नई दिल्ली. बिहार के एक बड़े क्षेत्र और पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रचलित भोजपुरी भाषा या बोली है, इस विवाद को हम भाषा शास्त्रियों के लिये छोड़ दें. पर यह सत्य है कि इसे विश्व रंगमंच पर स्थापित करने में भिखारी ठाकुर जी का योगदान सर्वाधिक है. जैसे गोस्वामी तुलसीदास व कबीरदास ने पांडित्यपूर्ण भाषा के बदले लोकभाषा को अपनाकर जन-जन के मन में अपना स्थान बनाया, इसी प्रकार उत्तर भारत में भिखारी ठाकुर की मान्यता है.
भिखारी ठाकुर जी का जन्म 18 दिसम्बर, 1887 को ग्राम कुतुबपुर (जिला छपरा, बिहार) में हुआ था. इनके पिता श्री दलसिंगार ठाकुर और माता श्रीमती शिवकली देवी थीं. इस समय देश में अंग्रेजों का दमन पूरे जोरों पर था. बिहार की दशा तो और भी खराब थी, क्योंकि वहाँ विदेशी दासता के साथ ही जमींदारों और भूस्वामियों के अत्याचार भी निर्धन जनता को सहने पड़ते थे. महिलाएँ अशिक्षा के साथ-साथ बाल विवाह जैसी कुरीतियों से भी ग्रस्त थीं. स्वयं भिखारी ठाकुर जी ने भी विधिवत कोई शिक्षा नहीं पायी. पर जन-जन में प्रचलित लोकभाषा में अपनी कविता एवं नाटक रचकर एक नयी शैली का प्रतिपादन किया, जो ‘बिदेसिया’ के नाम से प्रसिद्ध हुई. अपने नाटकों में वे अभिनेता, निर्देशक और सूत्रधार की भूमिका भी स्वयं ही सँभालते थे. नौ वर्ष की अवस्था में भिखारी ठाकुर ने अपने भाई के साथ अक्षर ज्ञान पाया. वह बस इतना ही था कि वे रामचरित मानस पढ़ने लगे. वह कैथी लिपि में लिखते थे, जिसे पढ़ना बहुत कठिन था. अब यह लिपि लुप्तप्रायः है.
किशोरावस्था में ही उनका विवाह मतुरना के साथ हो गया. उन्हें बचपन से नाटक देखने का शौक था. माता-पिता की इच्छा के विपरीत वे चोरी छिपे नाटक देखते और कभी-कभी उसमें अभिनय भी कर लेते थे. एक बार वे घर से भागकर खड्गपुर जा पहुँचे. वहाँ उन्होंने मेदिनीपुर की रामलीला और जगन्नाथपुरी की रथयात्रा देखी. इससे उनके भीतर का कलाकार पूर्णतः जाग गया और वे धार्मिक भावना से परिपूर्ण होकर गाँव लौट आये. 30 वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘बिदेसिया’ की रचना की और अपनी नृत्य मंडली बना ली. घर वालों का विरोध तो था ही, पर जब यह नाटक और नृत्य जनता के बीच गये, तो सबकी जिह्वा पर भिखारी ठाकुर का नाम चढ़ गया. सन् 1939 से 1962 के मध्य भिखारी ठाकुर की लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिन्हें फुटपाथ पर लगने वाली दुकानों से खरीद कर लोग बड़े चाव से पढ़ते थे. इनमें से अधिकांश पुस्तकें दूधनाथ प्रेस, सलकिया (हावड़ा) और कचौड़ी गली, वाराणसी से प्रकाशित हुई थीं.
इनमें बिदेसिया, कलियुग प्रेम, गंगा स्नान, बेटी वियोग, भाई विरोध, पुत्रवधू, विधवा विलाप, राधेश्याम बहार, ननद भौजाई, गबरघिंचोर आदि प्रमुख हैं. भिखारी ठाकुर ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की प्रतिमूर्ति थे. खाने के लिए रोटी, भात, सत्तू जो मिलता, उसी से काम चलाते थे. धोती, कुर्ता, मिरजई, सिर पर साफा और पैर में साधारण जूता उनका वेष था. बिहार शासन और अनेक संस्थाओं से उन्हें सैकड़ों पुरस्कार और सम्मान मिले, पर वे सदा घर के आगे चटाई बिछाकर आम लोगों से मिलते रहते थे. अहंकार शून्यता इतनी थी कि छोटे-बड़े सबसे वे स्वयं ही राम-राम करते थे. अपने नाटकों में रूढ़ियों और कुरीतियों का विरोध करने वाले इस कवि एवं नाटककार का निधन 10 जुलाई, 1971 को हुआ.