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11 जून / शिवाजी राज्याभिषेक दिवस स्वराज्य और सुशासन की विरासत

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ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक समारोह रायगढ़ किले पर संपन्न हुआ. तारिख थी 6 जून 1674. आज इस घटना को 340 साल हो रहे हैं. शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक एक युगपरिवर्तनकारी घटना थी. महाराजा पृथ्वीराज सिंह चौहान के बाद भारत से हिंदू शासन लगभग समाप्त हो चुका था. दिल्ली में मुगलों की सल्तनत थी, और दक्षिण में आदिलशाही, कुतुबशाही आदि मुस्लिम राजा राज्य कर रहे थे. सभी जगह इनके सरदार-सेनापति हिंदू ही रहा करते थे. मतलब यह हुआ की, हिंदू सेनाप्रमुखों ने ही हिंदुओं को गुलाम किया और उन पर विदेशी मुसलमानों की सल्तनत बिठा दी.

शिवाजी महाराज उस जमाने में एक ऐेसे युगपुरुष हो गये, जिन्होंने विदेशी सल्तनत से खुद को अलग रखा और अपना स्वतंत्र राज्य निर्माण किया. उन के समकालीन सभासदकार राज्याभिषेक के संदर्भ में लिखते है – ‘येणे प्रमाणे राजे सिंहासनारुढ़ जाले. या युगी सर्व पृथ्वीवर म्लेच्छ बादशाह मऱ्हाटा पातशहा येवढा छत्रपती जाला. ही गोष्ट काही सामान्य जाली नाही.’ मतलब भारत भर म्लेच्छ राजा थे, उन को चुनौती देकर शिवाजी ने अपना स्वतंत्र राज्य निर्माण किया. यह घटना सामान्य नहीं थी.

जब देश परतंत्र में जाता है तब शासनकर्ता जमात का अनुकरण और अनुसरण लोग करने लगते हैं. समाज का नेतृत्व करने वाले विद्वतजन, सेनानी, राजधुरंधर परानुकरण में धन्यता मानने लगते हैं. समाज भी इन्हीं लोगों का अनुकरण करता रहता है. धर्म की ग्लानि होती है, परधर्म में जानेवालों की संख्या बढ़ती रहती है. अपने जीवनादर्श से लोग दूर होते रहते हैं. दिल्लीश्वर यह जगदीश्वर है, ऐसी भावना पनपने लगती है. भाषा का विकास अवरुध्द हो जाता है. परकीय भाषा का बोलबाला होता रहता है. मुसलमानी शासन के काल में अरबी, पारसी, तुर्की भाषा का प्रयोग भारत में होने लगा. राजव्यवहार की भी यही भाषा रही. समर्थ रामदास स्वामी ने इस परानुकरण वृत्ति को इन शब्दों में व्यक्त किया है-

‘कित्येक दावलमलकास जाती. कित्येक पिरास भजती.

कित्येक तुरुक होती. आपुल्या इच्छेने.’

ब्राह्मण बुध्दीपासून चेवले. आचारापासून भ्रष्टले.

गुरुत्व सांडुन झाले. शिष्य शिष्यांचे.

राज्यनेले म्लेंच्छक्षेत्री. गुरुत्व गेले कुपात्री.

आपण अरत्री ना परत्री. काहीच नाही॥

इस का सारांश ऐसा है कि स्वेच्छा से कोई पीर भक्त बन गये हैं, तो कोई मुसलमान बन रहे हैं. समाज का बौध्दिक नेतृत्व ब्राह्मणों को करना चाहिये, लेकीन वे भ्रष्ट हो गये हैं. राज्य म्लेच्छ के हाथों में गया, और समाज के गुरु कुपात्र व्यक्ति बन गये हैं और हमारी स्थिति ना घर की ना घाट की, ऐसी बन गयी है.

