नई दिल्ली. बात वर्ष 1928 की है. भारत माता की परतन्त्रता की बेड़ियां काटने के लिए जहां एक ओर आजादी के दीवाने जूझ रहे थे, वहीं दूसरी ओर शासन भारतीयों के दमन के लिए कठोर कानून ला रहा था. सरकार ने शिकंजे को मजबूत करने के लिए जॉन साइमन के नेतृत्व में एक आयोग नियुक्त किया, जो भारत में सब ओर प्रवास कर रहा था. इस आयोग का सब जगह प्रबल विरोध हुआ. जब साइमन 30 अक्तूबर को लाहौर आया, तो पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के नेतृत्व में हुए शान्तिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस अधीक्षक स्कॉट और उसके साथियों ने निर्ममता से लाठियां बरसायीं. इससे सैकड़ों लोग घायल हो गये. वयोवृद्ध लाला लाजपत राय के सिर पर भी स्कॉट की एक लाठी लगी. इससे उनका सिर फट गया और अन्ततः 17 नवम्बर को उनका देहान्त हो गया.
लाला लाजपत राय की मौत से क्रान्तिकारियों का खून खौल गया. उन्होंने घटना का बदला लेने का निश्चय किया. सारी योजना बना ली गयी. स्कॉट को दण्ड देने का काम भगत सिंह को सौंपा गया. आजाद, राजगुरु और जयगोपाल को उसकी सहायता करनी थी. कार्यवाही से पहले और बाद में ठहरने का प्रबन्ध सुखदेव ने किया था. 15 दिसम्बर, 1928 की शाम इसके लिए निश्चित हुई. जयगोपाल योजनानुसार पुलिस कार्यालय के बाहर साइकिल लेकर ऐसे खड़े हो गये, मानो वे बिगड़ी साइकिल को सुधार रहे हैं. कुछ दूरी पर भगतसिंह और राजगुरु खड़े बात कर रहे थे, मानो दो छात्र आपस में पढ़ाई सम्बन्धी चर्चा कर रहे हों. पुलिस कार्यालय के सामने ही डीएवी कॉलेज था. उसके फाटक की आड़ में चन्द्रशेखर आजाद अपना माउजर लिये तैनात थे.
ठीक पांच बजे पुलिस अधिकारी सांडर्स कार्यालय से बाहर निकलकर अपनी मोटर साइकिल चालू करने लगा. जयगोपाल ने समझा कि यही स्कॉट है. उसने इशारा दिया और अपनी साइकिल सहित खड़ा हो गया. सांडर्स जैसे ही कुछ कदम आगे बढ़ा कि भगत सिंह और राजगुरु ने जेब में से भरी पिस्तौल निकाल ली. भगत सिंह की इच्छा थी कि सांडर्स कुछ और निकट आ जाये, तभी गोली मारी जाये, जिससे गोली बेकार न हो, पर राजगुरु ने इस बात की प्रतीक्षा किये बिना गोली दाग दी. गोली लगते ही सांडर्स मोटर साइकिल सहित गिर पड़ा. यह देखकर भगत सिंह ने पास जाकर अपनी पिस्तौल की सब गोलियां उस पर झोंक दीं, जिससे उसके जीवित बचने की कोई सम्भावना न रहे. गोली चलने की आवाज सुनकर एक पुलिस अधिकारी मिस्टर फर्न घटनास्थल की ओर भागा.
यह देखकर राजगुरु ने उसे उठाकर धरती पर पटक दिया. इसके बाद तीन सिपाही उनके पीछे दौड़े. आजाद ने उन्हें गोली मारने की चेतावनी दी. इससे डरकर दो सिपाही तो लौट गये, पर हवलदार चानन सिंह आगे बढ़ता रहा. इस पर आजाद ने उसके पांव में गोली मार दी. वह भी धरती पर गिर गया. यह कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सभी लोग अपने ठहरने के सुरक्षित ठिकानों पर पहुंच गये. बाद में सब पुलिस को झांसा देकर लाहौर से बाहर भी निकल गये. यद्यपि जिसे मारना चाहते थे, वह पुलिस अधीक्षक स्कॉट तो अपने भाग्य से बच गया, पर अंग्रेजों को यह अनुभव हो गया कि राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए भारतीय क्रान्तिवीरों का सामर्थ्य कम नहीं है.