नई दिल्ली. छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने भुजबल से एक विशाल भूभाग मुगलों से मुक्त करा लिया था. उनके बाद इस ‘स्वराज्य’ को संभाले रखने में जिस वीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, उनका नाम था बाजीराव पेशवा. बाजीराव का जन्म 18 अगस्त, 1700 को अपने ननिहाल ग्राम डुबेर में हुआ था. उनके दादा विश्वनाथ भट्ट जी ने शिवाजी महाराज के साथ युद्धों में भाग लिया था. उनके पिता बालाजी विश्वनाथ छत्रपति साहू जी महाराज के महामात्य (पेशवा) थे. उनकी वीरता के बल पर ही साहू जी ने मुगलों तथा अन्य विरोधियों को मात देकर स्वराज्य का प्रभाव बढ़ाया था.
बाजीराव को बाल्यकाल से ही युद्ध एवं राजनीति प्रिय थी. जब वे छह वर्ष के थे, तब उनका उपनयन संस्कार हुआ. उस समय उन्हें अनेक उपहार मिले. जब उन्हें अपनी पसन्द का उपहार चुनने को कहा गया, तो उन्होंने तलवार को चुना. छत्रपति साहू जी ने एक बार प्रसन्न होकर उन्हें मोतियों का कीमती हार दिया, तो उन्होंने इसके बदले अच्छे घोड़े की मांग की. घुड़साल में ले जाने पर उन्होंने सबसे तेज और अड़ियल घोड़ा चुना. यही नहीं, उस पर तुरन्त ही सवारी गांठ कर उन्होंने अपने भावी जीवन के संकेत भी दे दिये. चौदह वर्ष की अवस्था में बाजीराव प्रत्यक्ष युद्धों में जाने लगे. 5,000 फुट की खतरनाक ऊंचाई पर स्थित पाण्डवगढ़ किले पर पीछे से चढ़कर उन्होंने कब्जा किया. कुछ समय बाद पुर्तगालियों के विरुद्ध एक नौसैनिक अभियान में भी उनके कौशल का सबको परिचय मिला. इस पर साहू जी ने इन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी. दो अप्रैल, 1720 को बाजीराव के पिता विश्वनाथ पेशवा के देहान्त के बाद साहू जी ने 17 अप्रैल, 1720 को 20 वर्षीय तरुण बाजीराव को पेशवा बना दिया. बाजीराव ने पेशवा बनते ही सर्वप्रथम हैदराबाद के निजाम पर हमलाकर उसे धूल चटाई.
इसके बाद मालवा के दाऊदखान, उज्जैन के मुगल सरदार दयाबहादुर, गुजरात के मुश्ताक अली, चित्रदुर्ग के मुस्लिम अधिपति तथा श्रीरंगपट्टनम के सादुल्ला खां को पराजित कर बाजीराव ने सब ओर भगवा झण्डा फहरा दिया. इससे स्वराज्य की सीमा हैदराबाद से राजपूताने तक हो गयी. बाजीराव ने राणो जी शिन्दे, मल्हारराव होल्कर, उदा जी पंवार, चन्द्रो जी आंग्रे जैसे नवयुवकों को आगे बढ़ाकर कुशल सेनानायक बनाया. पालखिण्ड के भीषण युद्ध में बाजीराव ने दिल्ली के बादशाह के वजीर निजामुल्मुल्क को धूल चटाई थी. द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रसिद्ध जर्मन सेनापति रोमेल को पराजित करने वाले अंग्रेज जनरल माण्टगोमरी ने इसकी गणना विश्व के सात श्रेष्ठतम युद्धों में की है. इसमें निजाम को सन्धि करने पर मजबूर होना पड़ा. इस युद्ध से बाजीराव की धाक पूरे भारत में फैल गयी. उन्होंने वयोवृद्ध छत्रसाल की मोहम्मद खां बंगश के विरुद्ध युद्ध में सहायता कर उन्हें बंगश की कैद से मुक्त कराया. तुर्क आक्रमणकारी नादिरशाह को दिल्ली लूटने के बाद जब बाजीराव के आने का समाचार मिला, तो वह वापस लौट गया.
सदा अपराजेय रहे बाजीराव अपनी घरेलू समस्याओं और महल की आन्तरिक राजनीति से बहुत परेशान रहते थे. जब वे नादिरशाह से दो-दो हाथ करने की अभिलाषा से दिल्ली जा रहे थे, तो मार्ग में नर्मदा के तट पर रावेरखेड़ी नामक स्थान पर गर्मी और उमस भरे मौसम में लू लगने से मात्र 40 वर्ष की अल्पायु में 28 अप्रैल, 1740 को उनका देहान्त हो गया. उनकी युद्धनीति का एक ही सूत्र था कि जड़ पर प्रहार करो, शाखाएं स्वयं ढह जाएंगी. पूना के शनिवार बाड़े में स्थित महल आज भी उनके शौर्य की याद दिलाता है.