जब भारत में अंग्रेजों का शासन आया, तब भी यही स्थिति बनी रही. अंग्रेजों के काल में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव बढ़ा, ईसाइयत का प्रभाव बढ़ा और समाज के ज्येष्ठ लोग ईसाई बनने लगे. स्वतंत्रता के बाद भी, गोरे अंग्रेज चले गये और काले अंग्रेजों का राज शुरू हुआ. परिस्थिति में कोई मौलिक अंतर नहीं आया. अंग्रेजी भाषा का प्रभाव वैसे ही बना रहा, और ईसाई बनने की होड़ पहले जैसे ही बनी रही.

छत्रपति शिवाजी महाराज ने 340 साल पहले स्वराज्य, स्वधर्म, स्वभाषा और स्वदेश के पुनरुत्थान के लिये जो कार्य किया है, उस की तुलना नहीं हो सकती. उनका राज्याभिषेक एक व्यक्ति को राजसिंहासन पर बिठाना, इतने तक सीमित नहीं था. शिवाजी महाराज मात्र एक व्यक्ति नहीं, वे एक विचार और एक युगप्रवर्तन के शिल्पकार थे. भारत एक सनातन देश है, यह हिंदुस्थान है, तुर्कस्थान नहीं, और यहां पर अपना राज होना चाहिये.  अपने धर्म का विकास होना चाहिये, अपने जीवनमूल्यों को चरितार्थ करना चाहिये. शिवाजी महाराज का जीवनसंघर्ष इसी सोच को प्रस्थापित करने के लिये था. वे बार बार कहा करते थे कि, ‘यह राज्य हो, यह परमेश्वर की इच्छा है. मतलब स्वराज्य संस्थापना यह ईश्वरीय कार्य है. मैं ईश्वरीय कार्य का केवल एक सिपाही हुँ.’

ईश्वरीय कार्य की प्रेरणा उन्होंने अपने सभी सहकारियों में निर्माण की. हमे लड़ना है, लड़ाई जितनी है, वह किसी एक व्यक्ति के सम्मान के लिये नहीं, तो ईश्वरीय कार्य की पूर्ति के लिये हमको लड़ना है. जब यह भाव जीवन का एक अविभाज्य अंग बनता है, तब हर एक व्यक्ति में सहस्र हाथियों का बल उत्पन्न होता है. पन्हाल गढञ से शिवाजी महाराज सिध्दी जौहर को चकमा देकर विशाल गढ़ की ओर जा रहे थे, सिध्दी जौहर को उसका पता लगा और उसने महाराज का पीछा किया. रास्ते में एक दुर्गम रस्ता आता है, जिसे मराठी में खिंड बोलते है, जहा से दो-तीन व्यक्ति ही जा सकते हैं. उस घाटी में बाजीप्रभु देशपांडेजी ने अपने चंद साथियों से जो लड़ाई लड़ी, उसकी तुलना अन्य किसी लड़ाई से नहीं हो सकती. हजारों की सेना को उसने रोक कर रखा और अंत में वे धराशयी हो गये. उन्होने अपने प्राण तब तक रोक कर रखे थे, जब तक विशाल गढ़ से शिवाजी महाराज के कुशलता पूर्वक पहुंचने की संकेतक तोपों की गर्जना सुनाई नहीं दी. एक व्यक्ति और उनके साथियों ने इस प्रकार का दशसहस्र हाथीबल उद्देश्य के प्रति ईश्वरीय निष्ठा के कारण ही उत्पन्न हुआ था.

छत्रपति शिवाजी महाराज का शासन भोंसले घराने का शासन नहीं था. उन्होंने परिवार वाद को राजनीति में स्थान नहीं दिया. उनका शासन  सही अर्थ में प्रजा का शासन था. शासन में सभी की सहभागिता रहती थी. सामान्य मछुआरों से लेकर वेदशास्त्र पंडित सभी उनके राज्यशासन में सहभागी थे. छुआछूत का कोई स्थान नहीं था. पन्हाल गढ़ की घेराबंदी में नकली शिवाजी जो बने थे, उनका नाम था, शिवा काशिद. वे जाति से नाई थे. अफजलखान के समर प्रसंग में शिवाजी के प्राणों की रक्षा करनेवाला जीवा महाला था. और आगरा के किले में कैद के दौरान उनकी सेवा करने वाला मदारी मेहतर था. उनके किलेदार सभी जाति के थे. महाराज का एक नियम था कि सूरज ढलने के बाद किले के दरवाजे बंद करने चाहिये और किसी भी हालत में किले के अंदर प्रवेश नहीं देना चाहिये. बड़ी कड़ाई से इस नियम का पालन किया जाता था. सीमा की सुरक्षा इसी प्रकार रखनी पड़ती है. अवांछित लोगों को प्रवेश करने नहीं देना चाहिये. आज भारत में बांगलादेशी अपनी इच्छा से घुसपैठ करते रहते हैं और उनकी मदद सीमा की रक्षा करने वाले ही करते हैं.

