जैसे ही आकाश में नीले काले मेघ गरजने लगते हैं, सम्पूर्ण सृष्टि रोमांचित हो उठती है. धरती गाने लगती है. और फिर निर्मिती का वह आनंद चारों दिशाओं में फैलने लगता है. शस्य श्यामला धरती हरयाली साड़ी पहनकर वनस्पति, पशु-पक्षी सहित मानव जीवन को पुलकित, उल्लासित कर देती है. सृष्टि का यह आनंद उत्सव हर सजीव को समृद्ध बना देता है.
सृजन के इस गान में निसर्गप्रिय भारतीय समाज अपना स्वर मिला लेता है. धरती मैया की प्रत्येक अवस्था से प्रफुल्लित होकर उसके प्रति विनम्र होता है, उसका पूजन करने लगता है. विविध प्रकार से त्यौहार मनाकर सृष्टि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है. हरियाली तीज, नागपंचमी, ओणम, रक्षाबंधन, शारदीय नवरात्र ऐसे अपने-अपने प्रांत की विशेषता व्यक्त करने वाले यह त्यौहार अपनी-अपनी पद्धति से, विविध नामों से मनाये जाते हैं. परन्तु गहराई से देखें तो प्रत्येक त्यौहार में सृष्टि से एकात्मता व्यक्त करने वाला गान ही झलकता है. अगर त्यौहारों के आशय को ध्यान से देखें तो प्रत्येक नगर-ग्राम तक गाया जाने वाला सृष्टि गान वास्तव में होता है मातृगान. सृष्टि का नमन, पूजन मातृगान ही होता है. सृजन, पोषण, रक्षण यह मातृत्व के गुणविशेष होते है और धरती की विशेषता के कारण ही मनुष्य का जीवन प्रवाहित होता है, अक्षुण्ण बन जाता है.
वैसे तो पृथ्वी को महामाता कहा गया है और इस महामाता के कारण ही हम सभी का निर्माण होता है, पोषण होता है और संरक्षण-संवर्धन भी होता रहता है. भारतीय समाज की विशेषता यह है कि मातृत्व का यह सम्मान केवल धरती तक सीमित नहीं है. उस विराट धरती का लघुरूप स्त्री में देखा जाता है. जैसी धरती माता है, वैसे ही गुणों से समृद्ध मनुष्य माता भी है. निर्माण, पोषण, संरक्षण-संवर्धन की अद्भुत, अपार क्षमता दोनों में समान रूप से विद्यमान है. वह तो प्रत्येक सृजन शक्ति के प्रति विनम्रता का भाव व्यक्त करने वाली, शक्ति की आराधना करने वाली, मातृत्व के प्रति कृतज्ञता का जागरण करने वाली होती है. इसलिए आदि शक्ति जगत् जननी का अंश रूप प्रत्येक स्त्री में विद्यमान है. इस पर भारतीयों की श्रद्धा है. अर्थात इस चर्तुमास में मनाये जाने वाले उत्सवों में स्त्रियों को विशेष रूप से सम्मानित किया जाता है, स्त्री तत्व के सभी अविष्कारों का अभिनन्दन किया जाता है. शारदीय नवरात्र के समय तो कन्यापूजन का बड़ा महत्व होता है. कन्या भविष्यकालीन निर्माण शक्ति है, इसके कारण अत्यंत छोटी अवस्था में भी वह वंदनीय स्थान प्राप्त करती है.
नवरात्र के समय शक्ति आराधना, वंदना, अर्चना करने के बाद दीपावली का उत्सव पूरे भारतवर्ष में धूमधाम से मनाया जाता है. चार-पांच दिन चलने वाले इस महोत्सव में प्रत्येक दिन की अपनी विशेषता होती है और अधिक बारिकी से देखें तो इस समय का प्रत्येक दिन स्त्री सम्मान का ही दिन है. दीपावली का आरंभ गौ पूजन से होता है. यह भी तो माता पूजन ही है. धनतेरस के बाद नरक चतुर्दशी आती है. भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध करके अपहरण की गई अनेक महिलाओं को मुक्त कराया था और उनको सम्मानित जीवन प्रदान किया था. उसके बाद का दिन लक्ष्मी पूजन का दिन होता है. लक्ष्मी का पूजन घर-घर में होता है. लक्ष्मी स्वयं वैभव का प्रतीक है. लक्ष्मी प्रगति की निशानी है. लक्ष्मी प्रत्यक्षत: स्त्री तत्व ही है. उसकी प्रसन्नता के बिना न गतिशीलता संभव है, न वैभव की प्राप्ति संभव है. लक्ष्मी के कृपाशिर्वाद से ही मनुष्य जीवन पर सुखानंद की बरसात होती है. दीपावली से जुडा हुआ भाईदूज त्यौहार भाई-बहन के बीच का प्यार व्यक्त करता है और स्त्री को सम्मानित भी करता है.
