट, संघ के कार्यकर्ताओं ने अपना कर्तव्य समझकर पूरी शक्ति के साथ आपदा का दमन किया है.

कार्यकर्ताओं का यह समूह स्वयं की चिंता किये बिना अपने आस पास के सभी पीड़ित बंधुओं के हित के लिए निरंतर कार्य कर रहा है जो कहीं सेवा भारती, कहीं किसी समाज के बेनर तले दिखाई दे रहा है. इस समय लोग अपने अपने घरों में रहने को मजबूर हैं, वहीं इन संगठनों से जुड़े कार्यकर्त्ता अपने जीवन की परवाह किये बगैर सुदूर अरुणाचल से लेकर दक्षिण में केरल प्रदेश तक कोरोना के विरुद्ध जन अभियान में राज्य सरकारों एवं प्रशासन के साथ लगे हुए हैं.

राजस्थान के सबसे बड़े एस.एम.एस. अस्पताल में जब मास्क की कमी महसूस हुई, तब इन्हीं संस्थाओं ने रातों रात ५००० से अधिक मास्क तैयार कर समर्पित कर दिए. मातृशक्ति और दुर्गा वाहिनी जैसे संगठनों ने अपनी  महिला कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर मास्क बनवाने का कार्य किया. कुल मिलाकर सभी संस्थाओं के छोटे छोटे प्रयासों ने एक बहुत बड़ा काम किया है, जिस पर संभवतः हममें से कई लोगों का ध्यान नहीं गया होगा. कोरोना महामारी की शुरुआत में पूरी दुनिया इस आपदा के प्रति भारत की तैयारियों को लेकर आशंकित थी. हमारे देश में गरीबी, अति जनसँख्या और उसकी तुलना में संसाधनों की कमी की जो छवि प्रस्तुत की जा रही थी. उससे ऐसा लगने लगा था कि भारत इस महात्रासदी से लड़ नहीं पाएगा. किन्तु सामाजिक संगठनों के सामूहिक प्रयासों से धारणा को बहुत बड़ा धक्का लगा होगा. सरकार के लिए भी यह राहत की बात है, जिसके बहुत से उत्तरदायित्वों का परोक्ष निर्वहन समाज ने स्वयं कर लिया है.

विश्व के शक्ति संपन्न देश अमेरिका के एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जोसफ स्टिगलिट्ज़ लिखते हैं कि – अमेरिका कोरोना बीमारी को किसी तीसरी दुनिया के देश की तरह निपट रहा हैं और लाखों अमेरिकी भोजन के लिए दर दर भटक रहे हैं. अर्थशास्त्री जोसफ स्टिगलिट्ज़ के इस कथन ने जहाँ एक ओर अमेरिका के कल्याणकारी राज्य होने की अवधारणा पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया, वहीं पूंजी आधारित व्यवस्थाओं में समाज की ओर से भी सरकार को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा है. साथ ही सक्षम परिवार व्यवस्था के अभाव में वहाँ के नागरिक इस समस्या की दोहरी मार झेल रहे हैं. भारतीय सामाजिक व्यवस्था के सूत्र आज भी हमें पूर्ववत् बांधे हुए हैं और हमारी सहायता भी कर रहे हैं.

इसी तरह भारत में 20 लाख से अधिक गैर सरकारी संगठन अथवा एन.जी.ओ. भी अपने स्तर पर सेवा कार्यों में लगे हुए हैं. एक अनुमान के अनुसार देश में ६०० की जनसँख्या पर एक एन.जी.ओ. कार्य कर रहा है, ऐसी संस्थाएं न सिर्फ सामाजिक क्षेत्र में दक्ष कार्य का अनुभव रखती हैं. बल्कि उन्हें ऐसा कार्य करने के लिए विदेशी संस्थाओं से अनुदान भी प्राप्त होता है. फिर भी वर्तमान परिस्थिति में ऐसे संगठन अपने अनुभव एवं संसाधनों की तुलना में प्रभावी कार्य नहीं कर पा रहे हैं. इन अनुदानित गैर सरकारी संगठनों की मजबूरी यह है कि इनके पास समस्या के विषय में ज्ञान और समझ तो पूरी है, किन्तु कार्य करने के लिए स्वयंसेवकों का अभाव है, संस्थाओं के वैतनिक कर्मचारी व्यावसायिक हैं. अपने कार्य में निपुण भी हैं, पर वह कार्यकर्त्ता नहीं हैं. सेवा के इस व्यवसायीकरण ने कहीं व्यक्ति के अन्दर छिपे स्वयंसेवक को मार दिया है. इसलिए स्वयंसेवक जहाँ स्वतः स्फूर्त प्रतिउत्तर देता है, वहीं पेशेवर व्यक्ति सामान्यतः किसी के कहने की प्रतीक्षा करता है.

वस्तुस्थिति देखी जाए तो एन.जी.ओ. की तुलना में सामाजिक संगठनों के कार्य का मॉडल समाज के लिए ज्यादा सार्थक भी है और प्रभावी भी. एन.जी.ओ. ने अपने कार्यों से हितग्राहियों अथवा बेनेफिशरिस की तो फ़ौज खड़ी कर दी, परन्तु वे अपने लिए कार्यकर्त्ता तैयार नहीं कर पाए. पूर्णतः पेशेवर इन संस्थाओं को भी विशुद्ध भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित खड़े हुए सामाजिक संगठनों से कुछ सीखने की आवश्यकता है जो स्थानीय स्तर पर ही संसाधन जुटा अपने लाखों स्वयंसेवको की मूक सेवा के बल पर सेवा के अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं.

महासंकट के इस दौर में समाज के विभिन्न क्षेत्रों को आत्मचिंतन एवं आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है. फिर भी समाज के संगठित प्रयासों से ऐसा लगता है कि यह कठिन समय भारतीय समाज में निखार लेकर आएगा.

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