महाराष्ट्र के श्रेष्ठ इतिहासकार न.र. फाटकजी ने एक किस्सा सुनाया था. पुणे के निकट स्थित किले पर कुछ तरुण गये थे. किलेदार वद्ध हो गया था और वह बुर्ज पर खड़े रहकर ऊपर से चावल के दाने नीचे डाल रहा था. युवकों ने उनसे पूछा, ‘चाचाजी यह आप क्या कर रहे हो?’ किलेदार ने कहा, ‘नीचे गांव में मेरे पोते की शादी है, इसलिये मैं ऊपर से मंगल अक्षता डाल रहा हूँ. मैं किले का किलेदार हूँ और महाराज की आज्ञा थी कि किलेदार को बिना अनुमति अपना किला नहीं छोड़ना चाहिये. अब महाराज नहीं हैं, अनुमति किससे मांगें? लेकिन महाराज के नियम को मैं तोड़ नहीं सकता.’  शिवाजी महाराज ने क्या परिवर्तन किया, कैसी निष्ठा निर्माण की, इसका यह अत्यंत सुंदर उदाहरण है.

शिवाजी महाराज ने मुसलमानी शासनकाल में लुप्त हो रही हिंदू राजनीति को फिर से पुनरुज्जीवित किया. हिंदू राजनीति की विशेषता क्या है? पहली विशेषता यह है कि वह धर्म के आधार पर चलती है. यहां धर्म का मतलब राजधर्म है. राजा का धर्म प्रजा का पालन, प्रजा का रक्षण और प्रजा का संवर्धन है. राजा, हिंदू राजनीति के सिद्धांतों के अनुसार उपभोग शून्य स्वामी है. प्रजा उसके लिये अपनी संतान के समान है. राज्य में कोई भूखा न रहे, किसी पर अन्याय न हो, इसकी चिंता उसे करनी चाहिये. प्रजा अपनी- अपनी रुचि के अनुसार उपासना पद्धति का अवलंब करती है, राजा ने प्रजा को सर्व प्रकार का उपासना स्वातंत्र्य देना चाहिये. प्रजा के जो धार्मिक कर्मकांड हैं, उनको राज्य की ओर से यथाशक्ति मदद भी करनी चाहिये.  न्याय सबके लिये समान होना चाहिये. जो उच्च पदस्थ हैं, उनके लिये एक न्याय और जो सामान्य हैं, उनके लिये दूसरा न्याय, यह अधर्म है. छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिंदू राजनीति के सिद्धांतों का अपने राजव्यवहार में कड़ाई से अनुप्रयोग किया.

