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सामाजिक, सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के दौर में तटस्थता खतरनाक है

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पुणे (विसंकें). प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक जे. नंदकुमार जी ने कहा कि ”वर्तमान में देश में एक बहुत बड़ा सामाजिक और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण हो रहा है. इस स्थिति में विचारकों और बुद्धिजीवियों का तटस्थ होना खतरनाक है और इसलिए उन्हें स्पष्ट भूमिका लेनी चाहिए. जे. नंदकुमार जी ऋतम ऐप और महाराष्ट्र एजुकेशन सोसाइटी द्वारा आयोजित मीडिया संवाद परिषद के समापन सत्र में संबोधित कर रहे थे. मंच पर विश्व संवाद केंद्र (पुणे) के अध्यक्ष मनोहर कुलकर्णी, ऋतम ऐप के कार्यकारी संचालक अजिंक्य कुलकर्णी और भारतीय विचार साधना के न्यासी प्रदीप नाईक उपस्थित थे.

नंदकुमार जी ने देश की वर्तमान स्थिति की चर्चा करते हुए कहा कि देश की स्वतंत्रता का समर आम नागरिकों ने लड़ा था. आम नागरिक के खड़े रहने के कारण ही यह समर हो सका. यह लड़ाई किसी एक व्यक्ति या परिवार द्वारा नहीं लड़ी गई. अब भी आम नागरिकों को जागरूक होने की आवश्यकता है. राष्ट्र के भविष्य के लिए वैचारिक आंदोलन चल रहा है. यह सत्य – असत्य, न्याय – अन्याय की लड़ाई है. देश में सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में ध्रवीकरण चल रहा है और ऐसी स्थिति में विचारक तथा बुद्धिजीवियों का तटस्थ होना ठीक नही है. तटस्थ भूमिका लेकर कुछ नहीं होता. वैचारिक लड़ाई लड़ने के लिए राष्ट्रीय विचारों का अवलंबन करना होगा. किसी भी स्थिति में निष्पक्ष रहने से काम नहीं होगा, बल्कि अपनी भूमिका तय करने की आवश्यकता है. जब देश के प्रत्येक नागरिक की नस-नस में सर्वधर्म समभाव कूट-कूट कर भरा है तो वास्तव में धर्म निरपेक्षता जैसे शब्दों की हमें आवश्यकता नहीं है. हमारे आसपास क्या चल रहा है, इसका आंकलन हमें करना ही होगा. बदलते समय की आहट हमें लगनी ही चाहिए. उन्होंने मौलिक सलाह दी, कि स्वयंस्फूर्त होकर अपने नैतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए राष्ट्रीय विचारों का प्रसार करने हेतु इकोसिस्टम के रूप में हमें कार्यरत रहना होगा.

गरवारे महाविद्यालय के सभागृह में संपन्न माध्यम संवाद परिषद का उद्घाटन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलगुरू जगदीश उपासने जी ने किया. उन्होंने कहा कि वर्तमान में समाज में विचारधाराओं की लड़ाई चल रही है और इसका प्रतिबिंब मीडिया में भी दिखाई दे रहा है. ऐसे में मीडिया को समाज को सही विचारधारा की दिशा दिखाने की आवश्यकता है. मीडिया में अब काफी बदलाव हो रहे हैं. ‘प्रेस’ से ‘मीडिया’ तक के परिवर्तन होने का उल्लेख करते हुए जगदीश जी ने कहा, “प्रेस से मीडिया बनने का बड़ा फासला मीडिया ने तय किया है. पाठकों की समझ में आना चाहिए, कि हमें क्या संदेश देना है. एक समय में प्रिंट मीडिया का एकाधिकार था, जिससे एक निश्चित विचारधारा खड़ी रही. पत्रकारिता कई वर्षों तक राजनीति के इर्दगिर्द घूमती रही. उसमें कुछ अनिवार्यताएं भी थीं. अभी भी उस पद्धति में अधिक बदलाव नहीं हुए, बल्कि वही प्रणाली जारी है.

पत्रकारों को अहसास था और कुछ सीमा तक अहंकार भी था, कि हम समाज के लिए विशिष्ट काम करते हैं. बदलते समय में कई विकल्प खड़े होने के कारण पत्रकारिता का अहंकार कम हो गया है. समाज में परिवर्तन होते गए वैसे ही पत्रकारिता में भी परिवर्तन हुए. कम्युनिज़म ने पूरी दुनिया में पत्रकारों को प्रभावित किया था, वह प्रभाव अभी भी है. अब नया साम्यवाद निर्माण हो रहा है. जिन्हें राष्ट्र की अवधारणा पता नहीं है, ऐसे लोग इस क्षेत्र में आ रहे हैं. हमें आज की स्थिति में दिख रहा है, कि उनका खूबी से उपयोग किया जा रहा है. ऐसे में राष्ट्रीय विचारों के पत्रकारों और विचारधारा को मजबूत करने की आवश्यकता है. समाज को कैसे विचार करना चाहिए, यह अधिक बेहतर रूप से बताने का समय आ चुका है.”

प्रस्तावना में विश्व संवाद केंद्र के अध्यक्ष मनोहर कुलकर्णी जी ने केंद्र के कार्य और माध्यम संवाद परिषद का उद्देश्य बताया. राजीव सहस्रबुद्धे ने महाराष्ट्र एजुकेशन सोसाइटी, और अजिंक्य कुलकर्णी ने ऋतम ऐप के बारे में जानकारी दी.

कार्यक्रम में ‘हम और हमारी भूमिका’ विषय पर वार्ता का आयोजन किया गया था. साप्ताहिक ऑर्गनाइज़र के संपादक प्रफुल्ल केतकर, दैनिक सकाल की सहयोगी संपादक मृणालिनी नानिवाडेकर और मुंबई तरुण भारत के संपादक किरण शेलार ने भाग लिया. साप्ताहिक विवेक के निमेश वहालकर और एकता मासिक पत्रिका के देविदास देशपांडे ने उनसे संवाद किया.

सोशल मीडिया भास-आभास और वास्तव विषय पर सत्र में शेफाली वैद्य,  सुशील अत्रे, विवेक मंद्रूपकर और हेतल राच ने भाग लिया. सोशल मीडिया आज समाज में नया आया हुआ शस्त्र है. उसका अच्छा और बुरा दोनों तरह से प्रयोग हो सकता है. सोशल मीडिया की ओर तटस्थता से देखना आना चाहिए. प्रिंट मीडिया के बंधन सोशल मीडिया पर नहीं हैं, लेकिन फिर भी सोशल मीडिया में सतत कुछ होता है, जिसका वास्तव में निश्चित परिणाम होता है. इसलिए वह आभास नहीं बल्कि वास्तव है.

शेफाली वैद्य ने कहा कि सोशल मीडिया के कारण मैं कई परिवारों का हिस्सा बन सकी और उससे पाठकों का प्रेम मिला. ट्रोल होने के प्रसंग कई बार आए तो भी उससे निश्चय ही मार्ग निकल सकता है. सुशील अत्रे ने कहा कि प्रिंट मीडिया में छपी हुई सामग्री के लिए जिम्मेदार कौन है, यह सर्वज्ञात होता है, वैसा सोशल मीडिया के साथ नहीं होता. अनाम रहकर लिखी हुई सामग्री का लेखक ढूंढना कठिन होता है. हेतल राच ने तकनीकी मुद्दों की जानकारी दी.

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