नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में देशप्रेम से परिपूर्ण अनेक गीत गाये जाते हैं. उनका उद्देश्य होता है, स्वयंसेवकों को देश एवं समाज के साथ एकात्म करना. इनमें से अधिकांश के लेखक कौन होते हैं, प्रायः इसका पता नहीं लगता. ऐसा ही एक लोकप्रिय गीत है, ‘‘पूज्य माँ की अर्चना का, एक छोटा उपकरण हूँ’’ इसके लेखक थे मध्य भारत के वरिष्ठ प्रचारक दत्ताजी उनगाँवकर, जिन्होंने अन्तिम साँस तक संघ-कार्य करने का व्रत निभाया.
दत्ताजी का जन्म 1924 में तराना, जिला उज्जैन में हुआ था. डाक विभाग में सेवारत होने के कारण उनके पिता कृष्णराव जी का स्थानान्तरण होता रहता था. अतः दत्ताजी की शिक्षा भानपुर, इन्दौर, अलीराजपुर, झाबुआ तथा उज्जैन में हुई. उज्जैन में उनका एक मित्र शंकर शाखा में जाता था. एक बार भैया जी दाणी का प्रवास वहाँ हुआ. शंकर अपने साथ दत्ताजी को भी उनकी बैठक में ले गया. दत्ताजी उस दिन बैठक में गये, तो फिर संघ के ही होकर रह गये. वे क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे, पर फिर उन्हें शाखा का ऐसा चस्का लगा कि वे सब भूल गये. उनके मन में सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति अत्यधिक निष्ठा थी. इण्टर की परीक्षा के दिनों में ही इन्दौर में उनका प्रवास था. उसी दिन दत्ताजी की प्रायोगिक परीक्षा थी. शाम को 4.30 पर गाड़ी थी. दत्ताजी ने 4.30 बजे तक जितना काम हो सकता था किया और फिर गाड़ी पकड़ ली.
इसके बाद वे बीएससी करने कानपुर आ गये. वहाँ उनके पेट में एक गाँठ बन गयी. बड़े ऑपरेशन से वे ठीक तो हो गये, पर शारीरिक रूप से सदा कमजोर ही रहे. प्रथम और द्वितीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग तो उन्होंने किसी प्रकार किये, पर तृतीय वर्ष का वर्ग नहीं किया. सन् 1947 में उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया. साइकिल चलाने की उन्हें मनाही थी. अतः वे पैदल ही अपने क्षेत्र में घूमते थे. वे छात्रावास को केन्द्र बनाकर काम करते थे. जब वे मध्य प्रदेश में शाजापुर के जिला प्रचारक बने, तो छात्रों के माध्यम से ही उस जिले में 100 शाखाएँ हो गयीं.
सन् 1948 में प्रतिबन्ध के समय वे आगरा में सत्याग्रह कर जेल गये और वहाँ से लौटकर फिर संघ कार्य में लग गये. सन् 1951 में उन्हें गुना जिला प्रचारक के साथ वहाँ से निकलने वाले ‘देशभक्त’ नामक समाचार पत्र का काम देखने को कहा गया. उन्हें इसका कोई अनुभव नहीं था, पर संघ का आदेश मानकर उन्होंने सम्पादन, प्रकाशन और प्रसार जैसे सब काम सीखे. काम करते हुए रात के बारह बज जाते थे. भोजन एवं आवास का कोई उचित प्रबन्ध नहीं था. इसके बाद भी किसी ने उन्हें उदास या निराश नहीं देखा.
प्रचारक जीवन में अनेक स्थानों पर रहकर उन्होंने नगर, तहसील, जिला, विभाग प्रचारक, प्रान्त बौद्धिक प्रमुख, प्रान्त कार्यालय प्रमुख, प्रान्त एवं क्षेत्र व्यवस्था प्रमुख जैसे दायित्व निभाये. अनेक रोगों से घिरे होने के कारण 84 वर्ष की सुदीर्घ आयु में छह अक्तूबर, 2006 को उनका देहान्त हो गया. अपने कार्य और निष्ठा से उन्होंने स्वलिखित गीत की निम्न पंक्तियों को साकार किया.
आरती भी हो रही है, गीत बनकर क्या करूँगा
पुष्प माला चढ़ रही है, फूल बनकर क्या करूँगा
मालिका का एक तन्तुक, गीत का मैं एक स्वर हूँ
पूज्य माँ की अर्चना का एक छोटा उपकरण हूँ..