उनके मामाजी ने भ्रष्टाचार किया, शिवाजी महाराज ने उनको पद से मुक्त किया और अपने देश के बाहर निकाल दिया. बेटे संभाजी ने कुछ अपराध किया, उसे पन्हाल गढ़ के कारागार में डाल दिया. रांझा के पाटिल ने एक युवती के साथ बलात्कार किया, उसके हाथ-पैर काटने की सजा दी. विजय दुर्ग (समुंदर में किला बनाने का काम चल रहा था.) इस काम में एक ब्राह्मण शासकीय अधिकारी ने सामग्री पहुंचाने में अक्षम्य विलंब किया. महाराज ने उनको खत लिखकर कहा कि अगर आप ब्राह्मण हैं, इसलिये आपको सजा नहीं होगी, इस भ्रम में नहीं रहना चाहिये. आपने शासकीय काम योग्य प्रकार से  नहीं किया, इसलिये आपको सजा मिलेगी. छत्रपति शिवाजी महाराज अपने को गो-ब्राह्मण प्रतिपालक कहा करते थे. इसका मतलब यह नहीं कि ब्राह्मण जाति के प्रतिपालक थे. यहां ब्राह्मण शब्द का अर्थ होता है, धर्म का अवलंब करनेवाला, विधि को जाननेवाला. आज की परिभाषा में कहना है तो, महाराज यह कहते हैं कि यह राज्य कानून के अनुसार चलेगा.

छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिंदू धर्म की रक्षा का बीड़ा उठाया था. इसका मतलब यह नहीं की वे इस्लाम धर्म के दुश्मन थे. उन्होंने कभी भी कुरान की अवमानना नहीं की, ना कोई मस्जिद गिरायी, ना किसी फकीर को फाँसी के फंदे चढ़ाया. उनका नौदल प्रमुख मुसलमान था. लेकिन वे धर्म की आड़ में अगर कोई हिंदू धर्म पर आघात करता दिखायी देता, तो वे उसे नहीं छोडते थे. शेजवलकर नाम के विख्यात इतिहासकार थे, उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज पर काफी लेखन किया है. गोवा में शिवाजी महाराज की जब सवारी हुई तब, कुछ ईसाई मिशनरी पकड़े गये. ये ईसाई मिशनरी डरा-धमकाकर हिंदुओं का धर्मांतरण करते थे. शिवाजी महाराज ने उनसे कहा की यह काम आप छोड़ दीजिये. तब उन्होंने उत्तर दिया कि धर्मांतरण करना यह हमारी धर्माज्ञा है. महाराज ने कहा, अगर ऐसा है तो, हमारी धर्माज्ञा ऐसी है कि जो धर्मांतरण करेगा उसकी गर्दन काट देनी चाहिये. शिवाजी महाराज ने दो मिशनरीयों की गर्दन  काट दी.‘सर्वधर्म समभाव’ इसका मतलब भोलेभाले हिंदूओं को डरा धमकाकर ईसाई या मुसलमान बनाना नहीं, यह काम अधर्म का काम है. हिंदू धर्म के विरुद्ध है, इसिलिये ऐसे काम करनेवालों से किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये, इसका एक उदाहरण छत्रपति शिवाजी महाराज ने दिया है.

हम सब शिवाजी महाराज द्वारा लड़े युद्धों के बारे में जानते हैं, लेकिन यह नहीं जानते हैं कि लगभग 36 साल तक उन्होंने राजकाज किया और उसमें से केवल 6 साल भिन्न-भिन्न लड़ाइओं में उन्होंने बिताये. तीस साल तक वे एक आदर्श शासन की नींव रखने में कार्यरत रहे. आज के पारिभाषिक शब्द हैं, सुशासन, विकास, विकास में सबका सहयोग, राष्ट्रीय संपत्ति का समान वितरण, दुर्बलों का सबलीकरण इत्यादि. छत्रपति शिवाजी महाराज ने यह कार्य कैसे करने चाहिये, इसका मानो एक ब्ल्यू प्रिंट हमारे सामने रखा है. अब तक के शासन काल में दुर्भाग्य से इस पर जितना ध्यान देना चाहिये, इसका जितना अभ्यास करना चाहिये, उतना नहीं हो पाया. लेकिन अब शिवाजी महाराज के इस ब्ल्यू प्रिंट को राष्ट्र जीवन में उतारने का समय आया है, ऐसा लगता है.

