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15 नवम्बर / जन्मदिवस – प्रयोगधर्मी शिक्षक गिजूभाई

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नई दिल्ली. शिक्षक वह दीपक है, जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाशमान करता है. इस प्रसिद्ध कहावत को गिजूभाई के नाम से प्रसिद्ध प्रयोगधर्मी शिक्षक गिरिजाशंकर वधेका जी ने पूरा कर दिखाया. 15 नवम्बर, 1885 को चित्तल (सौराष्ट्र, गुजरात) में जन्मे गिजूभाई के पिता अधिवक्ता थे. आनन्द की बात यह रही कि वे अध्यापन छोड़कर वकील बने, जबकि गिजूभाई उच्च न्यायालय की अच्छी खासी चलती हुई वकालत छोड़कर शिक्षक बने. गिजूभाई वकालत के सिलसिले में एक बार अफ्रीका गये. उन दिनों वहाँ बड़ी संख्या में भारतीय काम के लिये गये हुये थे. उनके मुकदमों के लिये भारत से वकील वहाँ जाते रहते थे. गांधी जी भी इसी प्रकार अफ्रीका गये थे. उस दौरान 1923 में गिजूभाई को पुत्र नरेन्द्र की प्राप्ति हुई. नरेन्द्र ने उनके जीवन में ऐसा परिवर्तन किया कि गिजूभाई अधिवक्ता से शिक्षक बन गये.

अफ्रीका में उन दिनों भारतीय बच्चों के लिये कोई विद्यालय नहीं था. ऐसे में गिजूभाई ने नरेन्द्र को स्वयं जो पाठ पढ़ाये, उससे उन्हें लगा कि उनके भीतर एक शिक्षक छिपा है. ‘मोण्टेसरी मदर’ नामक एक छोटी पुस्तक में यह पढ़कर कि ‘बालक स्वतन्त्र और सम्मान योग्य है. वह स्वयं क्रियाशील और शिक्षणप्रिय है’ गिजूभाई का मन नये प्रकाश से जगमगा उठा. अब उन्होंने वकालत को त्याग दिया और पूरी तरह बाल शिक्षा को समर्पित हो गये. उन्होंने विश्व के प्रख्यात बालशिक्षकों की पुस्तकों का अध्ययन किया. अपने मित्रों, परिजनों, शिक्षकों तथा समाजशास्त्रियों से इस विषय में चर्चा की. फिर उनमें दिये गये विचार, प्रयोग तथा सूत्रों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में लागू करने के लिये गिजूभाई ने एक बालमन्दिर की स्थापना की.

इसमें उन्होंने गन्दे, शरारती और कामचोर बच्चों पर कई प्रयोगकर उन्हें स्वच्छ, अनुशासनप्रिय तथा स्वाध्यायी बना दिया. इससे उनके अभिभावक ही नहीं, तो तत्कालीन शिक्षा अधिकारी भी चकित रह गये. इन प्रयोगों की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने लगी. गिजूभाई ने अपने प्रयोगों तथा अनुभवों का लाभ सब तक पहुँचाने के लिए ‘दक्षिणामूर्ति’ नामक पत्रिका भी निकाली. गिजूभाई शिक्षण को संसार का श्रेष्ठतम कार्य तथा सत्ता और धन के लोभ को शिक्षक की निष्ठा डिगाने वाले दो विषधर सर्प मानते थे. वे बच्चों की पिटाई को शिक्षक की मानसिक निर्बलता, कायरता तथा अत्याचार मानते थे. इसी प्रकार वे बच्चों को लालच देने को घूसखोरी से भी बड़ा अपराध मानते थे.

गिजूभाई अपने जीवन में पर्यावरण संरक्षण को भी बहुत महत्व देते थे. वे अपने विद्यालय को शिक्षा का मन्दिर तथा अध्यापक व छात्रों की प्रयोग भूमि मानते थे. उन्होंने भावनगर स्थित ‘दक्षिणामूर्ति बाल भवन’ में नाटकशाला, खेल का मैदान, उद्यान, कलाकुंज, संग्रहालय आदि बनाये. गिजूभाई का मत था कि परीक्षा बाहर के बदले भीतर की, ज्ञान के बदले शक्ति की, यथार्थ के बदले विकास की, परार्थ के बदले आत्मार्थ की होनी चाहिये. वे चाहते थे कि परीक्षक भी बाहर के बदले भीतर का ही हो. उन्होंने बच्चों, अध्यापकों तथा अभिभावकों के लिये अनेक पुस्तकें लिखीं, जो आज भी बाल शिक्षा के क्षेत्र में आदर्श मानी जाती हैं.

वे बच्चों से इतना अधिक प्यार करते थे कि बच्चे उनको मूँछाली माँ (मूँछों वाली माँ) कहते थे. बाल शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले गिजूभाई का देहान्त 23 जून, 1939 को हुआ.

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