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हर देश की एक प्रकृति होती है और भारत की प्रकृति आध्यात्मिक है – स्वामी नरसिम्हानंद जी

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रांची. रांची के खेलगांव अवस्थित लोकमंथन २०१८ कार्यक्रम के दूसरे दिन प्रेस को संवोधित करते हुए प्रज्ञा प्रवाह केन्द्रीय टोली के सदस्य और साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका ऑरगनाइज़र के सम्पादक प्रफुल्ल केतकर जी ने कहा कि “आज लोकमंथन २०१८ के द्वितीय दिवस पर  समाजअवलोकन पर केंद्रित कार्यक्रमों की श्रृंखला चली, जिसमें प्रथम सत्र के मुख्य वक्ता के रूप में प्रोफेसर शंकर शरण ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि दुनिया में भारत के अलावा कोई ऐसा देश नहीं है, जहां पर 3000 साल पहले जो साहित्य पढ़ा जा रहा था, वही साहित्य आज भी पढ़ा जा रहा है. उसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. विदेशी संस्कृति वालों ने भारत को देखकर यह धारणा बना ली कि यह समाज बदल देने लायक है, मिटा देने लायक है. “कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि भारत के लोग इतने गए गुजरे हैं कि बंदर और गाय की पूजा करते हैं, यह देश विजित करने के लिए ही बना है. यह भारत भूमि का प्रताप है कि तीन दशकों से शिक्षा को साम्यवादियों ने हिंदू विरोधी बना रखा है, परंतु वे अपनी इच्छा अनुरूप भारतीय समाज को बदलने में आज भी सफल नहीं हो पाए हैं.

अध्यक्षीय संबोधन में स्वामी नरसिम्हानंद जी ने कहा कि “आज भारत की दुर्दशा इसलिए है क्योंकि हम नारियों की पूजा करते हैं, लेकिन उनका सम्मान नहीं करते. भारतीय मूल्यों को आत्मसात करने वाला हर बच्चा हर एक स्त्री को अपनी माता मानता है और भारत की नारी मातृत्व को ही अपनी पूर्णता मानती है. हर देश की एक प्रकृति होती है और भारत की प्रकृति आध्यात्मिक है. जहां तक हो सके जितना हो सके यदि हम सेवा करें, तो हमारा समाज आगे बढ़ेगा. आज स्थिति यह हो गई है कि हम अपना खान-पान और पहनावा छोड़कर विदेशी खाद्य और पहनावा अपनाने में लगे हुए हैं, यह सांस्कृतिक पतन है. भारतीय शास्त्रों में यह विधान है कि अगर कोई व्यक्ति भगवान की निंदा करे तो भी उसे मोक्ष प्राप्त होता है.

झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा जी ने झारखण्ड के जनजाति समाज के अवलोकन के बारे में अपने विचार व्यक्त किए. जनजाति पृष्ठभूमि देखने के लिए उन्होंने दो आयाम बताए कि बात अगर सामाजिक पृष्ठभूमि की है तो वे काफी मजबूत है और बात यदि आर्थिक स्थिति की है तो इस मामले में वे कमजोर हैं. उन्होंने समाज के दो तबको पर प्रकाश डालते हुए कहा कि एक कृषि आधारित समाज है, जिसमें जनजाति सम्मिलित हैं और दूसरा नगरीय समाज है जो उद्योग पर निर्भर है.

प्रखर राष्ट्रवादी चिन्तक डॉक्टर कौशल पंवार ने कहा कि जब तक हम सारी की सारी अस्मिताओं को इकट्ठा होकर एक समान नजरिए से नहीं देखेंगे, जब तक इन अस्मिताओं के सवाल को हम एक साझा मंच लेकर विमर्श तक नहीं लेकर आएंगे, तब तक हम सुखी और आनंदित नहीं हो पाएंगे. सर्वे भवंतु सुखिन: तभी संभव होगा, जब हम सारी अस्मिताओं को एक मंच पर लाकर इकट्ठा करेंगे. कौशल पंवार जी ने समाज को अपने नजरिए से तीन भागों में बांटते हुए बताया कि पहला शास्त्रीय समाज होता है जो परंपराओं से चलता है, दूसरा व्यवहारिक समाज होता है जो पारिवारिक अनुभूतियों के सहारे चलता है और तीसरा वैधानिक समाज होता है जो नियम-कानूनों के सहारे चलता है. उन्होंने प्रति प्रश्न किया कि जब वैदिक काल से सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया की बात हो रही है तो यह व्यवहार में क्यों नहीं है? हमारे समाज में वर्ण और जाति का भेदभाव आखिर क्यों है?

दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज की प्राध्यापिका और भारतीय एतिहासिक अनुसन्धान परिषद् के सदस्य डॉ. मीनाक्षी जैन ने “विश्व में भारत का क्या स्थान रहा है” इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि प्राचीन समय से भारत पर लिखी गई विशाल सामग्री उपलब्ध है. विश्व की दृष्टि में भारत का महत्व स्पष्ट करने के लिए उन्होंने बताया कि विदेशी शासकों द्वारा यहां के शासक को पत्र लिखकर मोर पंख और हाथी दांत के साथ-साथ दार्शनिक ग्रन्थ भी भेजने का निवेदन किया जाता था. ग्रीक इतिहासकारों ने पोरस की बहादुरी का वर्णन अपनी कृतियों में किया है. मेगस्थनीज द्वारा लिखी गई पुस्तक इंडिका का उल्लेख करते हुए उन्होंने सभा को बताया कि इसमें इस तथ्य को प्रमुखता के साथ स्थान दिया गया है कि भारत एक विशाल क्षेत्र में विस्तृत है, परंतु यहां के लोगों को भारत की पूरी भौगोलिक जानकारी प्राप्त है. विदेशी यात्रियों ने भारतीय राजाओं के खजाने, उनके किलों की भव्यता, शासन व्यवस्था और 9 दिनों तक चलने वाले दशहरे के त्यौहार का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है. डॉ. राकेश मिश्रा ने भारतीय चिंतन को दर्शकों के समक्ष स्पष्टता के साथ अभिव्यक्त किया और भारतीय वेद तथा उपनिषद के प्रासंगिक तथ्यों को सभी के समक्ष रखा. डेविड फ्राले ने अपने उन्मुक्त चिंतन में कहा कि आज विश्व भारत की चिंतन को आत्मसात करने को उत्सुक किन्तु हम भारतीय इस दिशा में उदासीन हैं. भारतीय चिंतन की विस्तृत व्याख्या करते हुए उन्होंने भारत की संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ बताया.

डॉ. सोनल मानसिंह ने भारत और जापान का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए कहा कि जापान दो विश्वयुद्ध के बाद खड़ा हो गया. भारत में तो विश्वयुद्ध का कुछ था ही नहीं और गांधी जी के कहने पर भारतीय सैनिकों ने अपने प्राण दिए. जापान की गाड़ियां और यंत्र विश्व भर में चले. अमेरिका से ज्यादा जापान के यंत्र प्रचलित थे. एक समय ऐसी स्थिति थी. जापान को आज जनसंख्या बढ़ानी है, जबकि हमारे यहां जनसंख्या को नियंत्रित करना है. आज जापान रोबोटिक सभ्यता बनने जा रहा है. वहां यंत्रमानव की जरूरत है, पर हमें यंत्र मानव की नहीं मानव बनने की जरूरत है. भारत को मातृ संस्कृति कहा गया. हमें अपने ऊपर गर्व करने का पूरा अधिकार है. लेकिन अधिकार का अधिकारी होना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. यदि हम कान में ध्वनि यंत्र लगाकर मोबाइल के गुलाम बन गए हैं, यदि हम गूगल को आचार्य मान रहे हैं, यदि हम फेसबुक और ट्विटर पर जो लिख रहे हैं उनको विद्वान मान रहे हैं, यदि हम फिल्मों के गानों को समझ रहे हैं कि यही हमारी सभ्यता संस्कृति है तो हम बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं. हमें निरंतर अपने आप में डूबना पड़ेगा. फिर से समझना होगा कि कहां हम निर्बल है? कहां फिर से बल जुटाने की आवश्यकता है.

इसके उपरांत उपस्थित जनसमूह द्वारा समाज अवलोकन से संबंधित विभिन्न प्रश्न पूछे गए, जिसका वक्ताओं ने उत्तर दिया.

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