राष्ट्र की शक्ति के अनेक अंग होते है, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण अंग सामाजिक ऐक्य भावना का होता है. दूसरे महत्व का अंग उसकी अर्थनीति का होता है. तीसरे महत्व का  अंग उसकी विदेश नीति का होता है और चौथा महत्व अंग उसकी सैन्य शक्ति का होता है. शिवाजी महाराज ने उस काल की शब्दावली के अनुसार ‘मराठा तितुका मेळवावा, आपुला महाराष्ट्र धर्म वाढवावा.’ इस उक्ति को चरितार्थ किया है. यहां पर मराठा का मतलब हिंदू ऐसा है और महाराष्ट्र धर्म का मतलब हिंदू धर्म ऐसा ही है. अपना स्वराज्य आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी और सशक्त बने, इसकी ओर शिवाजी महाराज का हमेशा ध्यान रहता था. कृषकों की वे सहायता करते रहते थे. किंतु उन्हें आर्थिक सहायता नहीं दी जाती थी. किसानों को कृषि-उपकरण, बीज, बैल आदि साधनों के रूप में मदद दी जाती थी. महाराज का सख्त आदेश था कि सेनादल को अपने लिये आवश्यक वस्तुओं, धान्य आदि बाजार में जाकर खरीदना चाहिये. किसानों से जबरदस्ती वसूल नहीं करना चाहिये. यदि कोई ऐसा करने का दुस्साहस दिखाता तो उसे कड़ी सजा मिलती थी. आज हम देखते हैं कि चौराहे पर खड़ा पुलिसकर्मी पानवाले, पटरीवाले, चायवाले, और होटेलवाले से मुफ्त में माल लेता है. शिवाजी महाराज ऐसी लूट को सहन नहीं करते थे.

अपना सेनादल स्वयंपूर्ण रहे, इस पर छत्रपति शिवाजी महाराज काफी ध्यान दिया करते थे. तोपें बनाने का कारखाना उन्होंने बनवाया था. गोला-बारूद बनाने का उपक्रम उन्होंने शुरू कराया था. अच्छे घोड़ों की संतति निर्माण पर उनका ध्यान रहता था. उस समय के लोहे के शस्त्र अपने देश के अंदर ही निर्मित हों, ऐसा उन्होंने प्रयास किया. अंग्रेजों ने उनको अच्छे सिक्के बनाने का सुझाव दिया था.(मेटॅलिक कोइन्स) महाराज ने यह सुझाव ठुकरा दिया और कहा कि हमारे देसी कारीगर ही सिक्के तैयार करेंगे. राज व्यवहार भाषा का कोष उन्होंने तैयार किया और राज व्यवहार से पारसी, अरबी भाषा को निकाल दिया.

छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का स्मरण केवल इतिहास का स्मरण नहीं है. अपने राष्ट्र ने अभी करवट बदली है. नयी जागृति और नयी चेतना का कालखंड आया है. हमारा राष्ट्र सनातन राष्ट्र है. हमारी अपनी विशेषतायें हैं, हमारा अपना जीवनदर्शन है, हमारी अपनी राजनीतिक सोच है, इन सबको पुनरुज्जीवित करने का कालखंड आया है. हजारों साल तक हम विदेशी लोगों के प्रभाव में रहे, स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमने अपने स्व की कभी खोज नहीं की, हम स्वतंत्र होकर भी तंत्र से परतंत्र रहे. अब सही अर्थ में हमको स्व का बोध करना है, स्व-तंत्र की खोज करनी है. काल बदलता है, संदर्भ बदलते हैं, परस्थिति बदलती है इसीलिये छत्रपति शिवाजी की नकल नहीं की जा सकती, नकल करने की आवशकता भी नहीं, लेकिन शिवाजी महाराज के तंत्र का हम अभ्यास कर सकते है. तंत्र के मूलभूत सिद्धांत कभी बदलते नहीं, उन सिद्धांतों को आज की परिस्थिति में किस प्रकार क्रियान्वित किया जा सकता है, इस पर विचार करना चाहिये, और उनको अमल में लाना चाहिये.  सुराज्य और सुशासन की विरासत छत्रपति शिवाजी महाराज ने हमको दी है, उस विरासत को अब हमको अपने राष्ट्र जीवन में लाना पडेगा.

– रमेश पतंगे

 

 

 

 

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