पूरे देश में संघ कार्य को फैलाने का श्रेय नागपुर के प्रचारकों को है; पर नागपुर में संघ कार्य को संभालने, गति देने तथा कार्यकर्ताओं को गढ़ने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले श्री बापू नारायण बरहाडपांडे का जन्म 16 दिसम्बर, 1918 को हुआ था. 1927 में नागपुर की ऊंटखाना शाखा से उनका संघ जीवन प्रारम्भ हुआ और फिर वही उनका तन, मन और प्राण बन गया. गृहस्थी तथा अध्यापन करते हुए भी उनके जीवन में प्राथमिकता सदा संघ कार्य को रहती थी.
एक सामान्य परिवार में जन्मे बापूराव रसायनशास्त्र में एम.एस-सी. कर अध्यापक बने. यह कार्य पूरी जिम्मेदारी से निभाते हुए भी उनकी साइकिल और फिर मोटरसाइकिल सदा शाखाओं की वृद्धि के लिये घूमती रहती थी. प्रथम प्रतिबन्ध के समय उन्होंने भूमिगत रहकर सत्याग्रह का संचालन किया. किसी भी हनुमान मंदिर में आकस्मिक बैठक कर वे सत्याग्रह की सूचना देते थे.
भूमिगत होने के कारण वे कॉलिज नहीं जा पाते थे. काफी प्रयास के बाद भी पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी. शासन ने उन्हें काम से हटाया तो नहीं; पर प्रतिबन्ध हटने के बाद काम पर रखा भी नहीं. अतः उनका परिवार आर्थिक संकट में आ गया; पर उन्होंने साहसपूर्वक मुकदमा लड़ा और फिर नौकरी प्राप्त की. प्रतिबंध हटने के बाद संघ को अनेक तरह के झंझावातों में से गुजरना पड़ा; पर बापूराव अडिग रहे. 1952 से 64 तक वे नागपुर के सहकार्यवाह और फिर प्रांत संघचालक रहे. कई बार वे नागपुर और पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में मुख्यशिक्षक बने.
नागपुर संघ कार्यालय की देखरेख, डा. हेडगेवार, श्री गुरुजी और फिर बालासाहब के निवास की व्यवस्था, केन्द्रीय कार्यसमिति की बैठकों का आयोजन, स्मृति मंदिर का निर्माण, प्रतिवर्ष होने वाले संघ शिक्षा वर्ग की व्यवस्था, नागपुर के विशिष्ट विजयादशमी उत्सव आदि को बापूराव ने कुशलता से निभाया. 1964 में वे मोहता साइन्स कॉलिज के प्राचार्य बने. इस दौरान उनकी अनुशासनप्रियता से विद्यालय की प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुई.
स्वस्थ और सबल शरीर वाले बापूराव को बचपन से कुश्ती का शौक था. अखाड़े की यह संघर्षप्रियता उनके जीवन में भी दिखाई देती है. 1975 के आपातकाल और संघबंदी के समय भी उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. पूरे आपातकाल के दौरान उन्हें वेतन नहीं मिला; पर दीनता न दिखाते हुए वे फिर न्यायालय में गये और मुकदमा लड़कर अपना अधिकार प्राप्त किया.
अध्यापक होने के नाते पढ़ने, पढ़ाने और लिखने में उनकी रुचि थी ही. उनके द्वारा लिखित, संकलित व सम्पादित चार पुस्तकों में संघ का इतिहास समाया है. पूज्य डाक्टर जी के जीवन पर ‘संघ निर्माता के आप्तवचन’, श्री गुरुजी के पत्र-व्यवहार के रूप में ‘अक्षर प्रतिमा’, श्री गुरुजी के देहांत के बाद सात खंडों में ‘श्री गुरुजी समग्र दर्शन ग्रन्थ’ तथा ‘हिन्दू जीवन दृष्टि’ उनके विचारों की गहराई की दिग्दर्शक हैं. नागपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक तरुण भारत में भी उनके लेख शृंखलाबद्ध रूप में प्रकाशित होते थे.
बापूराव की लगातार सक्रियता के कारण उन्हें संघ का चलता-फिरता इतिहास पुरुष माना जाता था. उन्हें संघ के प्रारम्भ काल की घटनायें ठीक से याद थीं. प्रथम प्रतिबन्ध के बाद नागपुर से निकलने वाले प्रायः सभी प्रचारकों को बाहर भेज दिया जाता था. ऐसे में नागपुर के कार्य को संभालने और बढ़ाने का श्रेय बापूराव को ही है. उनकी वाणी और व्यवहार में अंतर नहीं था. इसलिये प्रचारक न होते हुए भी वे प्रचारकों के प्रेरणास्रोत थे.
अंतिम दिनों में बापूराव संघ के केन्द्रीय कार्यकारी मंडल के सदस्य थे. 13 नवम्बर, 2000 को हुए तीव्र हृदयाघात से उनका निधन हुआ.
(संदर्भ: राष्ट्रसाधना भाग एक तथा पांचजन्य 26.11.2000)