नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को विश्वव्यापी रूप देने में अप्रतिम भूमिका निभाने वाले लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े जी का जन्म अकोला (महाराष्ट्र) में 1918 में हुआ था. उनके पिता श्री श्रीकृष्ण भिड़े सार्वजनिक निर्माण विभाग में कार्यरत थे. छात्र जीवन से ही लक्ष्मण में सेवाभाव कूट-कूट कर भरा था. सन् 1932-33 में जब चन्द्रपुर में भयानक बाढ़ आयी, तो अपनी जान पर खेलकर उन्होंने अनेक परिवारों की रक्षा की. एक बार माँ को बिच्छू के काटने पर उन्होंने तुरन्त अपना जनेऊ माँ के पैर में बाँध दिया. इससे रक्त का प्रवाह बन्द हो गया और माँ की जान बच गयी.
चन्द्रपुर में उनका सम्पर्क संघ से हुआ. वे बाबासाहब आप्टे से बहुत प्रभावित थे. वर्ष 1941 में वे प्रचारक बने तथा 1942 में उन्हें लखनऊ भेजा गया. वर्ष 1942 से 57 तक उन्होंने उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों एवं दायित्वों पर रहते हुए कार्य किया. 1957 में उन्हें कीनिया भेजा गया. 1961 में वे फिर उत्तर प्रदेश में आ गये. वर्ष 1973 में उन्हें विश्व विभाग का कार्य दिया गया. इसके बाद बीस साल तक उन्होंने उन देशों का भ्रमण किया, जहाँ हिन्दू रहते हैं.
विदेशों में हिन्दू हित एवं भारत हित में उन्होंने अनेक संस्थाएँ बनायीं. इनमें 1978 में स्थापित ‘फ्रेंडस ऑफ इंडिया सोसायटी इंटरनेशनल’ प्रमुख है. वर्ष 1990 में जब भारतीय दूतावास ही विदेशों में भारतीय जनता पार्टी की छवि धूमिल कर रहा था, तो उन्होंने ‘ओवरसीज फ्रेंडस ऑफ बीजेपी’ का गठन कर कांग्रेसी षड्यन्त्र को विफल किया. जब मॉरीशस के चुनाव में गुटबाजी के कारण हिन्दुओं की दुर्दशा होने लगी, तो उन्होंने सबको बैठाकर समझौता कराया. इससे फिर से हिन्दू वहाँ विजयी हुये.
शरीर से बहुत दुबले भिड़े जी सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति थे. आवश्यकताएं कम होने के कारण उनका खर्चा भी बहुत कम होता था. विदेश प्रवास में कार्यकर्ता जबरन उनकी जेब में कुछ डॉलर डाल देते थे, पर लौटने पर वह वैसे ही रखे मिलते थे. वैश्विक प्रवास में ठण्डे देशों में वे कोट-पैंट पहन लेते थे, पर भारत में सदा वे धोती-कुर्ते में ही नजर आते थे. वर्ष 1992 में वे दीनदयाल शोध संस्थान के अध्यक्ष बने. दिल्ली में उसका केन्द्रीय कार्यालय है. वहाँ अपने कक्ष में लगे वातानुकूलन यन्त्र (एसी) को उन्होंने कभी नहीं खोला. उस कक्ष की आल्मारियाँ सदा खाली रहीं, उनमें ताला भी नहीं लगता था. क्योंकि उनमें निजी सामान कुछ विशेष था ही नहीं.
अलग-अलग जलवायु और खानपान वाले देशों में निरन्तर प्रवास के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था. अंतिम कुछ महीनों में उन्हें गले सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयीं. इस कारण उनकी वाणी चली गयी. बहुत कठिनाई से कुछ तरल पदार्थ उनके गले से नीचे उतरते थे. फिर भी वे सबसे प्रसन्नता से मिलते थे तथा स्लेट पर लिखकर वार्तालाप करते थे. दिसम्बर 2000 में मुम्बई में ‘विश्व संघ शिविर’ हुआ. खराब स्वास्थ्य के बावजूद लक्ष्मण जी वहाँ गये. विश्व भर के हजारों परिवारों में उन्हें बाबा, नाना, काका जैसा प्रेम और आदर मिलता था. यद्यपि वे बोल नहीं सकते थे, पर सबसे मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए. वहाँ सबके नाम लिखा उनका एक मार्मिक पत्र पढ़ा गया, जिसमें उन्होंने सबसे विदा माँगी थी. उन्होंने सन्त तुकाराम के शब्दों को दोहराया – आमी जातो आपुल्या गावा, आमुचा राम-राम ध्यावा. पत्र पढ़ और सुनकर सबकी आँखें भीग गयीं. शिविर समाप्ति के एक सप्ताह बाद सात जनवरी, 2001 को उन्होंने सचमुच ही सबसे विदा ले ली.