राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आकर प्रायः सबके स्वभाव और कार्यशैली में परिवर्तन होता है. कई लोगों के तो जीवन का लक्ष्य ही बदल जाता है. कानपुर के विभाग प्रचारक श्री मनोज कुमार सिंह भी इसके अपवाद नहीं थे. उनका जन्म 1973 की श्रीराम नवमी पर ग्राम खखरा (जिला हरदोई, उ.प्र.) में हुआ था. इनके पिता श्री शिवराज सिंह तथा माता श्रीमती रामदेवी थीं. छह भाई-बहिनों में मनोज जी का नंबर पांचवा था.
प्राथमिक शिक्षा अपने गांव के निकट प्राथमिक विद्यालय, बौसरा से पूरी कर उन्होंने कक्षा छह से बारह तक की शिक्षा आदर्श कृष्ण इंटर कॉलेज भदैंचा (हरदोई) से प्राप्त की. इस काल में ही उनका सम्पर्क ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ से हुआ. उनकी नेतृत्व क्षमता, हिन्दुत्व निष्ठा तथा वैचारिक दृढ़ता देखकर उन्हें उस विद्यालय का प्रमुख बनाया गया. विद्यार्थी परिषद के माध्यम से ही फिर उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ.
मनोज जी को विद्यार्थी परिषद और फिर संघ से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले रामगोपाल जी के अनुसार मनोज जी प्रारम्भ में घोर अव्यवस्थित स्वभाव के थे. चाय के कप और झूठे बर्तन कमरे में कई दिन पड़े रहते थे; पर जब संघ वाले उनके कमरे पर आने लगे, तो उनका स्वभाव बदला. एक-दो बार तो रामगोपाल जी ने ही उनके साथ मिलकर कमरा साफ कराया. इससे उनका संघ कार्य के प्रति आकर्षण और बढ़ गया.
1993 में बी.ए. करने के बाद वे विद्यार्थी विस्तारक होकर लखनऊ के पास मोहनलाल गंज में आये. 1995 में वे ललितपुर में नगर प्रचारक, 1996 में जिला प्रचारक और फिर 1998 में हमीरपुर में जिला प्रचारक बने. इसी दौरान उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण भी पूरे किये. 2004 में वे फर्रुखाबाद में सह विभाग प्रचारक और 2005 में विभाग प्रचारक बने.
अन्तर्मुखी होने के कारण वे बोलते कम ही थे. उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी. पिताजी का देहांत हो चुका था. दोनों बड़े भाई अपनी गृहस्थी में व्यस्त तथा परिवार के प्रति उदासीन थे. एक बड़ी बहिन की आयु 35 वर्ष हो चुकी थी; पर घरेलू कारणों से उसका विवाह नहीं हो पा रहा था. ऐसे में मनोज जी ने ही यह जिम्मेदारी ली और उसका विवाह कराया.
2007 में मनोज जी कानपुर में विभाग प्रचारक थे. 12 अगस्त की शाम को जयनारायण विद्यालय में छात्रों का एक कार्यक्रम था. वहां बातचीत करते हुए बहुत देर हो गयी. रात के नौ बज गये. भोजन पहले से कहीं निश्चित नहीं था. भूख काफी तेज थी, अतः वे भोजन के लिये एक ढाबे में चले गये. वहां से वापस लौटते समय सड़क के एक गढ्ढे में मोटर साइकिल का अगला पहिया पड़ जाने से संतुलन बिगड़ गया और एक ट्रक से टक्कर हो गयी. टक्कर खाकर मनोज जी ऐसे गिरे कि वहीं उनका प्राणांत हो गया.
बहुत समय तक तो किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया. कुछ देर बाद वहां से निकल रहा एक पुलिस अधिकारी यह देखकर रुका. तभी मनोज जी की जेब में रखा मोबाइल फोन बजा. पुलिस अधिकारी ने फोन करने वाले को बताया कि तुमने जिसे फोन किया है, उसकी दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है. इस प्रकार इस दुर्घटना की जानकारी सबको मिली. लोग दौड़कर वहां पहुंचे; पर वहां मनोज जी की बजाय उनका शव ही मिला. इस प्रकार एक नवयुवक प्रचारक असमय काल-कवलित हुआ. शायद नियति ने उनके लिये इतनी ही सेवा निर्धारित की थी.