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सामर्थ्यशाली राष्ट्रीय संस्कृति

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भारत के उत्थान का आधार है सांस्कृतिक राष्ट्रजीवन

नरेंद्र सहगल

भारतीय राष्ट्र जीवन का आधार भारत की सनातन संस्कृति न केवल भारतीयों को एकजुट रखने में सामर्थ्यशाली है, अपितु इस सार्वभौम संस्कृति में संसार के सभी राष्ट्रों को एकसूत्र में बाँधने का परमात्व तत्व भी समाया हुआ है. भारतीय संस्कृति के चार मूलभूत सिद्धांत विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त करने में पूर्णतया सक्षम हैं. वसुधैव कुटुंबकम् अर्थात् पूरा विश्व एक परिवार है, एकम सद् विप्रा: बहुधा वदंति अर्थात् सत्य एक है, विद्वान इसे विभिन्न तरीकों से कहते हैं, सर्वे भवंतु सुखिन: अर्थात् सबका भला हो और यत पिंडे तत ब्रह्माण्ड अर्थात् जो पिंड में है, वही ब्रह्मांड में है. जो आत्मा में है, वह परमात्मा में है और जो तेरे में है, वही मेरे में है. भारतीय संस्कृति का यह वैचारिक / सैद्धांतिक आधार इतना ठोस एवं समन्वयकारी है कि भारत सहित पूरे विश्व की विभिन्न जातियों को जोड़ने की शक्ति रखता है.

भारत में सैकड़ों पंथ और जातियां हैं. यह सभी वर्ग इस धरती के सांस्कृतिक राष्ट्रजीवन से जुड़े हुए हैं. यहां तक कि शक, हूण, यहूदी और पारसी इत्यादि अनेक विदेशी जातियाँ भारत में आईं और यहां के राष्ट्र जीवन में विलीन हो गईं. भारत में इन जातियों को पूरा सम्मान दिया गया. इनके द्वारा भारत के सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन को अपनाए जाने का कारण बहुत स्पष्ट है. उस समय यहां का मूल हिन्दू समाज संगठित, शक्तिशाली एवं राष्ट्रीय स्वाभिमान से ओत-प्रोत था. बाद के कालखंड में जब हिन्दुत्व की लौ क्षीण हुई तो विदेशी आक्रमणकारियों के षड्यंत्र सफल होने लगे.

राष्ट्र जीवन पर विदेशी आघात

मुसलिम आक्रमणकारियों ने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन पर आघात करने के उद्देश्य से तलवार के जोर पर मतांतरण करना, मठ, मंदिरों, विश्वविद्यालयों, सभी प्रकार के सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों को तोड़ना, जलाना इत्यादि ऐसे जघन्य कार्य किए, जिनसे हमारी एकता, सुरक्षा और संस्कार जुड़े थे. यहां के हिन्दू, जो इन जुल्मों को सहन नहीं कर सके और न ही अत्याचारियों को सबक सिखा सके, वे मुसलमान हो गए. इन मतांतरित लोगों ने यहां की राष्ट्रीय संस्कृति से नाता तोड़कर हमलावरों का साथ देना शुरू कर दिया. यह सिलसिला आज भी चल रहा है. परिणामस्वरूप भारत के अनेक भूभाग भारत से कट गए.

हिन्दुत्व की पकड़ ढीली होने से देश की अखंडता प्रभावित होती है. इसका अर्थ यही है कि जिस क्षेत्र में हिन्दू समाज विघटित एवं कमजोर होगा, वहां अलगाववाद पनपेगा, फिर आतंकवाद शुरू होगा और वह क्षेत्र देश से कट जाएगा. यदि भारत के अति प्राचीन मानचित्र को देखें तो इस समय आधे से ज्यादा भारत पर विधर्मियों का कब्जा है. केवल वर्तमान में ही झांका जाए तो स्पष्ट होगा कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, और बांग्लादेश हिन्दुत्व की पकड़ कमजोर होने का नतीजा हैं. आज की कश्मीर समस्या यही तो है. अतः भारत में व्याप्त सभी प्रकार की व्यथाओं / समस्याओं को जड़ मूल से समाप्त करने का एकमेव रास्ता यही है कि देश और जन को जोड़ने वाली राष्ट्रीय संस्कृति के साथ प्रत्येक मजहब, जाति, पंथ, मत, क्षेत्र और वर्ग को जोड़ा जाए.

अंग्रेजों की कुचालें

उल्लेखनीय है कि अंग्रेज शासकों ने भी भारत को जोड़कर रखनेवाले प्राणतत्व हिंदुत्व अर्थात् सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन को ही समाप्त करने का रास्ता अपनाया. उन्होंने तो भारत के गौरवशाली इतिहास, विशाल संस्कृति और विविधता में एकता को तोड़-मरोड़कर हमारे अस्तित्व को ही समाप्त करने के प्रयास किए. भारत को एक राष्ट्र के वास्तविक स्वरूप के स्थान पर एक धर्मशाला सिद्ध करने की मुहिम शुरू की गई. पाठ्य-पुस्तकों में जानबूझकर लिखवाया गया कि वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत इत्यादि ग्रंथ मिथ्या हैं. इस वाङ्मय को गडरियों ने तैयार किया है. भारत में कभी भी राष्ट्र जीवन विकसित नहीं हुआ. धूर्त अंग्रेजों की इस भारत विरोधी चाल के परिणामस्वरूप भारतीयता को अनेक आघात सहने पड़े.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इस वास्तविकता को सामने नहीं आने दिया गया कि भारत में सनातन राष्ट्र जीवन अति पुरातन काल में ही अस्तित्व में आ गया था. भारत के प्रत्येक कोने में व्याप्त राष्ट्रीय चेतना ब्रिटिश शासकों की देन नहीं है. हमारा यह राष्ट्र जीवन वर्तमान संविधान की देन भी नहीं है. यह कांग्रेस के नेतृत्व में लड़े गए स्वतंत्रता संग्राम की उपज भी नहीं है. सत्य तो यह है कि पूरे 1200 वर्ष तक निरंतर लड़ा गया स्वतंत्रता संग्राम भारत में गहरे तक समाए हुए सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन की अभिव्यक्ति था.

भारतीय समाज को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सदियों पर्यंत संघर्षरत रहने की प्रेरणा हमारी संस्कृति ने ही दी. हमारी हस्ती के न मिटने का यही रहस्य है.                              …………… क्रमश:

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