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17 जुलाई / पुण्य-तिथि; आजीवन संघर्षशील जे.गौरीशंकर

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आंध्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिन्दू संगठनों के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा नक्सलवादी कम्युनिस्ट रहे हैं. इन हिंसक और विदेश प्रेरित आतंकियों से उनकी ही भाषा में बात कर उन्हें हटने को मजबूर करने वाले श्री जनमंच गौरीशंकर का जन्म 15 दिसम्बर, 1949 को आंध्र प्रदेश के नेल्लूर जिले के कोवूर ग्राम में हुआ था. उनके पिता श्री लक्ष्मीशंकर शर्मा तथा माता श्रीमती शारदाम्बा थीं. कक्षा 10 तक की शिक्षा गांव में ही पाकर वे नेल्लूर आ गये और वहां से उन्होंने विद्युत अभियन्ता का तीन वर्षीय डिप्लोमा प्राप्त किया. इसी समय उनका सम्पर्क विद्यालय में लगने वाली शाखा से हुआ.

शाखा पर प्रायः एस.एफ.आई. के गुंडे हमला करते रहते थे. स्वयंसेवक भी उन्हें वैसा ही उत्तर देते थे. गौरीशंकर स्वयंसेवकों की इस विनम्रता, सेवा भावना और संघर्षशीलता से प्रभावित होकर नियमित शाखा आने लगे. डिप्लोमा के तीसरे वर्ष में वे विद्यालय शाखा के मुख्यशिक्षक बने. उनके पिताजी उन्हें शाखा से दूर रहने को कहते थे, चूंकि उस सारे क्षेत्र में नक्सली कम्युनिस्टों का भारी आतंक था; पर निर्भीक गौरीशंकर क्रमशः संघ कार्य में रमते गये.

1970 में शिक्षा पूर्णकर गौरीशंकर जी प्रचारक बन गये. वे क्रमशः गुंटूर में बापटला नगर, तेनाली नगर और फिर पश्चिम गोदावरी जिला प्रचारक रहे. आपातकाल में वे अनंतपुर जिला प्रचारक थे. उनके सम्पर्क का दायरा बहुत बड़ा था. उन्होंने कई प्रतिष्ठित वकीलों, अवकाश प्राप्त अधिकारियों तथा एक बैरिस्टर को भी संघ से जोड़ा. आपातकाल में भी उन्होंने कई प्रचारक बनाये.

परिवारों में अच्छी पंहुच होने के कारण घर की अनुमति से उन्होंने कई युवकों को सत्याग्रह कराया. पुरानी कांग्रेस के नेता नीलम संजीव रेड्डी से उन्होंने अनंतपुर के सत्याग्रह का नेतृत्व करने को कहा; पर वे डर गये. जनसंघ के एक बन्दी कार्यकर्ता को उन्होंने विधान परिषद का चुनाव लड़ाकर विजयी बनाया.

1977 के चुनाव में जनता पार्टी के पास अनंतपुर से लड़ने के लिए प्रत्याशी ही नहीं था. ऐसे में गौरीशंकर जी ने एक व्यक्ति को तैयार कर चुनाव लड़ाया. आपातकाल में वे ‘एक्स-रे’ नामक एक गुप्त पत्रक भी निकालते थे.1979 में उन्हें विद्यार्थी परिषद का प्रांत संगठन मंत्री बनाया गया. वह नक्सलियों से चरम संघर्ष का समय था. उसमें विद्यार्थी परिषद के कई कार्यकर्ता  शहीद हुये, तो कई नक्सली भी मारे गये. संघर्ष के उस कठिन दौर में उन्होंने सबका मनोबल बनाये रखा. परिषद की मासिक पत्रिका ‘सांदीपनी’ में शहीद कार्यकर्ताओं की स्मृति में उनका मार्मिक लेख बहुत चर्चित हुआ.

गौरीशंकर जी पर एक समय उनके विभाग प्रचारक रहे श्री भोगादि दुर्गाप्रसाद का बहुत प्रभाव था. उनके असमय देहांत के बाद उन्होंने उनकी स्मृति में समिति बनाकर छात्रों को छात्रवृत्ति तथा प्रचारक जीवन से लौटे कार्यकर्ताओं को आर्थिक सहयोग दिया, जिससे वे अपना कारोबार खड़ा कर सकें. उनकी पुण्यतिथि पर वे प्रतिवर्ष एक बड़ा परिवार सम्मेलन भी करते थे.

आंध्र में विद्यार्थी परिषद के कार्य को दृढ़ करने के बाद उन्हें क्षेत्र संगठन मंत्री बनाया गया. इस समय आंध्र, उड़ीसा, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु उनके कार्यक्षेत्र में थे.1998 में वे राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री बनाये गये; पर देशव्यापी प्रवास की व्यस्तता, अनियमित दिनचर्या और खानपान की अव्यवस्था के कारण वे मधुमेह से पीड़ित हो गये. ध्यान न देने के कारण धीरे-धीरे रोग इतना बढ़ गया कि उन्हें बंगलुरु के चिकित्सालय में भर्ती कराना पड़ा.

संघर्षप्रिय जे.गौरीशंकर ने कभी परिस्थितियों से हार नहीं मानी; पर इस बार विधाता अनुकूल नहीं था. चार महीने तक रोग से संघर्ष करने के बाद 17 जुलाई, 2001 को उन्होंने प्रभु चरणों में समर्पण कर दिया.

(श्री कोटेश्वर जी से वार्ताधारित)

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