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12 जून / बलिदान दिवस – 1857 की महाक्रान्ति के योद्धा बाबासाहब नरगुन्दकर

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Bhagwa Dwajनई दिल्ली. भारत मां को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए 1857 की महाक्रान्ति के अनेक ज्ञात और अज्ञात योद्धा हैं, जिन्होंने अपने शौर्य, पराक्रम और उत्कट साहसपूर्ण देशभक्ति से न केवल उस संघर्ष को ऊर्जा दी, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा बन गये. बाबा साहब नरगुन्दकर उनमें से ऐसे ही एक योद्धा थे.

इस महासंग्राम के नायक श्रीमन्त नाना साहब पेशवा ने 1855 से ही देश भर के राजे, रजवाड़ों, जमीदारों आदि से पत्र व्यवहार शुरू कर दिया था. इन पत्रों में अंग्रेजों के कारण हो रही देश की दुर्दशा और उन्हें निकालने के लिए किये जाने वाले भावी संघर्ष में सहयोग का आह्वान किया जाता था. प्रायः बड़ी रियासतों ने अंग्रेजों से मित्रता बनाये रखने में ही अपना हित समझा, पर छोटी रियासतों ने उनके पत्र का अच्छा प्रतिसाद दिया.

10 मई को मेरठ में क्रान्ति की ज्वाला प्रकट होने पर सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्वातन्त्र्य चेतना जाग्रत हुई. दिल्ली, कानपुर, अवध आदि से ब्रिटिश शासन समाप्त कर दिया गया. इसके बाद नानासाहब ने दक्षिणी राज्यों से सम्पर्क प्रारम्भ किया. कुछ ही समय में वहां भी चेतना के बीज प्रस्फुटित होने लगे.

कर्नाटक के धारवाड़ क्षेत्र में नरगुन्द नामक एक रियासत थी. उसके लोकप्रिय शासक भास्कर राव नरगुन्दकर जनता में बाबा साहब के नाम से प्रसिद्ध थे. वीर होने के साथ-साथ वे स्वाभिमानी और प्रकाण्ड विद्वान भी थे. उन्होंने अपने महल में अनेक भाषाओं की 4,000 दुर्लभ पुस्तकों का एक विशाल पुस्तकालय बना रखा था. अंग्रेजी शासन को वे बहुत घृणा की दृष्टि से देखते थे. उत्तर भारत में क्रान्ति का समाचार और नाना साहब का सन्देश पाकर उन्होंने भी अपने राज्य में स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी.

ईस्ट इंडिया कम्पनी को जैसे ही यह सूचना मिली, उन्होंने मुम्बई के पॉलिटिकल एजेण्ट जेम्स मेंशन के नेतृत्व में एक सेना बाबा साहब को सबक सिखाने के लिए भेज दी. इस सेना ने नरगुन्द के पास पड़ाव डाल दिया. सेनापति मेंशन भावी योजना बनाने लगा. बाबा साहब के पास सेना कम थी, अतः उन्होंने शिवाजी की गुरिल्ला प्रणाली का प्रयोग करते हुए रात के अंधेरे में अंग्रेजी सेना पर हमला बोल दिया. अंग्रेज सेना में अफरा-तफरी मच गयी. जेम्स मेंशन जान बचाकर भागा, पर बाबा साहब ने उसका पीछा किया और पकड़कर मौत के घाट उतार दिया.

इसके बाद अंग्रेजों ने सेनापति माल्कम को और भी बड़ी सेना लेकर भेजा. इस सेना ने नरगुन्द को चारों ओर से घेर लिया. बाबा साहब ने इसके बाद भी हिम्मत नहीं हारी. ‘पहले मारे सो मीर’ के सिद्धान्त का पालन करते हुए उन्होंने किले से नीचे उतरकर माल्कम की सेना पर हमला कर अंग्रेजों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया, पर उसी समय ब्रिटिश सेना की एक नयी टुकड़ी माल्कम की सहायता के ले पहुंच गयी.

अब नरगुन्द का घेरा और कस गया. बाबा साहब की सेना की अपेक्षा ब्रिटिश सेना पांच गुना थी. एक दिन मौका पाकर बाबा साहब कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ किले से निकल गये. माल्कम ने किले पर अधिकार कर लिया. अब उसने अपनी पूरी शक्ति बाबा साहब को ढूंढने में लगा दी. दुर्भाग्यवश एक विश्वासघाती के कारण बाबा साहब पकड़े गये और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. 12 जून, 1858 को बाबा साहब ने मातृभूमि की जय बोलकर फांसी का फन्दा चूम लिया.

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