दु:ख की बात यह है कि प्रत्येक त्यौहार के द्वारा स्त्रियों का सम्मान बहुत किया जाता है. मातृशक्ति के प्रति हर संभव श्रद्धा व्यक्त की जाती है, परन्तु दैनंदिन जीवन में वह सम्मान लुप्त सा हो गया है. त्यौहारों के प्रसंग पर किया जाने वाला मान-सम्मान वहीं तक सीमित रहता है. आज भी स्त्रियों की अनेक प्रकार से अवहेलना होती है, यह दु:खद परन्तु वास्तविक चित्र है. स्त्री सृजन का उत्सव तो मनाया जाता है, परंतु उसी स्त्री तत्व का प्रतीक गर्भ में ही मारा जा रहा है. स्त्री और पुरुष जन्मदर में चिंतनीय अंतर है. कन्याओं को स्कूल में डालना आज भी प्रत्येक जगह संभव नही है. जितनी कन्याएं स्कूल में प्रवेश लेती है, उससे अधिक स्कूल में प्रवेश ही नहीं ले पाती है. अनेक लड़कियों के जीवन में दसवीं कक्षा का दर्शन करना आज भी असंभव सा है. जहां पुरूष साक्षरता का प्रमाण 82% है, वहीं स्त्री साक्षरता का प्रमाण 65% है. यहां केवल साक्षरता की बात लिखी है. उच्च शिक्षा का प्रमाण और भी कम है. भारत में हर 14 मिनट बाद एक स्त्री पर अत्याचार होता है और आत्महत्या करने वाले किसानों से तीन गुना ज्यादा संख्या पीड़ित महिलाओं की होती है. जिनको आत्महत्या के लिए बाध्य होना पड़ रहा है. स्त्रियों की अवहेलना, स्त्रियों का शोषण, उनके प्रति अनुदार दृष्टिकोण किसी भी समाज को शोभा नहीं देता हैं.
जो समाज सृष्टि के प्रत्येक अविष्कार को जगतजननी का कृपा प्रसाद मानता है. धरती को, नदी को, गाय को, वेदों को, ऐसे शक्ति के प्रत्येक अविष्कार को माता कहता है. ऐसे समाज का यह दायित्व बनता है कि प्रत्येक स्त्री को विकास का अवसर प्राप्त हो, इस दृष्टि से अपने आप को कटिबद्ध करे. स्त्री जन्म से लेकर स्त्री पर होने वाले अन्याय, अत्याचारों को नष्ट करना स्त्री समाज की अवहेलनाजन्य अवस्था में परिवर्तन लाकर सम्मानजन्य स्थिति प्राप्त करने योग्य व्यवस्था उत्पन्न करने का संकल्प करना, यह आज की आवश्यकता है.
त्यौहार का वास्तविक अर्थ स्त्रियों का जीवन भर सम्मान करने से जुडा है. प्रत्येक समाज व्यवस्था में स्त्रियों का सम्मान यह एक अत्यावश्यक परंपरा बनाने की आवश्यकता है. दीपावली इस नाम में ही दीप शब्द समाया हुआ है. दीप का अर्थ है प्रकाश अर्थात् अंधकार पर विजय का आरोहण. घर-घर में, मठ मंदिरों में, व्यापारी समूहों में दिए जलाकर हम अपनी विजयाकांक्षा ही व्यक्त करते हैं. भारतीय समाज जीवन में जिस चीज का अभाव है, जहां अन्याय है, ऐसी प्रत्येक जगह पर अंधकार को नष्ट करते हुए दीपक जलाना यही वास्तविक दीपावली होगी. आईये हम सब मिलकर स्त्री जीवन में व्याप्त अंधकार को नष्ट कर संकल्प करें कि आने वाली प्रत्येक दीपावली स्त्री जीवन में उजाला लाने वाली होगी. जब स्त्री और पुरुष दोनों का जीवन प्रकाशित होगा तो सबके लिए विकास का मार्ग प्रशस्त होगा. तभी समाज रूपी गरूड आकाश में लहरेगा. सृष्टि रोमांचित होगी, धरती गाना गायेगी और उस आंनदमयी उत्साही स्वर में प्रत्येक स्त्री अपना स्वर मिलाएगी और आने वाले दिन अपने आप दिपंकर बनेंगे.
लेखिका – सुनीला सोवनी