जर्मन लेखिका मारिया विर्थ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर मांग की है कि संयुक्त राष्ट्र में हिन्दुओं के लिए ‘हीदन’, ‘काफिर’ और ‘बुतपरस्त’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए भारत सरकार एक याचिका दायर करे. प्रस्तुत है उनका पत्र –
आदरणीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी,
मैं भारतीय नागरिक नहीं हूं, लेकिन मैं भारत का सम्मान करती हूं और मेरी इच्छा है कि इसकी संस्कृति पल्लवित हो और समस्त विश्व को सुवासित करे, क्योंकि यह संपूर्ण मानव जाति के लिए हितकारी है. भारत को छोड़कर, सभी प्राचीन संस्कृतियों को ईसाई या इस्लाम या कुछ मामलों में साम्यवाद ने नष्ट कर दिया है. भारत एकमात्र पुरातन संस्कृति है, जो अब भी प्राणवान है, लेकिन उसे भी लील जाने के लिए ये तीन नकारात्मक शक्तियां घात लगाकर बैठी हैं.
कृपया मुझे एक सुझाव देने की अनुमति दें, क्योंकि मैं अंदरूनी तौर पर ईसाई मत और हिन्दू धर्म दोनों से भली-भांति परिचित हूं.
‘हीदन’, ‘काफिर’ और ‘बुतपरस्त’ ऐसे शब्द हैं जो अपमानजक और हेय माने जाते हैं, फिर भी ईसाई और मुस्लिम बच्चों को बेहिचक इन शब्दों को हिन्दुओं के लिए इस्तेमाल करना पढ़ाया जाता रहा है. यह एक खतरनाक चलन है, क्योंकि ये शब्द हिन्दुओं को अमानवीय बताते हैं. जिससे घृणाजनित अपराध जन्म लेते हैं और कई बार नरसंहार का कारण भी बनते हैं. संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकारी ने कहा कि यहूदियों का नरसंहार गैस चैम्बर से नहीं, बल्कि घृणा उगलते भाषणों से शुरू हुआ था. ऐसा ही हिन्दुओं के खिलाफ भी हो रहा है. इन दोनों पंथों की मजहबी सभाओं में दिए जा रहे प्रवचनों में नियमित रूप से हिन्दुओं के खिलाफ घृणा भरे भाव व्यक्त किए जाते हैं.
क्या भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र में ईसाई और मुस्लिम मतावलंबियों द्वारा हिन्दुओं के प्रति भेदभाव दर्शाने वाले शब्द ‘हीदन’ और ‘काफिर’ को मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचाने और समानता का उल्लंघन करने वाला घोषित करने की याचिका दे सकती है, जिन्हें ईश्वर स्वर्ग का अधिकारी नहीं मानता और नरक में फेंक देता है?
बुरा मंतव्य रखने वाले नेता संकीर्ण और साम्प्रदायिक विचारधारा में हिंसा का उन्माद घोलकर अपने समर्थकों को बार-बार याद दिलाते हैं कि ‘अल्लाह चाहता है कि पृथ्वी पर सिर्फ मुसलमानों का राज हो और इसलिए उन्हें जिहाद करना होगा, तभी जन्नत नसीब होगी’ (कुरान). चर्च अब उतना मारक नहीं रहा, जैसा पहले था. लेकिन ‘हीदन’ अब भी उसकी नजर में हेय है, जिसे कन्वर्ट करना उसका कर्तव्य है. इससे समाज को बहुत नुकसान पहुंच रहा है. दोनों पंथों के अनुयायी अपने बच्चों के अंदर बालपन की कोमल अवस्था में ही अपनी-अपनी मजहबी विचारधाराओं का कट्टर पाठ सिखा रहे हैं. जिसकी गांठ बहुत मजबूत होती है, भारत में तो यह कुछ ज्यादा ही कठोर होती है, ताकि उनके अंदर भूल से भी वापस लौटने की इच्छा न जागे.
मजहबी स्वतंत्रता की अपनी सीमाएं होती हैं, उसका अतिक्रमण होने से दूसरों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन होता है.
भारत, इज़रायल, जापान, चीन, नेपाल, थाईलैंड जैसे एशियाई देशों में इस मुद्दे को गंभीरता से देखने की जरूरत है, क्योंकि बाकी दुनिया के देशों में मुस्लिम या ईसाई बहुल आबादी बसी है. हालांकि कई पंथनिरपेक्ष यूरोपीय सरकारें इस तरह की याचिका का समर्थन कर सकती हैं, क्योंकि उनके नागरिक अब चर्च के बताए सभी रास्तों का पालन करना जरूरी नहीं समझते.
पाकिस्तान और इस्लामी सहयोग संगठन ने संयुक्त राष्ट्र में इस्लाम और इस्लामोफोबिया की आलोचना पर प्रतिबंध लगाने के लिए याचिका दायर की है, जो उनकी बुरी नियत दर्शाती है और इस बात का संकेत देती है कि उन्हें भी मालूम है कि वे अपने सिद्धांत का विवेकपूर्ण बचाव नहीं कर सकते.
भारत की चिंता उचित है और इस संबंध में कदम उठाना अत्यंत जरूरी है. हिन्दुओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है और उनके साथ हीन बर्ताव किया जाता है जो उनके लिए बहुत पीड़ादायी है. हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच शांति और सौहार्द का संदेश तभी सार्थक हो सकता है, जब हिन्दुओं के संबंध में मुसलमानों द्वारा सिखाए जा रहे पाठ का संदेश विवेकपूर्ण हों.
अब समय आ चुका है कि भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र में इस तथ्य पर अपनी आपत्ति दर्ज करे, क्योंकि अधिकांश भारतीय नागरिकों को प्राणियों में सबसे बुरा घोषित किया जा रहा है ‘जो अनंतकाल तक नरक की यातना भोगेगा’ (कुरान). चर्च का यह भी दावा है कि ‘हिन्दू नरक से नहीं बच पाएंगे, अगर वे यीशु का नाम सुनने के बाद भी उनकी शरण में नहीं आते’.
हिन्दू नहीं मानते कि परमेश्वर उन्हें नहीं अपनाएंगे, लेकिन कई भारतीय मुस्लिम और ईसाई ऐसा ही मानते हैं. उन दावों को सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करके उनमें से कई आश्चर्य भी करते होंगे कि क्या यह वास्तव में सच हो सकता है?
इन दोनों पंथों में संभवत: सुधार मुमकिन नहीं, लेकिन इसके हानिकारक संदेशों का पालन न करने की राह का विकल्प खुला है. ईसाई पंथ और कुछ हद तक इस्लाम से भी पलायन शुरू होने लगा है. भारत इस रुझान को तेज करने में अहम भूमिका निभा सकता है.
उस विचारधारा को कटघरे में खड़ा करने का समय आ चुका है, जिसकी जद में सैकड़ों सालों से लाखों लोगों ने जान गंवाई है. इसे बदलने का प्रयास सभ्यताओं की संघर्ष गाथा का संभवत: सबसे महत्वपूर्ण मोड़ होगा.
साभार – पाञ्चजन्य